राज्य की उत्पत्ति के शक्ति सिद्धान्त
शक्ति सिद्धान्त के अनुसार, राज्य की उत्पत्ति का कारण शक्ति है। इस सिद्धान्त के अनुसार, राज्य और शासन शक्ति पर आश्रित हैं। शक्ति से तात्पर्य बल प्रयोग से है। जब बलवानों ने अपनी शक्ति द्वारा निर्बलों को अपने अधीन कर लिया, तब राज्य की उत्पत्ति हुई। शक्ति सिद्धान्त के अनुसार, मानव विकास के प्रारम्भ में कुछ शक्तिशाली मनुष्यों ने निर्बल मनुष्यों को अपने अधीन कर लिया। शक्तिशाली समूह का नेता पराजित समूह का भी नेता हो गया। धीरे-धीरे वहीं नेता इन समूहों का शासक हो गया। इसी क्रम से जनपद, राज्य और साम्राज्य उत्पन्न हुए। राज्य की उत्पत्ति के विषय में इस प्रकार के विचार अनेक विचारकों द्वारा व्यक्त किये गये हैं और राज्य की उत्पत्ति और उसके अस्तित्व का आधार शक्ति को माना है। ह्यूम ने भी अपनी पुस्तक ‘Original Contract’ में लिखा है कि “राज्य की उत्पत्ति उस समय हुई होगी, जब किसी मानव दल के नेता ने शक्तिशाली होकर अपने अनुयायियों पर अधिकार जमाकर उन पर अपना शासन लादा होगा।”
राज्य की उत्पत्ति का शक्ति सिद्धान्त अत्यन्त प्राचीन है। प्राचीन यूनान के सोफिस्टों की भी यही मान्यता थी। इसी कारण प्लेटो की पुस्तक रिपलब्लिक में ग्रेसीमेकस ने कहा है कि “न्याय शक्तिशाली व्यक्ति के हित के अतिरिक्त और कुछ नहीं, शक्तिशाली व्यक्ति की आज्ञा ही न्याय है।”
प्राचीन भारतीय ग्रंथों में भी शक्ति के आधार पर राज्य की स्थापना की बात कही गई है। जैसे- ऐतरीय ब्राह्मण’ एवं ‘तैत्तरीय ब्राह्मण’ में बताया गया है कि देवों और दानवों के युद्ध में जब देवता पराजित हो गये तो उन्होंने शक्तिशाली इन्द्र को अपना राजा बनाया और उनके नेतृत्व में विजय प्राप्त की।
मध्ययुग में धर्मसत्ता के प्रतिपादक धर्मगुरुओं ने भी राज्य को पाशविक शक्ति का परिणाम बताया है। स्वयं पोप ग्रेगरी सप्तम ने 1880 में लिखा है कि “राजाओं और सामन्तों की उत्पत्ति उन क्रूर आत्माओं से हुई है, जो परमात्मा को भूलकर उद्दण्डता, लूटमार, कपट, हत्या और प्रत्येक अपराध से संसार के शासक के रूप में बुराई का प्रसार करते हुए अपने साथी मनुष्यों पर मंदाधता और असहनीय धारणा के साथ राज्य करते रहे हैं।” आधुनिक युग में ट्रीटस्के, बर्नहार्डी, मारगेन्यो तथा नीत्शे आदि विचारकों ने भी शक्ति सिद्धान्त का समर्थन किया है। इस सम्बन्ध में ट्रीटस्के का कथन है कि “राज्य आक्रमण और प्रतिरक्षा की सार्वजनिक शक्ति है, जिसका काम युद्ध करना है।”
मार्क्स ने राज्य को वर्ग संघर्ष का परिणाम माना है। अराजकतावादी विचारकों ने राज्य को पाशविक बल का प्रतीक माना है। व्यक्तिवादी विचारकों ने शक्ति पर आधारित होने के कारण ही राज्य को एक ‘आवश्यक बुराई’ माना है। साम्यवादी विचारक भी राज्य को एक शक्तिमूलक संस्था मानते हैं। इस सम्बन्ध में लेनिन का कथन है कि “राज्य पूँजीपतियों हाथ में शोषण का एक ऐसा साधन है जिससे वे जनता की बहुसंख्या पर शासन करते हैं।”
हिटलर और मुसोलिनी ने शक्ति के आधार पर अपने क्षेत्र का निरन्तर विस्तार किया तथा इसे प्राकृतिक बताया।
शक्ति सिद्धान्त की मुख्य विशेषताएँ
शक्ति सिद्धान्त की मुख्य विशेषताएँ निम्नांकित हैं –
1. राज्य की उत्पत्ति शक्ति से हुई है। जब समाज के शक्तिशाली व्यक्तियों ने निर्बलों को अपने अधीन कर लिया तब राज्य अस्तित्व में आया। लीकॉक के शब्दों में, “राज्य का जन्म मनुष्य द्वारा मनुष्य को दास बनाने तथा निर्बल कबीले पर बलशाली कबीले की विजय द्वारा हुआ।”
2. राज्य का आधार शक्ति है। आज भी राज्य में शक्ति के लिए संघर्ष चलता रहता है। ब्लंटश्ली के कथनानुसार, “बिना शक्ति के न तो कोई राज्य उत्पन्न होता है और न वह स्थायी रह सकता है।”
3. यह सिद्धान्त ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ के सिद्धान्त पर आधारित है। यह राज्य के अधिकारों को न्यायोचित ठहराता है।
शक्ति सिद्धांत की आलोचना
यद्यपि शक्ति राज्य की उत्पत्ति का एक महत्वपूर्ण कारक है तथा राज्य के अस्तित्व के लिए शक्ति अनिवार्य है, तथापि हमें यह मानना पड़ेगा कि केवल शक्ति के प्रयोग से ही राज्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं हुई है। इसीलिए शक्ति सिद्धान्त की तीव्र आलोचना की गई है, जो निम्नांकित है।
(1) राज्य की उत्पत्ति केवल शक्ति से ही सम्भव नहीं
शक्ति सिद्धान्त की आलोचना करते हुए कहा जाता है कि राज्य की उत्पत्ति केवल शक्ति से ही नहीं हुई है और न ही शक्ति राज्य का एकमात्र तत्व है। राज्य की उत्पत्ति में रक्त सम्बन्ध, धार्मिक एकता, आर्थिक हित तथा राजनीतिक चेतना ने भी महत्वपूर्ण योग दिया है। सीले के शब्दों में कहा जा सकता है कि “राज्य की उत्पत्ति केवल शक्ति से ही नहीं हुई, यद्यपि विस्तार के क्रम में निस्संदेह शक्ति ने भाग लिया है।”
(2) शक्ति राज्य का स्थायी आधार नहीं
इस सिद्धान्त के आलोचकों का विचार है कि केवल शक्ति ही राज्य का आधार नहीं होती और न ही शक्ति राज्य को आवश्यक दृढ़ता एवं स्थायित्व प्रदान कर सकती है। इस सम्बन्ध में बोदां का कथन है कि “शक्ति केवल डाकुओं के गिरोह का ही संगठन कर सकती है, राज्य का नहीं।” वस्तुतः इच्छा जो औचित्य और अनौचित्य पर निर्भर होती है, राज्य का आधार होती है। इसका अतिक्रमण करना किसी भी समाज के लिए भयानक होता है। यही सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने का एकमात्र साधन है। इसके अतिरिक्त शक्ति स्थायी नहीं है जबकि राज्य स्थायी है। अस्थिर वस्तु स्थिर वस्तु का आधार हो ही नहीं सकती। ग्रीन शब्दों में, “राज्य का आधार शक्ति नहीं वरन् इच्छा है।”
(3) व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की समाप्ति
आलोचकों के अनुसार, यदि शक्ति को राज्य का आधार मान भी लिया जाय तो ‘जिसकी लाठी उसकी भैस’ की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। परिणामस्वरूप व्यक्ति स्वतन्त्रता का उपभोग नहीं कर पायेंगे। राज्य सबल तथा निर्बल दोनों के हितों की रक्षा के लिए होता है। औचितय रहित निरंकुश व्यक्ति व्यक्तिगत स्वतन्त्रता विरोधी होती है।
(4) प्रजातान्त्रिक धारणा के विरुद्ध
प्रजातन्त्र जनइच्छा, स्वतन्त्रता, न्याय में विश्वास करता है जबकि शक्ति सिद्धान्त के अनुसार शक्ति ही राज्य का आधार है। अतः यह सिद्धान्त प्रजातान्त्रिक धारणाओं के विपरीत है।
(5) अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव के लिए हानिकारक
यदि हम शक्ति को राज्य का आधार मान लें तो सदैव ही युद्ध की अवस्था बनी रहेगी परिणामस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति कभी भी स्थापित नहीं हो सकेगी। अतः अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सद्भाव के हित में शक्ति को मान्यता नहीं दी जा सकती। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि राज्य की उत्पत्ति का कारण शक्ति नहीं वरन् मानव चेतना है। इस सम्बन्ध में गिलक्राइस्ट का कथन है कि “राज्य सरकार और वास्तव में सभी संस्थाएँ मानव चेतना का परिणाम होती हैं और वे ऐसी कृतियाँ होती हैं, जो मानव के नैतिक उद्देश्य को समझने के फलस्वरूप उत्पन्न हुई हैं।”
शक्ति सिद्धान्त का महत्व
शक्ति सिद्धान्त की उपर्युक्त आलोचनाओं से यह नहीं समझा जाना चाहिए कि शक्ति सिद्धान्त बिल्कुल ही महत्वहीन है। राज्य की उत्पत्ति में शक्ति एक तत्व रहा है और आज भी शक्ति राज्य के अस्तित्व का एक प्रमुख आधार है। राज्य के विकास एवं संचालन दोनों में शक्ति की आवश्यकता होती है। अतः यह आवश्यक है कि शक्ति का प्रयोग औचित्यपूर्ण तरीके से जनसाधारण के हित में ही किया जाना चाहिए।