# “राज्य का आधार इच्छा है, शक्ति नहीं” इस कथन की व्याख्या कीजिए

राज्य का आधार इच्छा है शक्ति नहीं :

“The basis of the state is will, not power.” – T.H. Green

व्यक्तिवादी, साम्यवादी, अराजकतावादी राज्य को मात्र शक्ति के परिणाम और प्रतीक मानते हैं, किन्तु ग्रीन उनके विचार से सहमत नहीं है। ग्रीन के अनुसार यदि राज्य भय उत्पन्न कर अपनी आज्ञाओं का पालन करवाता है, तो राज्य कभी भी स्थायी नहीं हो सकता। अंग्रेज आदर्शवादी थॉमस हिल ग्रीन (T.H. Green) का विचार है “राज्य का आधार इच्छा है, शक्ति नहीं।”

ग्रीन के अनुसार अधिकारों की रक्षा के उद्देश्य से राज्य का प्रादुर्भाव होता है। साधारणतया व्यक्ति अपने अधिकारों के समान ही दूसरे व्यक्ति के अधिकारों का भी पूर्णरूपेण सम्मान करता है, परन्तु क्रोध, घृणा या स्वार्थ के वशीभूत होकर वह दूसरों के अधिकारों की अवहेलना भी करने लगता है। इसी सामान्य इच्छा के परिणामस्वरूप राज्य की सृष्टि होती है। इस प्रकार राज्य सामान्य इच्छा का ही मूर्त रूप है और राज्य का आधार वही इच्छा है।

इसमें सन्देह नहीं है कि राज्य हमारे विरुद्ध यदा-कदा बल का प्रयोग करता है, पर वह हमारी सबकी इच्छा से ही वैसा करता है, क्योंकि इसी कार्य के लिए हमने उसकी स्थापना की है। ग्रीन इस शक्ति प्रयोग को भी समान इच्छा का दूसरा रूप समझता है। वह रूसो के इस विचार को अपनाता है कि राज्य हमारे विरुद्ध बल का प्रयोग इस उद्देश्य करता है कि हम स्वतन्त्र हो सकें।” उदाहरणार्थ जब मनुष्य स्वार्थपूर्ण उद्देश्य से दूसरे व्यक्ति की सम्पत्ति चुराता है, तो वस्तुतः वह स्वयं अपनी आदर्श नैतिक इच्छा और समाज की सामान्य इच्छा के प्रतिकूल कार्य करता है। समाज में यदि कोई चोरी करके इस मार्ग का अनुयायी हो जाये तो फिर किसी की भी सम्पत्ति सुरक्षित नहीं रहेगी। अतः समाज की सामान्य इच्छा यह होती है कि चोरी के कार्य का विरोध किया जाये। अतः जब पुलिस और न्यायालय उसे दण्ड देते हैं तो वे शक्ति का नहीं, वरन् समाज की सामान्य इच्छा तथा उस व्यक्ति की आदर्श नैतिक इच्छा का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस प्रकार गेज के जिन कार्यों में हमें शक्ति का प्रयोग दिखाई देता है, वे वस्तुतः सामान्य इच्छा से ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए ग्रीन कहता है कि “राज्य का आधार इच्छा है, शक्ति नहीं।”

ग्रीन के इस कथन की पुष्टि अग्रलिखित बातों के आधार पर की जा सकती है-

  1. शक्ति ही राज्य का वास्तविक आधार है, क्योंकि पुलिस और सेना के व्यक्ति राजकीय आज्ञाओं का पालन करते हैं।
  2. शक्ति एक अस्थायी तत्त्व है, किन्तु इसके विपरीत राज्य एक स्थाई संस्था है। अतः ग्रीन के मतानुसार, “राज्य का वास्तविक आधार शक्ति ही हो सकता है। निराधिकार शक्ति को अधिक से अधिक राज्य का अस्थायी आधार ही माना जाता है रूसो के मतानुसार भी, “शक्तिशाली का अधिकार कोई महत्त्वपूर्ण आधार नहीं है।
  3. अव्यावहारिक जीवन के अनुभव से भी यह बात स्पष्ट है कि किसी राज्य के अस्तित्व का आधार मात्र शक्ति ही नहीं हो सकती है। फ्रांस में बूर्बो वंश का शासन, सोवियत रूस में जार का शासन और भारत में ब्रिटिश शासन इसी कारण समाप्त हो गया कि ये मात्र बल पर ही आधारित थे।
  4. यदि राज्य केवल शक्तिपर आधारित होता तो वह कभी का समाप्त हो गया होता। परन्तु राज्य आज तक विद्यमान है, इससे यह प्रमाणित होता है कि राज्य का आधार इच्छा है, बल नहीं।
  5. यदि राज्य सत्ता का आधार केवल दण्ड का भय ही हो तो मनुष्य को आज्ञापालन की भावना उसी समय तक कार्य कर सकती है; जब तक वह भय उपस्थित रहे। लेकिन व्यवहार में राजकीय आज्ञाओं का पालन हम स्वयं अपनी इच्छा से करते हैं, क्योंकि राजसत्ता जनता की सामान्य इच्छा पर ही आधारित होती है।
  6. राज्य के नागरिकों में पायी जाने वाली सहयोग, न्याय तथा ईमानदारी की भावनाएँ भी यही स्पष्ट करती हैं कि राज्य का आधार इच्छा है, बल नहीं।

आलोचनाएं (Criticism) :

आलोचक ग्रीन के इस कथन को स्वीकार नहीं करते हैं कि राज्य का आधार इच्छा है, शक्ति नहीं। इस कथन की आलोचना का प्रमुख आधार है सामान्य इच्छा का विचार, जिस पर यह कथन आधारित है। इस कथन की निम्न प्रकार आलोचनाएँ की जाती है-

  1. मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह सिद्धान्त असत्य है। मनुष्य के मस्तिष्क में सदा ऐसा संघर्ष चलता रहता है और इस प्रकार सामान्य इच्छा से सामान्य हित की कल्पना करना उचित नहीं है। गिन्सबर्ग ने लिखा है, “समाज में जब हमें कभी जो वस्तु सार्वजनिक कल्याण की प्रतीत होती है, यह मनुष्य की इच्छा पर आधारित नहीं होती, वरन् इसके विपरीत, व्यक्तियों की इच्छाओं में परस्पर इतना संघर्ष होता है कि इस उसके द्वारा सामान्य इच्छा की उत्पत्ति को तर्कयुक्त नहीं ठहरा सकते।”
  2. यदि सामान्य इच्छा के अस्तित्व और सत्यता को स्वीकार भी कर लिया जाये तो भी राज्य की मशीन, जिसके द्वारा वह कार्यक्रम में परिणित की जाती है, सदैव ही ठीक नहीं कही जा सकती।
  3. इसके अतिरिक्त सामान्य इच्छा का आधार सार्वजनिक हित है, जिसकी व्याख्या करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सामान्य इच्छा की आड़ में निष्कृष्ट प्रकार की प्रवृत्ति को अपनाया जा सकता है।

ग्रीन के विचार की उपर्युक्त आलोचनाएँ होते हुए भी यह माना जाता है कि राज्य का आधार इच्छा है, बल नहीं। यह कहकर ग्रीन ने एक महत्त्वपूर्ण आंशिक राजनैतिक सत्य का तो प्रतिपादन किया है, इसके अतिरिक्त राज्य के लिए एक भावी आदर्श भी प्रस्तुत किया है। वस्तुतः ग्रीन ने इच्छा को राज्य का आधार बनाकर प्रजातन्त्र तथा जन-प्रभुत्व का ही प्रतिपादन किया है।

राज्य के विरुद्ध विद्रोह की न्यायसंगत परिस्थितियां :

ग्रीन ने कुछ विशेष परिस्थितियों में व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का आधार प्रदान किया है। ग्रीन की मान्यता है कि राज्य के आदेशों का उल्लंघन करने का उद्देश्य निजी स्वार्थ न होकर राज्य का सुधार होना चाहिए। ग्रीन ने राज्य के विरुद्ध विद्रोह की न्यायसंगत निम्नलिखित तीन परिस्थितियों का उल्लेख किया है-

  1. राज्य की त्रुटि का व्यक्ति द्वारा सर्वव्यापक विरोध न करके सिर्फ उस कानून अथवा आदेश का ही विरोध करना चाहिए जोकि अत्याचारपूर्ण हो ।
  2. व्यक्ति द्वारा राज्य का विरोध तभी होना चाहिए जब वह मसला जिसके आधार पर राज्य का विरोध किया जा रहा है, न सिर्फ उसकी अपितु समाज के अन्य लोगों की दृष्टि में भी उतना ही महत्वपूर्ण हो । यदि समाज के अन्य लोग उसे महत्त्वपूर्ण नहीं समझते हैं तो पहले उसके द्वारा जनसाधारण को अपने अनुकूल बनाना चाहिए तथा ऐसा हो जाने पर ही उसे राज्य का सक्रिय विरोध करना चाहिए।
  3. अत्याचारपूर्ण कानून का विरोध करने से पहले व्यक्तिद्वारा सभी विद्यमान संवैधानिक मामलों पर इस अत्याचारपूर्ण कानून में परिवर्तन कराने का प्रयास करना चाहिए।
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