राज्य की प्रकृति :
राज्य की प्रकृति क्या है यह एक विचारणीय विषय है परन्तु इस सम्बन्ध में विभिन्न राजनीतिक विचारकों एवं राजनीति शास्त्रियों में पर्याप्त मतभेद हैं। प्लेटो एवं अरस्तू जैसे आदर्शवादी विचारक राज्य को एक प्राकृतिक संस्था मानते हैं जिसका सम्बन्ध मानवीय विवेक से है। हाब्स, लोक जैसे समझौतावादियों ने राज्य को एक कृत्रिम यंत्र मानते हैं। मैकाइबर राज्य को एक सामाजिक यथार्थ मानते हैं, एडमण्ड वर्क जैसे इतिहासकार राज्य को ऐतिहासिक विकास की उपज मानते हैं, जबकि लास्की जैसे राजनीति वैज्ञानिक का मानना है कि यह शान्ति एवं सुरक्षा के लिए स्थापित एक संघ है। इस दृष्टि से राज्य की प्रकृति के सम्बन्ध में हमारे समक्ष कई सिद्धान्त हैं। कुछ सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति पर प्रकाश डालने वाले हैं; #जिसका लिंक आगे नीचे मिल जाएगा, जबकि कुछ का सम्बन्ध उसकी प्रकृति से है। यहाँ हम राज्य की प्रकृति के सम्बन्ध में विचार करेंगे।
१. आदर्शवादी सिद्धान्त
आदर्शवादी सिद्धान्त राज्य को एक ऐसी प्राकृतिक संस्था के रूप में स्वीकार करता है जो अपने आप में सर्वोच्च मानव समुदाय है जिसके अन्तर्गत रहकर मनुष्य पूर्व एवं आत्म निर्भर जीवन व्यतीत कर सकता है। इसके अन्तर्गत राज्य को साध्य तथा व्यक्ति को साधन मानता है जिसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति राज्य के लिए बना है न कि राज्य व्यक्ति के लिए इसके समर्थकों में यूनानी विचारकों प्लेटो एवं अरस्तू का नाम इंग्लैण्ड के ग्रीन, ब्रेडले, ब्रोसाँके जैसे विचारकों का नाम जर्मनी के कार्ल जे फ्रेडरिक हीगल तथा फ्रांसीसी विचारक रूसो का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है।
२. वैधानिक सिद्धान्त
वैधानिक सिद्धान्त राज्य को कानून बनाने उसकी व्याख्या तथा प्रवर्तन करने वाली संस्था मानता है। जब तक राज्य स्वयं अधिकार प्रदान न करे, तब तक कोई अन्य अभिकरण कानून बनाने अथवा उसे लागू करने की शक्ति नहीं रखता। अतः राज्य का निजी व्यक्तित्व है, उसकी अपनी चेतना व अपनी इच्छा है। परन्तु इस सिद्धान्त के समर्थकों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है।
A. ऐतिहासिक
सर हेनर मैन तथा कैबे जैसे ऐतिहासिक विधिशास्त्रों का मानना है कि राज्य द्वारा निर्मित कानून उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि इतिहास द्वारा समर्थित रीति रिवाज पर आधारित कानून। रीति रिवाजों के माध्यम से निर्मित कानून राज्य के वैधानिक आधार को सशक्त करते हैं।
B. विश्लेषणात्मक
जैरेम बेंघम एवं सर हेनरी आस्टिन जैसे विश्लेषणवादियों की मान्यता है कि कानून शब्द प्रभुसत्ताधारी के आदेश की ओर संकेत करता है। अतएव राज्य द्वारा निर्मित कानून ही बाध्यकारी माना जाता है राज्य द्वारा निर्मित अथवा वस्तु बाध्यकारी अथवा आदेशात्मक चरित्र नहीं रखती।
३. आंशिक सिद्धान्त
यह सिद्धान्त प्राकृतिक एवं सामाजिक संरचनाओं में सादृश्य स्थापित करने वाले बहुत पुराने विचार पर आधारित है। प्लेटो ने राज्य को वृहद रूप में व्यक्ति माना था। रोमन काल में सिसरो ने राज्य तथा व्यक्ति के मध्य सादृश्य स्थापित करते हुए राज्याध्यक्ष की तुलना उस आत्मा से की जो मानव शरीर अत्यन्त लोकप्रिय हुआ। ब्लंशली जैसे विख्यात लेखक ने यह घोषणा की कि राज्य मानव शरीर का हूबहू रूप है। उसने इस बात पर बल दिया कि सामाजिक संरचना के रूप में राज्य कृत्रिम यंत्र के समान नहीं बल्कि राजीव आध्यात्मिक प्राणी की तरह है। वस्तुतः राज्य नागरिकों के समूह मात्र से कुछ अधिक है। परन्तु इस सिद्धान्त का प्रबल समर्थक इंग्लैण्ड का हबर्ट स्पेंसर है, जिसने मानव शरीर एवं राज्य में सादृश्यता सोदाहरण प्रस्तुत की है। जिस प्रकार शरीर में भरण पोषण की संरचनायें (मुख, उदर इत्यादि) होती हैं उसी प्रकार राज्य में उत्पादन केन्द्र होते हैं। जिस प्रकार शरीर में संचार उपकरण (नसें, नाड़ी, धमनियाँ) होते हैं, उसी प्रकार राज्य में परिवहन प्रणाली (सड़के, रोलमार्ग इत्यादि) होती हैं।
४. मार्क्सवादी सिद्धान्त
राज्य का मार्क्सवादी सिद्धान्त राज्य की प्रकृति के सन्दर्भ में अन्य सिद्धान्तों से भिन्न विचारधारा रखता है। यह सिद्धान्त राज्य को न तो मानवीय चेतना की उपज मानता है तथा न ही रक्त सम्बन्ध, सहमति अथवा धर्म पर आधारित संस्था राज्य वस्तुतः वर्गीय चेतना का परिणाम है। इसके अन्तर्गत राज्य दो वर्गों में विभक्त है-
- (1) बुर्जुआ (अमीर पूँजीपति वर्ग),
- (2) सर्वहारा (पूँजीविहीन विपन्न वर्ग)।
राज्य की स्थापना अमीर वर्ग ने अपने अधिकारों की रक्षा तथा गरीब वर्ग के शोषण के लिए की है तथा इस दृष्टि से मानव इतिहास के अन्तर्गत राज्य का विकास वर्ग संघर्ष का ही परिणाम रहा है। राज्य में शोषण तथा अन्याय का अन्त करने का एक ही मार्ग है- राज्य का अन्त तथा वर्गविहीन, राज्य विहीन समाज की स्थापना करना। इसके लिए आवश्यकता यह है कि सर्वहारा वर्ग की एकता स्थापित करना तथा उसके नेतृत्व में क्रान्ति का मार्ग तैयार करना और उसके माध्यम से बुर्जुआ वर्ग का अन्त करके एक ऐसे समाज की ओर बढ़ना जहाँ किसी प्रकार का वर्ग विभाजन न हो। यह सिद्धान्त राज्य की अपरिहार्यता को अस्वीकार करता है।