# सामाजिक अनुसंधान का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, उपयोगिता, महत्व, प्रमुख चरण, प्रकृति एवं अध्ययन क्षेत्र (Samajik Anusandhan)

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सामाजिक अनुसंधान का अर्थ :

मानव द्वारा वस्तुओं या घटनाओं के बारे में जानने या खोजने का कार्यक्रम निरन्तर चल रहा है और इस कार्यक्रम या प्रयास का उद्देश्य ज्ञान की वृद्धि, अस्पष्ट ज्ञान का स्पष्टीकरण व मौजूदा ज्ञान का सत्यापन करना है। इसी को शोध या अनुसंधान कहते हैं। इस प्रकार सामाजिक जीवन व घटनाओं के बारे में अधिक से अधिक वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए ‘सामाजिक अनुसंधान‘ का प्रयोग किया जाता है।

इसमें सामाजिक अनुसंधानकर्त्ता वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग से सामाजिक जीवन एवं घटनाओं के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है और मानव व्यवहार के बारे में प्राप्त तथ्यों के आधार पर सामान्य सिद्धान्तों को निकालता है। फिर भी सामाजिक अनुसंधान के अर्थ को भली-भाँति समझने के लिए विभिन्न विद्वानों की परिभाषाओं का अध्ययन करना आवश्यक है। वास्तव में सर्वप्रथम सामाजिक अनुसंधान की परिभाषा, लक्षण, उद्देश्यों आदि को भली-भाँति समझना आवश्यक होगा। प्रस्तुत विवेचन में विस्तारपूर्वक इन्हीं पर प्रकाश डाला जा रहा है। विभिन्न विद्वानों द्वारा सामाजिक अनुसंधान को निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है-

सामाजिक अनुसंधान की परिभाषा :

श्रीमती यंग के अनुसार, “सामाजिक अनुसंधान को एक वैज्ञानिक योजना के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसका उद्देश्य तार्किक एवं क्रमबद्ध पद्धतियों के द्वारा नवीन तथ्यों की खोज, पुराने तथ्यों के सत्यापन, उनकी क्रमबद्धताओं व अन्तर्सम्बन्धों, कार्य-कारण व्याख्याओं तथा उन्हें नियंत्रित करने वाले स्वाभाविक नियमों की खोज करना है।”

व्हिटने के अनुसार, “समाजशास्त्रीय अनुसंधान के अन्तर्गत मानव समूह के सम्बन्धों का अध्ययन होता है।”

मोसर के अनुसार, “सामाजिक घटनाओं व समस्याओं के बारे में नवीन ज्ञान को प्राप्त करने के लिए किये गये व्यवस्थित अनुसंधान को हम सामाजिक अनुसंधान कहते हैं।”

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सामाजिक अनुसंधान सामाजिक जीवन व घटनाओं के कारणों, अन्तः सम्बन्धों, प्रक्रियाओं आदि का वैज्ञानिक अध्ययन व विश्लेषण है। इस प्रकार सामाजिक अनुसंधान एक वैज्ञानिक पद्धति है जिसका उद्देश्य सामाजिक घटनाओं व समस्याओं के बारे में क्रमबद्ध व तार्किक पद्धतियों के द्वारा शुद्ध ज्ञान प्राप्त करना है और इस प्राप्त ज्ञान के आधार पर सामाजिक घटनाओं मे पाये जाने वाले स्वाभाविक नियमों का पता लगाना है।

सामाजिक अनुसंधान की विशेषताएं / लक्षण :

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर सामाजिक अनुसंधान के निम्नलिखित लक्षणों का पता लगाया जा सकता है –

1. सामाजिक अनुसंधान एक वैज्ञानिक योजना है जो तार्किक व क्रमबद्ध पद्धतियों पर आधारित होती है।

2. सामाजिक अनुसंधान सामाजिक जीवन की घटनाओं से सम्बन्धित है। यह भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में सामाजिक मानव की भावनाओं, प्रवृत्तियों, व्यवहार आदि की खोज करता है।

3. सामाजिक अनुसंधान के मुख्य रूप से दो उद्देश्य होते हैं- (अ) नवीन तथ्यों का पता लगाना और (ब) प्राप्त ज्ञान या पुराने तथ्यों का सत्यापन करना। प्रत्येक विज्ञान का सत्यापन करना एक महत्वपूर्ण पहलू है इसलिए सामाजिक अनुसंधान में नवीन तथ्यों, नवीन सम्बन्धों एवं घटनाओं को संचालित करने वाले नियमों की खोज करनी होती है और नियम बन जाने पर बराबर उसके जाँच या परख की आवश्यकता होती है। सामाजिक जीवन गतिशील है, इसलिए दोनों उद्देश्यों के पूर्ति के लिए अनुसंधान किया जाता है।

4. सामाजिक अनुसंधान इस बात पर बल देता है कि भौतिक घटनाओं की भाँति ही सामाजिक घटनाएँ भी निश्चित नियमों द्वारा संचालित होती हैं।

5. सामाजिक अनुसंधान भविष्य में होने वाली सामाजिक घटनाओं की अनुमानित जानकारी प्रदान करता है। इस प्रकार इसका चिकित्सा सम्बन्धी महत्व भी है।

6. सामाजिक अनुसंधान विभिन्न तथ्यों के मध्य सम्बन्धों का अन्वेषण करता है। इस प्रकार कार्य-कारण के सम्बन्ध के आधार पर सामाजिक घटना के सही रूप का अनुमान लगाया जाता है। उदाहरणार्थ, अनुसंधान के द्वारा निर्धनता और अपराध के परस्पर सम्बन्ध का पता लगाया जा सकता है।

सामाजिक अनुसंधान के प्रमुख चरण :

सामाजिक अनुसंधान एक अत्यन्त जटिल प्रक्रिया है। वस्तुतः सामाजिक अनुसंधान भौतिक विज्ञानों के अन्तर्गत किये जाने वाले अनुसंधान से भी अधिक जटिल एवं व्यापक होते हैं। इसलिये सामाजिक अनुसंधानों की सफलता हेतु यह अत्यन्त आवश्यक है कि एक अनुसंधानकर्ता व्यवस्थित रूप से अनुसंधान के प्रमुख चरणों को ध्यान में रखते हुए कार्य करे। सामाजिक अनुसंधान से सम्बन्धित प्रमुख चरण इस प्रकार हैं-

1. विषय का चुनाव

सर्वप्रथम अध्ययन किये जाने वाले किसी एक विषय का चुनाव कर लिया जाता है। विषय का चुनाव करते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि अनुसंधान कार्य के दृष्टिकोण से वह विषय व्यावहारिक है या नहीं। यहाँ व्यावहारिकता से तात्पर्य उपयोगिता से नहीं है वरन् यह है कि जिस विषय का हम चुनाव कर रहे हैं, उसके सम्बन्ध में उपलब्ध वैज्ञानिक विधियों की सहायता से अध्ययन करना सम्भव है या नहीं। इसके साथ ही यह भी देखना पड़ता है कि जिस विषय को अध्ययन हेतु चुना गया है उसका क्षेत्र कहीं इतना अधिक विस्तृत न हो कि उसके सम्बन्ध में अध्ययन करना ही आगे चलकर असम्भव प्रतीत हो।

नॉर्थरोप (Northrope) के अनुसार अपने अनुसंधान के बाद के स्तरों पर अनुसंधानकर्ता सर्वाधिक कठिन पद्धतियों का प्रयोग कर सकता है, पर यदि अनुसंधानकार्य का प्रारम्भ गलत या आडम्बरपूर्ण ढंग से किया गया है तो आगे चलकर कठिन पद्धतियाँ ही परिस्थिति को कदापि सुधार नहीं पायेंगी। अनुसंधान कार्य उस जहाज की भांति है जो कि एक अति दूर के गन्तव्य स्थल की ओर जाने के लिये बन्दरगाह से चलता है, पर यदि प्रारम्भ में ही दिशा निर्धारण के सम्बन्ध में थोड़ी सी भूल हो जाए तो उसके भटक जाने की सम्भावना अत्यधिक होती है चाहे वह जहाज कितनी ही कुशलता से क्यों न बनाया गया हो और उसका कप्तान कितना ही योग्य क्यों न हो?

2. सम्बन्धित साहित्य का अध्ययन

विषय के चयन के बाद यह आवश्यक है कि अनुसंधानकर्त्ता अपने विषय से सम्बद्ध अन्य शोध पुस्तकों का अध्ययन करे तथा अन्य अनुसंधानकर्ताओं के विचारों, निष्कर्षो एवं पद्धतियों से अपने को परिचित कर ले। ऐसा कर लेने पर (श्रीमती यंग के अनुसार) १. अध्ययन विषय के सम्बन्ध में एक अर्न्तदृष्टि तथा सामान्य ज्ञान प्राप्त करने, २. अनुसंधान कार्य में उपयोगी सिद्ध होने वाली पद्धतियों के प्रयोग के सम्बन्ध में, ३. प्राक्कल्पना के निर्माण में और ४. एक ही अनुसंधान कार्य को फिर से दोहराने की गलती से बचने तथा विषय से सम्बद्ध उन पक्षों पर जिन पर कि दूसरे अनुसंधानकर्त्ताओं ने ध्यान नहीं दिया है, ध्यान देने के विषय में हमें सहायता प्राप्त हो सकती है।

वस्तुत: अनुसंधान चाहे सामाजिक क्षेत्र से सम्बन्धित हो अथवा भौतिक विज्ञानों से, यह कार्य सभी अनुसंधानकर्ताओं के लिये अत्यन्त आवश्यक होता है। शोध पुस्तकों के अध्ययन से हमें यह ज्ञात हो जाता हैं कि आवश्यक तथ्यों व सामग्री का संकलन विश्वसनीय रूप में किन स्रोतों से किया जा सकता है।

3. इकाइयों को परिभाषित करना

अनुसंधान का तृतीय चरण अध्ययन से सम्बद्ध इकाइयों को परिभाषित करना है, जो अनुसंधानकर्त्ता प्रारम्भ में ही इकाइयों का स्पष्टीकरण नहीं कर लेते, उन्हें बाद में अपने अध्ययन कार्य में अत्यधिक कठिनाई उठानी पड़ती है। सभी इकाइयों का अर्थ स्पष्ट हो जाने का तात्पर्य अध्ययन का लक्ष्य व क्षेत्र का भी स्पष्टीकरण है। उदाहरणार्थ बेरोजगारी, तनाव, शिक्षित, निर्धन, भ्रष्ट आदि बाहरी तौर पर बहुत सरल शब्द मालूम होते हैं लेकिन विभिन्न व्यक्त इनका विभिन्न अर्थ लगा सकते हैं। इसीलिये यंग ने लिखा है, “अनुसंधान से सम्बन्धित अध्ययन की इकाइयां प्रतिनिधित्वपूर्ण होनी चाहिये, प्रयोग में लाये जाने वाले शब्द स्पष्ट और सुपरिभाषित होने चाहिये तथा उनका चयन इस प्रकार होना चाहिए जिससे वे सम्पूर्ण समग्र से अपनी समरूपता को स्पष्ट कर सकें।” यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ये इकाइयाँ अध्ययन के उद्देश्य से सम्बन्धित हों तथा उनका क्षेत्र पूर्णरूपेण स्पष्ट हो।

4. परिकल्पना का निर्माण

वस्तुतः अपने शोध विषय के सम्बन्ध में प्राथमिक ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् अनुसंधानकर्ता अपने विचार से ऐसा सिद्धान्त या निष्कर्ष बना लेता है जिसके सम्बन्ध में वह यह कल्पना करता है कि वह सिद्धान्त सम्भवतः उसके अध्ययन का आधार सिद्ध हो सकता है। लेकिन जब तक उस सिद्धान्त या निष्कर्ष का पुष्टिकरण वास्तविक तथ्यों द्वारा न हो जाये, वह उसे सच नहीं मान लेता।

जार्ज कैसवैल (George Caswell) के अनुसार, प्राक्कल्पना अध्ययन विषय से सम्बद्ध वह काल्पनिक व अस्थायी (अल्पकालिक) निष्कर्ष है जिसके सत्यासत्य को केवल वास्तविक तथ्य ही दर्शा सकते हैं। डुनहम (Dunham) के अनुसार, प्राक्कल्पना अनुसंधानकर्त्ता के कार्यों को दिशा प्रदान करती है और उसे यह बताती है कि क्या ग्रहण करना है और क्या त्यागना है। प्राक्कल्पना के बन जाने पर अनुसंधान कार्य का क्षेत्र निश्चित हो जाता है और अनुसंधानकर्त्ता को अपने अध्ययन कार्य में आगे बढ़ने में मदद मिलती है। प्राक्कल्पना चाहे सच प्रमाणित हो या झूठ लेकिन दोनों ही अवस्थाओं में यह अनुसंधान कार्य ज्ञान की अभिवृद्धि में सहायक होती है।

5. सूचना के स्रोतों का निर्धारण

परिकल्पना के निर्माण के पश्चात् अनुसंधानकर्त्ता के लिये यह आवश्यक है कि वह उन स्रोतों की जानकारी प्राप्त करे जिनसे विश्वसनीय सूचनायें एकत्रित की जा सके। सूचनायें प्राप्त करने के प्रमुख रूप से दो स्रोत होते हैं-प्राथमिक (Primary) तथा द्वैतीयक (Secondary)। प्राथमिक स्रोत वे हैं जिनसे एक अनुसंधानकर्त्ता स्वयं ही तथा प्रथम बार सूचनायें एकत्रित करता है। द्वैतीयक स्रोत वे हैं जो पहले से ही दूसरे व्यक्तियों द्वारा संकलित तथ्य प्रदान करते हैं जैसे—अभिलेख, गजेटियर, पुस्तकें, पाण्डुलिपियाँ आदि। अनुसंधान कार्यों में यद्यपि दोनों ही प्रकार के स्रोतों का प्रयोग किया जाता है किन्तु इन स्रोतों का पूर्व निर्धारण कर लेने से तथ्यों के संकलन में कम समय लगता है तथा यह कार्य अल्प समय में ही पूरा किया जा सकता है।

6. उपकरणों एवं प्रविधियों का निर्धारण

सूचना के स्रोतों के निर्धारण के पश्चात् उन उपकरणों तथा प्रविधियों को निश्चय किया जाता है जिनकी सहायता से विश्वसनीय एवं वस्तुनिष्ठ तथ्यों का संकलन किया जा सके। प्रविधियों का चयन सदैव समस्या की प्रकृति को ध्यान में रखकर किया जाता है। यहाँ यह स्मरण रखना आवश्यक है कि इसी स्तर पर विभिन्न उपकरणों एवं प्रविधियों के उपयोग को स्पष्ट करना भी आवश्यक होता है क्योंकि इनके समुचित उपयोग से ही तथ्यों का संकलन करना सम्भव है।

7. तथ्यों का एकत्रीकरण

विभिन्न उपकरणों व प्रविधियों का चुनाव हो जाने के पश्चात् वास्तविक अनुसंधान कार्य उस समय प्रारम्भ होता है जबकि तथ्यों के निरीक्षण व संकलन का कार्य प्रारम्भ किया जाता है। अनुसंधानकर्त्ता के लिये यह आवश्यक है कि वह तथ्यों को पक्षपातरहित एकत्रित करे तथा अपनी व्यक्तिगत धारणाओं एवं पूर्वाग्रहों को कोई महत्व न दे। तथ्य यदि दोषपूर्ण होंगे तो निष्कर्ष भी त्रुटिपूर्ण होंगे, इसलिये दोषरहित तथ्यों को संग्रहीत करने हेतु आवश्यक है कि उनको उसी रूप में एकत्रित किया जाये जैसे कि वे वास्तव में हों।

8. तथ्यों का सांख्यिकीय विश्लेषण

आधुनिक युग में सांख्यिकी का अत्यधिक महत्व है। सांख्यिकीय विश्लेषण के अभाव में आज शायद ही कोई सामाजिक अनुसंधान पूर्ण किया जा सके। अनुसंधानकर्त्ता को अपनी अनुसंधान के अन्तर्गत अनेक ऐसे तथ्य प्राप्त होते हैं जिनकी केन्द्रीय प्रवृत्ति को ज्ञात करना, विभिन्न तथ्यों के तुलनात्मक महत्व को देखना तथा तथ्यों के बीच सह-सम्बन्ध को स्पष्ट करना आवश्यक होता है। इस कार्य हेतु माध्य, मध्यांक, बहुलांक, मानक विचलन तथा सह-सम्बन्ध आदि अनेक ऐसी विधियाँ हैं जिनकी सहायता से तथ्यों का सांख्यिकीय विश्लेषण किया जा सकता है। सांख्यिकीय विश्लेषण पर आधारित निष्कर्षो को क्योंकि अधिक प्रामाणिक माना जाता है, इसलिये आवश्यक है, कि तथ्यों की वास्तविक विवेचना करने से पूर्व उनका सांख्यिकीय विश्लेषण किया जाये।

9. तथ्यों का विश्लेषण एवं विवेचन

सांख्यिकीय विश्लेषण के पश्चात् विश्लेषण और विवेचन के द्वारा तथ्यों को व्यवस्थित रूप प्रदान किया जाता है। तथ्यों के विश्लेषण और विवेचन का सम्बन्ध तथ्यों का अर्थ निकालने तथा परिकल्पना पर प्रकाश डालने से होता है। इनसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि किसी विशेष दशा के लिये कौन से कारक उत्तरदायी हैं। विभिन्न तथ्यों के बीच कार्य-कारण का सम्बन्ध भी इसी स्तर पर स्पष्ट होता है।

10. प्रतिवेदन का प्रस्तुतीकरण

सामाजिक अनुसंधान का यह अन्तिम किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है। वस्तुतः प्रतिवेदन के द्वारा ही एक अनुसंधानकर्त्ता अनुसंधान के निष्कर्षो को जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत करता है। प्रतिवेदन मुख्यतः तीन भागों में विभाजित होता है। प्रथम भाग में पद्धति शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य एवं अवधारणाओं को स्पष्ट किया जाता है। द्वितीय भाग में अध्ययन विषय के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित तथ्यों के कारणात्मक सम्बन्ध की व्याख्या की जाती है तथा तृतीय भाग में प्राप्त तथ्यों के आधार पर सामान्य निष्कर्ष प्रस्तुत किये जाते हैं जिसको हम सामन्यीकरण या सैद्धान्तीकरण की संज्ञा देते हैं। प्रतिवेदन की भाषा का अत्यधिक वैज्ञानिक व व्यवस्थित होना आवश्यक होता है तथा यह भी आवश्यक होता है कि प्रतिवेदन से सम्बन्धित निष्कषों की वैज्ञानिकता पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाये। प्रतिवेदन के अन्त में अध्ययन विषय से सम्बन्धित दूसरे अध्ययनों को स्पष्ट करने हेतु एक सन्दर्भ सूची (Bibliography) देना भी आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त कुछ महत्वपूर्ण किन्तु लम्बी तालिकाओं एवं प्रश्नावली के प्रारूप आदि को परिशिष्ट (Appendix ) के रूप में दिया जाता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि सामाजिक अनुसंधान एक दीर्घ प्रक्रिया है और इसके प्रत्येक स्तर पर अनुसंधानकर्त्ता को अनेक सावधानी रखना पड़ता है। वस्तुतः एक अनुसंधानकर्त्ता अनुसंधान के विभिन्न चरणों के प्रति जितना अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाता है, उसे उतनी ही अधिक सफलता प्राप्त होती है।

सामाजिक अनुसंधान के उद्देश्य :

सामाजिक अनुसंधान के उद्देश्यों को प्रमुख रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता है-

  • A. सैद्धान्तिक या वैज्ञानिक उद्देश्य
  • B. उपयोगितावादी या व्यवहारिक उद्देश्य।

विभिन्न समाज वैज्ञानिकों की परिभाषाओं से यह पता चलता है कि सामाजिक अनुसंधान के प्रथम उद्देश्य पर अधिक बल दिया गया है लेकिन साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य है कि द्वितीय उद्देश्य उपयोगितावादी उद्देश्य की भी पूर्ण रूप से अवहेलना नहीं की गई है। निम्नलिखित व्याख्या से यह भली भाँति स्पष्ट हो जायेगा।

A. सैद्धान्तिक या वैज्ञानिक उद्देश्य

सैद्धान्तिक या वैज्ञानिक उद्देश्य को सुविधापूर्वक समझने के लिए चार उपविभागों में बाँटा जा सकता है –

1. सामाजिक जीवन व घटनाओं के बारे में ज्ञान प्राप्त करना

सामाजिक अनुसंधान का सैद्धान्तिक उद्देश्य सामाजिक जीवन व घटनाओं के बारे में विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करना है। सामाजिक व सांस्कृतिक परिस्थितियाँ स्थायी नहीं हैं। उनमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। इसलिए विभिन्न सामाजिक तथ्यों के सम्बन्ध में हमारा जो ज्ञान है, वह आगे चलकर सही नहीं उतरता। ऐसी स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि हम नवीन तथ्यों के सम्बन्ध में अनुसंधान द्वारा ज्ञान प्राप्त करें और पुराने तथ्यों की पुनः परीक्षा कर लें ताकि उनके सम्बन्ध में पता लग जाये कि हमारा ज्ञान ठीक है या नहीं।

2. सामाजिक घटनाओं में पाये जाने वाले प्रकार्यात्मक सम्बन्धों का ज्ञान

कोई भी सामाजिक घटना या तथ्य प्रकार्यविहीन नहीं होता है। सच तो यह है कि विभिन्न सामाजिक घटनाओं या तथ्यों में अपने-अपने कार्यों के आधार पर प्रकार्यात्मक सम्बन्ध पाये जाते हैं और इन प्रकार्यात्मक सम्बन्धों के आधार पर ही सामाजिक जीवन में निरन्तरता बनी रहती है। सामाजिक अनुसंधान का उद्देश्य इन प्रकार्यात्मक सम्बन्धों का भी ज्ञान प्राप्त करना है। उदाहरणार्थ, बाल अपराध की घटना को हम तभी समझ सकते हैं जबकि बाल अपराध व परिवार, बाल अपराध व निर्धनता, बाल अपराध व स्कूल आदि में पाये जाने वाले कार्य-कारण सम्बन्धों को भली प्रकार समझ लिया जाये।

3. प्रयोगसिद्ध तथ्यों के आधार पर वैज्ञानिक अवधारणाओं का निर्माण

सामाजिक अनुसंधानों का सैद्धान्तिक उद्देश्य पारिभाषिक शब्दों व अवधारणाओं का प्रमापीकरण करना भी है। ऐसा होने पर ही सामाजिक विज्ञान की प्रगति सम्भव हो सकेगी। यदि पारिभाषिक शब्दों तथा अवधारणाओं के प्रमापीकरण करने में समाज वैज्ञानिकों को सफलता मिल जाती है तो यह इस दिशा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी।

4. सामाजिक घटनाओं में अन्तर्निहित स्वाभाविक नियमों को ढूंढ निकालना

सामाजिक घटनाएँ भी प्राकृतिक घटनाओं की भाँति कुछ स्वाभाविक नियमों द्वारा संचालित व नियमित होती हैं। इन नियमों का व्यवस्थित पद्धतियों द्वारा पता लगाना या ढूँढना भी सामाजिक अनुसंधान का सैद्धान्तिक उद्देश्य है।

B. उपयोगितावादी या व्यावहारिक उद्देश्य

सामाजिक अनुसंधान का गौण अथवा दूसरा उद्देश्य उपयोगितावादी या व्यावहारिक है। इसका अभिप्राय यही है कि प्राप्त ज्ञान के आधार पर समस्याओं का हल करना या सामाजिक जीवन को अधिक प्रगतिशील बनाने हेतु योजनाओं में सहायता देना। वास्तव में, सामाजिक अनुसंधान के उपयोगितावादी उद्देश्य को भी चार उपविभागों में बाँटा जा सकता है –

1. सामाजिक संघर्षो की स्थिति को दूर करने में सहायक

सामाजिक अनुसंधान से प्राप्त ज्ञान के आधार पर पाये जाने वाले विभिन्न सामाजिक संघर्षों का उचित निदान ढूंढा जा सकता है। उदाहरणार्थ, भारत में विद्यमान विभिन्न संघर्ष- सम्प्रदायवाद, भाषावाद, जातिवाद आदि को सामाजिक अनुसंधान से प्राप्त वैज्ञानिक व यथार्थ ज्ञान के द्वारा सफलतापूर्वक दूर किया जा सकता है।

2. सामाजिक समस्याओं के सुलझाने में सहायता प्रदान करना

सामाजिक अनुसंधान द्वारा प्राप्त ज्ञान के आधार पर पाये जाने वाले विभिन्न सामाजिक संघर्षों का उचित निदान ढूंढा जा सकता है। इस ज्ञान की सहायता से नेता, समाज सुधारक, शासक व प्रशासक आदि जटिल समस्याओं का निदान सरलतापूर्वक कर सकते हैं।

3. सामाजिक नियन्त्रण में सहायक

सामाजिक अनुसंधान से प्राप्त ज्ञान का उपयोग सफल सामाजिक नियन्त्रण में सहायक हो सकता है। उदाहरणार्थ, मजदूर वर्ग में अन्तर्निहित प्रतिक्रियाओं, उनके विचारों, मनोवृत्तियों, आवश्यकताओं आदि का जितना अधिक ज्ञान होगा उतनी ही सफलता के साथ उन पर नियन्त्रण रखा जा सकता है। इतना ही नहीं, विशुद्ध ज्ञान के आधार पर उचित सामाजिक विधानों का नियन्त्रण हेतु निर्माण भी किया जा सकता है।

4. सामाजिक योजनाओं के बनाने में सहायक

सामाजिक अनुसंधान से प्राप्त ज्ञान के द्वारा सामाजिक पुनर्निर्माण की योजनाओं को बनाने में सहायता मिलती है। वास्तव में, योजनाओं की उपयोगिता सामाजिक अनुसंधान द्वारा उपलब्ध वैज्ञानिक व यथार्थ ज्ञान पर ही आधारित रहती है। यही कारण है कि सभी प्रगतिशील देश योजनाओं की सफलता की दृष्टि से सामाजिक अनुसंधान के महत्व को स्वीकार करते हैं।

सामाजिक अनुसंधान की उपयोगिता / महत्व :

सामाजिक अनुसंधान से हमारी जिज्ञासा की पूर्ति होती है। हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है। हमें आत्मसंतो मिलता है, हमारे मन की पिपासा पूरी होती है, और हमारी मृगतृष्णा शान्त होती है। ऐसा भी नहीं है कि सामाजिक अनुसंधान से हमारा तुरन्त लाभ हो या उससे प्रत्यक्ष ही लाभ हो।

वैसे हम सभी जानते है कि सामाजिक अनुसंधान से हम सामाजिक घटनाओं के पीछे छिपे हुए निय की खोज करते हैं। उदाहरणार्थ, यदि किसी सामाजिक अनुसंधान से दहेज प्रथा के कारणों का पता चल सके तो उसका उपयोग समाज में दहेज प्रथा को समाप्त करने में सहायता मिल सकती है। परन्तु यदि किसी अनुसंधान से यह पता चल जाये कि समाज में विभिन्न संस्कृतियों का स्रोत एक ही है तो सम्भवतः तो समाज सम्बन्धी ज्ञान वृद्धि के अतिरिक्त हो सकता है, हमें तात्कालिक लाभ उस अनुसंधान से नहीं, उपरोक्त सभी विचारों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सामाजिक अनुसंधान से हमें समाज सम्बन्धी ज्ञान वृद्धि का लाभ अवश्य होता है। इस स्थान पर हमें इसी उत्तर से कम से कम सन्तुष्ट तो होना ही पड़ेगा ।

उपरोक्त मानसिक सन्तुष्टि के अतिरिक्त सामाजिक अनुसंधान से अन्य भौतिक लाभ इस प्रकार हैं-

1. समाज कल्याण की वृद्धि

सामाजिक अनुसंधान का प्रमुख भौतिक लाभ समाज कल्याण में वृद्धि करना है। प्रत्येक समाज के कल्याण के लिये यह आवश्यक हैं कि समाज का सामाजिक संगठन (Social Organisation) इस प्रकार का हो कि जिसमें विघटनकारी तत्वों को पनपने का अवसर ही प्राप्त न हो। इनके स्थान पर ऐसे सामाजिक मूल्यों और संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये जो व्यक्ति और उसके विभिन्न प्रकार के संगठनों में लाभकारी सिद्ध हों। सामाजिक अनुसंधान की सहायता से अब हम इतना जान लेते हैं कि चोरी, डकैती, ठगी, घूसखोरी, वैश्यावृत्ति आदि दोषपूर्ण सामाजिक संगठन के कारण होते हैं। ये विघटित कारण हमारे समाज की संरचना से ही विद्यमान होते हैं। यदि हमें समाज की संरचना को बदलना है तो इन असामाजिक तत्वों को सुधारवादी विचारधारा और योजनाओं से समाप्त करना होगा। अनुसंधान की सहायता से हम इन बुराइयों की तह तक पहुँच सकते हैं, उन्हें हम निर्मूल कर सकते हैं। इस प्रकार अनुसंधान एक प्रकार से सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने के पश्चात् एक स्वस्थ और प्रगतिशील समाज के निर्माण में सहायक हो सकता है।

2. सामाजिक नियन्त्रण

समाज की प्रकृति ही गतिशील है। परिणामतः परिवर्तन स्वाभाविक है। व्यक्ति का व्यवहार समाज को प्रभावित करता रहता है और समाज का व्यवहार व्यक्ति को प्रभावित करता रहता है। दोनों ही (व्यक्ति और समाज) एक दूसरे को अपने-अपने व्यवहार से प्रभावित करते रहते हैं। इस प्रकार यदि हम मानव के सामाजिक व्यवहार को ठीक से अनुसंधान की सहायता से जान लेते हैं तो समाज की प्रगति को सरलतापूर्वक नियन्त्रण में कर सकते हैं। केवल इतना ही नहीं मानव की दोषपूर्ण प्रवृत्तियों को भी समाप्त करने में सामाजिक अनुसंधान लाभकारी सिद्ध होता है। यह सामाजिक अनुसंधान का ही आधार है जिससे हम समाजों के भविष्य के बारे में जानकर आगामी योजनायें बना लेते हैं और यदि हम विभिन्न सामाजिक क्रियाओं के फल का पूरा-पूरा ज्ञान हो जाये तो समकालीन समाज की दशाओं के आधार पर भविष्य की स्थिति कल्पना सहज ही में की जा सकती है। ये बातें समाज को नियन्त्रण रखने में सहायक सिद्ध हो सकती हैं।

3. सामाजिक विकास

मानव का प्रत्येक ज्ञान समाज के विकास में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में सहायक होता है। समाज पिछड़े भी होते हैं और प्रगतिशील भी समाज का पिछड़ापन केवल आर्थिक दृष्टि से ही नहीं आँका जाता वरन् राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी पिछड़े और उन्नतिशील समाज होते हैं। समाजों के इस पिछड़ेपन को दूर करने का केवल एक उपाय सामाजिक अनुसंधान ही है। इसकी सहायता से हम समाज के पिछड़ेपन के कारणों के बारे में वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात् हम ऐसे समाजों के विकास में सहायक हो सकते हैं।

4. व्यावहारिक लाभ

सामाजिक अनुसंधान से अनेकों व्यावहारिक लाभ हो सकते हैं जैसे— टेलिविजन, रेडियो, प्रैस और अखबार इत्यादि प्रचार के साधनों का सही उपयोग करने के लिए सामाजिक मनोविज्ञान (Social Psychology) पर हम अनुसंधान कर सकते हैं। व्यापारी और व्यवसायी अपनी वस्तुओं के उत्पादन के प्रचार में इनकी सहायता ले सकते हैं अथवा लेते हैं। राजनैतिक दल जनमत को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए इन्हीं साधनों का प्रयोग कर सकते हैं। व्यावहारिकता तो यह है कि यदि हमें मानवीय व्यवहार की प्रवृत्तियों का सही-सही ज्ञान हो जाये तो इन साधनों का अधिक से अधिक लाभकारी उपयोग हो सकता है।

5. विज्ञान की उन्नति में सहायक

न केवल सामाजिक अनुसंधान का ही, वरन् और किसी अनुसंधान का एक बहुत बड़ा लाभ यह होता है कि यह अनुसंधान की विधियों को अधिक उपयोगी और विश्वसनीय बनाने में सहायक होता है। इसके अतिरिक्त यह भी तथ्य है कि अनुसंधान प्रणालियां प्रायः विज्ञानों में समान होती हैं। उदाहरणार्थ सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग सबसे पहले जीव-विज्ञान तथा नक्षत्र विज्ञान में हुआ था। पर आजकल सामाजिक विज्ञानों में इन विधियों का प्रयोग न केवल बढ़ रहा है, वरन् महत्वपूर्ण समझा जाता है। सामाजिक अनुसंधान एक अन्य और प्रकार से भी विज्ञान की उन्नति को प्रभावित करता है। हम देखते हैं कि विभिन्न विज्ञान एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं व उनकी सीमायें एक दूसरे के क्षेत्र में फैली हुई हैं। जैसे- समाज विज्ञान का मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, मानवविज्ञान और इतिहास इत्यादि सभी से गहरा सम्बन्ध है। इसलिये सामाजिक अनुसंधान द्वारा प्राप्त खोजपूर्ण निष्कर्ष अपने से अन्य- सम्बन्धित विज्ञानों को भी प्रभावित करते रहते हैं। एक दूसरे की प्रमुख समस्याओं पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं।

सामाजिक अनुसंधान की प्रकृति :

वास्तविक अर्थ में सामाजिक अनुसंधान की प्रकृति की आधारभूत बात यह है कि सामाजिक अनुसंधान सामाजिक घटनाओं से अन्तः सम्बद्ध प्रक्रियाओं (inter-related processes) की व्यवस्थित खोज तथा विश्लेषण की एक वैज्ञानिक पद्धति है। इस अर्थ में सामाजिक अनुसंधान की प्रकृति वैज्ञानिक है। विज्ञान का सम्बन्ध यथार्थ सत्य तथा वास्तविक ज्ञान से होता है। यही बात सामाजिक अनुसंधान की प्रकृति के सम्बन्ध में भी कहा जा सकता है। सामाजिक जीवन को समझना इसका प्रमुख कार्य है और ऐसा वह ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य से करता है। ज्ञान की प्राप्ति, ज्ञान की वृद्धि तथा ज्ञान की पुनः परीक्षा को अपना लक्ष्य मानकर यह सदा क्रियाशील रहता है।

यद्यपि व्यावहारिक लक्ष्यों (Practical ends) की पूर्ति की दिशा में इसका कुछ योगदान (contribution) रहता है, पर वह आकस्मिक (accidental) होता है, न कि उद्देश्यपूर्ण। इसका तात्पर्य यह है कि व्यावहारिक जीवन में उपयोगी बनने के उद्देश्य से या मानव का कल्याण करने अथवा सामाजिक सुधार करने अथवा सामाजिक नियोजन बनाने के उद्देश्य से अपने अनुसंधान कार्य को आयोजित करना सामाजिक अनुसंधान की प्रकृति के विरुद्ध है; पर हो सकता है कि जिस ज्ञान का संचय वह करता है वह समाज-सुधारकों, प्रशासकों आदि के लिए सामाजिक सुधार व नियोजन के कार्य में सहायक व उपयोगी सिद्ध हो पर सामाजिक अनुसंधान की अपनी प्रकृति यह नहीं है कि वह किसी उपचार (cure) को खोज निकालें, वह केवल सामाजिक समस्या या व्याधि की प्रकृति, व्यापकता तथा अन्तर्निहित कारणों व नियमों की खोज तक ही अपने को सीमित रखता है। यह दूसरी बात है कि उसका वह अनुसंधान उस व्यक्ति के उपचार को ढूंढने में सहायक हो।

एक वैज्ञानिक पद्धति होने के नाते सामाजिक अनुसंधान निरीक्षण, परीक्षण, तथ्यों का संकलन, वर्गीकरण व निष्कर्षीकरण की व्यवस्थित विधि को अपनाता है। दूसरे शब्दों में, वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार सामाजिक घटनाओं के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करना सामाजिक अनुसंधान की प्रकृति की एक ओर उल्लेखनीय विशेषता है। इससे भी इसकी वैज्ञानिक प्रकृति का स्पष्टीकरण होता है।

सामाजिक अनुसंधान की प्रकृति के सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि यह अपनी विशेष रुचि किसी विशिष्ट मानव-समूह, समुदाय या समाज के अन्य किसी अंग की सामाजिक प्रक्रियाओं (social processes) और मानव-व्यवहारों में अन्तर्निहित समानताओं, भिन्नताओं तथा नियमों की खोज व विश्लेषण में प्रदर्शित करता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सामाजिक अनुसंधान का सम्बन्ध मानव या मानव-समूह से उतना नहीं है जितना की उनमें क्रियाशील प्रक्रियाओं तथा उनमें अन्तर्निहित नियमों से है। उसकी प्रकृति को इन प्रक्रियाओं तथा नियमों में पाई जाने वाली सामान्य विशेषताओं, समानताओं व भिन्नताओं को ढूंढ निकालने की है।

सामाजिक अनुसंधान की प्रकृति यह भी है कि यह अनुसंधान केवल नवीन तथ्यों या घटनाओं के सम्बन्ध में खोज करके ही चुप नहीं बैठ जाता अपितु तथ्यों से सम्बद्ध अनुसंधान में भी रुचि रखता है। यह इसकी मान्यता है कि केवल नवीन तथ्यों के बारे में अध्ययन करना अथवा विद्यमान पुराने निष्कर्षो को सच मान लेना पर्याप्त नहीं है। पुराने निष्कर्षों की पुनः परीक्षा पर सामाजिक अनुसंधान दो कारणों से बल देता है-प्रथम तो यह कि अनुसंधान की प्रविधियों में अनेक नए सुधार होते जा रहे हैं, इसलिए यह आवश्यक है कि नवीनतम प्रविधियों की सहायता से पुराने सिद्धान्तों या सामाजिक घटनाओं की फिर से जाँच की जाए जिससे कि यह पता चल सके कि वे अब भी सही हैं या नहीं। द्वितीय बात यह है कि सामाजिक जीवन व उससे सम्बद्ध घटनाएँ भी परिवर्तनशील हैं और सामाजिक परिस्थितियों में परिवर्तन तेजी से होते जा रहे हैं। अतः यह जरूरी है कि नवीन परिस्थितियों का क्या प्रभाव पुराने सिद्धान्तों, नियमों तथा तथ्यों पर पड़ा है इस बात की जाँच कर ली जाए। पुराने तथ्यों घटनाओं और सिद्धान्तों में सामाजिक अनुसंधान की यह रुचि उसकी प्रकृति के एक महत्वपूर्ण पक्ष को उद्घाटित करती है।

इसके अतिरिक्त, सामाजिक अनुसंधान अपने अनुसंधान कार्य को यह मानकर प्रारम्भ करता है कि सामाजिक तथ्य या घटनाएँ कोई असम्बद्ध संकलन मात्र नहीं है। जिस प्रकार केवल ईंटों के ढेर से मकान नहीं बन जाता, उसी प्रकार केवल तथ्यों के संकलन मात्र से सामाजिक जीवन का निर्माण नहीं होता। सामाजिक जीवन तो अन्तः सम्बद्ध व अन्त: निर्भर (interrelated and interdependent) तथ्यों की एक व्यवस्थित व्यवस्था (organized system) है और भी स्पष्ट शब्दों में, सामाजिक जीवन की विभिन्न घटनाओं (phenomena) में श्रम विभाजन होते हुए भी प्रकार्यों (functions) के आधार पर उनमें प्रकार्यात्मक सम्बन्ध भी पाए जाते हैं। इन सम्बन्धों की खोज में विशेष रुचि सामाजिक अनुसंधान की प्रकृति की एक और उल्लेखनीय विशेषता है।

सामाजिक अनुसंधान की प्रकृति के सम्बन्ध में अन्तिम बात यह है कि यह सामाजिक जीवन व घटनाओं पर अधिकाधिक नियन्त्रण पाने का प्रयत्न करता है। यहाँ नियन्त्रण का अर्थ यह नहीं है कि समाज के सदस्यों को डरा-धमकाकर अपने वश में कर लेता है। यहाँ नियन्त्रण से तात्पर्य यह है कि अपने अनुसंधान कार्य में प्रयोगात्मक पद्धति (experimental method) का उपयोग करने के लिए कुछ सामाजिक घटनाओं को नियन्त्रित करके उसी प्रकार की अन्य सामाजिक घटनाओं पर विभिन्न कारकों के प्रभावों को देखना है। इस प्रकार का नियन्त्रण विषय के सम्बन्ध में अनुसंधानकर्ता के उत्तरोत्तर ज्ञान पर निर्भर होता है। ‘सामाजिक जीवन व घटनाओं के सम्बन्ध में अधिकाधिक ज्ञान व तद्द्द्वारा उन पर अधिक नियन्त्रण पाना सामाजिक अनुसंधान का प्राथमिक लक्ष्य है।’

सामाजिक अनुसंधान का अध्ययन क्षेत्र :

सामाजिक अनुसंधान का अध्ययन क्षेत्र सम्पूर्ण सामाजिक जीवन और उससे सम्बद्ध सामाजिक प्रक्रियाओं (Social processes) व नियमों तक विस्तृत है। इसका तात्पर्य यही हुआ है कि यह अपने अनुसंधान के विषय के रूप में सामाजिक जीवन की किसी भी विशिष्ट अथवा सामान्य घटना को चुन सकता है। इस प्रकार का चुनाव करते समय यह आवश्यक नहीं है कि वह केवल इस प्रकार की घटनाओं (phenomena) को ही चुने जिनके सम्बन्ध में अभी तक कोई अनुसंधान कार्य नहीं हुआ है। अर्थात् नवीन अध्ययन विषय तक ही सामाजिक अनुसंधान का क्षेत्र सीमित नहीं है। नवीन अध्ययन विषयों को वह अनुसंधान कार्यों के लिए चुनकर उनसे सम्बद्ध प्रक्रियाओं तथा नियमों का पता लगा सकता है; पर साथ ही, वह ऐसे विषयों तक भी अपने क्षेत्र को विस्तृत कर सकता है जिनके विषय में अनुसंधान कार्य पहले भी एक या एकाधिक बार किए गए हैं। इसका कारण यह है कि सामाजिक अनुसंधान का उद्देश्य केवल नवीन तथ्यों को खोजना ही नहीं है, अपितु पुराने तथ्यों की पुनः परीक्षा करना भी है। सामाजिक अनुसंधान का यह क्षेत्र किसी भी अर्थ में कम महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि यदि पुराने तथ्यों के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान अस्पष्ट, अपूर्ण या गलत है तो वह स्वयं ही नवीन तथ्यों के विषय में ज्ञान प्राप्त करने के रास्ते में एक बाधा बन जाएगा। इसका कारण यह है कि सामाजिक अनुसंधान के सभी तथ्यों का एक-दूसरे के साथ प्रकार्यात्मक सम्बन्ध (functional relation) होता है। इन सम्बन्धों का अध्ययन भी सामाजिक अनुसंधान के क्षेत्र के अन्तर्गत ही आता है।

अतः अपने अनुसंधान कार्य के इस पक्ष को यथार्थ बनाने के लिए सामाजिक अनुसंधान के पूर्वनिर्धारित नियमों की फिर से जाँच करनी होती है क्योंकि ये नियम कोई स्थिर, अन्तिम या शाश्वत नहीं हैं और न ही ये नियम सदैव सत्य सिद्ध होते हैं। इस कारण प्रचलित नियमों का परीक्षण आवश्यक होता है। हो सकता है कि इस प्रकार के परीक्षण द्वारा प्रचलित नियम गलत प्रमाणित हों। उदाहरणार्थ, श्री स्टेनले हाल (Stanley Hall) द्वारा प्रतिपादित यह मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त कि ‘किशोरावस्था में प्रत्येक व्यक्ति को तनाव व तूफान (stress and storm) की अवधि में से गुरजना पड़ता है’, श्रीमती मारग्रेट मीड (Margaret Mead) के समाओ (Samoa) जन जाति की अविवाहित किशोर कन्याओं के यौन जीवन तथा मनोवैज्ञानिक अवस्थाओं के अध्ययन के द्वारा असत्य सिद्ध हुआ और यह स्पष्ट हो गया कि यदि सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियाँ इस प्रकार की हैं कि शक्तियों को किशोरावस्था में यौन-सम्बन्धी स्वतन्त्रता प्राप्त है तो उन्हें तनाव व तूफान की स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता है। इसी कारण उपलब्ध ज्ञान अथवा पुर्वनिर्धारित नियमों की पुनः परीक्षा सामाजिक अनुसंधान के अध्ययन क्षेत्र के अन्तर्गत आती है।

सामाजिक अनुसंधान के क्षेत्र के सम्बन्ध में और भी स्पष्ट ज्ञान इसके अध्ययन विषय की विवेचन से हो सकता है। अमेरिकन ‘सोश्योलॉजिकल सोसाइटी‘ ने सामाजिक अनुसंधान के क्षेत्र के अन्तर्गत सम्नलिखित अध्ययन विषयों को सम्मिलित करने के पक्ष में राय दी है-

1. मानव प्रकृति तथा व्यक्तित्व का अध्ययन।

2. जनसमूह तथा सांस्कृतिक समूह का अध्ययन।

3. परिवार की प्रकृति, अन्तर्निहित नियम, संगठन व विघटन का अध्ययन।

4. सामाजिक संगठन तथा संस्थाओं का अध्ययन।

5. जनसंख्या तथा प्रादेशिक समूहों का अध्ययन जिनके अन्तर्गत एक क्षेत्र विशेष में निवास करने वाली जनसंख्या तथा उस क्षेत्र में विद्यमान सामुदायिक परिस्थितियों का अध्ययन सम्मिलित है।

6. ग्रामीण समुदायों का अध्ययन। इसके अन्तर्गत ग्रामीण जनसंख्या, ग्रामीण परिस्थिति, ग्रामीण व्यक्तित्व व व्यवहार प्रतिमानों (patterns) और उनमें अन्तर्निहित धाराओं (currents) तथा नियमों एवं ग्रामीण संगठन और संस्थाओं का अध्ययन सम्मिलित है।

7. सामूहिक व्यवहारों का अध्ययन। इसके अन्तर्गत समाचार-पत्र, मनोरंजन, त्यौहारों का मनाना, प्रचार, पक्षपात, जनमत, चुनाव, युद्ध, क्रान्ति आदि सामूहिक व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है।

8. समूहों में पाए जाने वाले संघर्ष तथा व्यवस्थान (accommodation) का अध्ययन। इसके अन्तर्गत- धर्म का समाजशास्त्र (sociology of Religion), शिक्षा का समाजशास्त्र (Educational- Sociology), न्यायालय तथा अधिनियम, सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक विकास का अध्ययन आता है।

9. सामाजिक समस्याओं, सामाजिक व्याधिकी (Social Pathology) तथा सामाजिक अनुकूल (Adjustment) का अध्ययन। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित विषयों का अध्ययन आता है— निर्धनता तथा पराधीनता (dependency), अपराध व बाल अपराध, स्वास्थ्य, मानसिक व्याधि (Mental disease), स्वास्थ्य-रक्षा आदि।

10. सिद्धान्त तथा पद्धतियों में नवीन सामाजिक नियमों की खोज, पुराने सिद्धान्त तथा विधियों का पुनः परीक्षा, सामाजिक जीवन में अन्तर्निहित सामान्य नियम व प्रक्रियाएँ तथा नवीन पद्धतियों प्रविधियों (Techniques) की खोज आदि सम्मिलित हैं।

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