सिरपुर के पाण्डुवंश/सोमवंश :
पांचवीं शताब्दी में छत्तीसगढ़ (श्रीपुर / वर्तमान- सिरपुर) पर शासन करने वाले पाण्डुवंश के प्रारंभिक शासक उदयन, इन्द्रबल, नन्नदेव थे, जिनका राज्य पर्याप्त विस्तृत था, इन्हें सोमवंशी भी कहा जाता था।
इस राजवंश के प्रथम शासक उदयन था जिसका उल्लेख कालिंजर के शिलालेख में आदिपुरुष के रूप में हुआ है। उदयन के बाद उसका पुत्र इन्द्रबल शासक बना, जोकि शराभपुरीय वंश के शासक सुदेवराज का सामंत था। इस राजवंश के स्थापना का श्रेय इन्द्रबल को ही दिया जाता है। प्राप्त शिलालेख के अनुसार इन्द्रबल ने अपने नाम से इन्द्रपुर नगर की स्थापना किया था जो वर्तमान में खरौद के नाम से जाना जाता है. खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर का निर्माण इन्द्रबल के पुत्र ईशानदेव ने करवाया था।
पाण्डुवंश को शक्तिशाली बनाने का श्रेय नन्नदेव के सुपुत्र महाशिव तीवरदेव को प्राप्त है, इन्होंने उत्कल, कोसल आदि क्षेत्रों को पूर्ण विजय कर “सकल कोशलाधिपति” की उपाधि भी धारण की. राजिम, बालोद और बोंडा से प्राप्त ताम्रपत्रों से तत्कालीन शासन व्यवस्था की जानकारी मिलती है। तीवरदेव के बाद उसका पुत्र महानन्न ने पाण्डु सत्ता का विस्तार किया। तदन्तर क्रमशः चन्द्रगुप्त, हर्षगुप्त तथा महाशिवगुप्त बालार्जुन शासक बना. हर्षगुप्त की स्मृति में लगभग 600 ई. में रानी वासटादेवी ने श्रीपुर में लक्ष्मण मंदिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ करवायी। वर्तमान में यह मंदिर भारतीय वास्तुकला का अनुपम कृति है।
इस वंश के सर्वाधिक प्रतापी राजा महाशिवगुप्त (595 ई. – 655 ई.) था, बाल्यावस्था से ही धनुर्विद्या में पारंगत होने के कारण बालार्जुन के नाम से भी जाना जाता था। इन्होंने श्रीपुर (सिरपुर) के लक्ष्मण मंदिर के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। इसी समय 639 ई. में चीनी यात्री व्हेनसांग छत्तीसगढ़ की यात्रा पर आया था। महाशिवगुप्त की धर्मसहिष्णुता अनुकरणीय थी। वह शैव धर्मावलम्बी था, किन्तु सभी सम्प्रदायों के प्रति सहिंष्णु भाव रखता था. इसके शासन काल में राजधानी श्रीपुर व अन्य स्थलों में शैव, वैष्णव, जैन एवं बौद्ध धर्मों से सम्बंधित अनेक स्मारक और कृत्यों का निर्माण हुआ। महाशिवगुप्त के 27 ताम्रपत्र श्रीपुर (सिरपुर) से प्राप्त हुआ है। इसके शासन काल को छत्तीसगढ़ (दक्षिण कोसल) के इतिहास का स्वर्णकाल कहा जाता है।
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