# नीति निदेशक तत्वों की प्रकृति एवं महत्व

नीति निदेशक तत्वों की प्रकृति एवं महत्व :

भारतीय संविधान में वर्णित निदेशक सिद्धान्त सामाजिक क्रान्ति हेतु सुस्पष्ट सामाजिक और आर्थिक लक्ष्य संजोये हुए हैं। संविधान की वे अन्तर्रात्मा है। ये समस्त निदेशक सिद्धान्त शोषण मुक्त, समतापूर्ण, लोकतान्त्रिक समाजवादी एवं पंथ निरपेक्ष गणराज्य की स्थापना के लक्ष्य सुनिश्चित करते हैं।

यद्यपि, ये सिद्धान्त, भारत के संविधान निर्माताओं ने आयरलैण्ड के निदेशक तत्वों से प्रेरणा लेकर उद्धृत किए एवं उनकी ही व्यवस्था से प्रभावित होकर न्यायालय द्वारा अप्रवर्तनीय बनाया, फिर यह स्वाभाविक भी था, कारण कि इन तत्वों की प्रकृति ऐसी है कि इन्हें कार्यान्वित करना विधायिका पर ही छोड़ा जा सकता था, उदाहरणार्थ – “निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था न्यायालय की डिक्री द्वारा प्राप्त नही की जा सकती।”

तात्पर्य, निदेशक तत्वों को विधायिका ही नीति बनाकर ही लागू कर सकती थी। संविधान निर्माताओं ने अपने “वाद विवाद” द्वारा यह स्पष्टतः उल्लिखित कर दिया था कि – “ये तत्व देश के शासन के लिए मूलभूत है और राज्य का यह कर्तव्य है कि उचित कानून बनाकर इन्हें कार्यरूप में परिणित करें।”

संविधान सभा में इन निदेशक सिद्धान्तों की प्रकृति एवं महत्व पर पर्याप्त वाद विवाद हुआ था- “पश्चिम बंगाल के नजीरूद्दीन अहमद ने इन्हे ‘पवित्र अभिव्यक्ति‘ बताया जिनके पीछे कोई बाध्यकारी शक्ति नहीं है। इन निदेशक सिद्धान्तों की प्रकृति विशुद्ध रूप से निदेशात्मक है।” & “वहीं एक अन्य सदस्य सैय्यद करीमुद्दीन ने भाग-4 में वर्णित निर्देशक सिद्धान्तों को अस्पष्ट करार दिया है।”

प्रो०के०टी० शाह ने इन्हें -एक ऐसी चेक बताया जिसका भुगतान बैंक की इच्छा पर निर्भर है.

इन निदेशक सिद्धान्तों की अन्यायिक चरित्र के कारण ही डा० देशमुख जैसे सदस्य ने इनकी प्रकृति- “निर्वाचन के घोषणा पत्र की तरह बतायी…”

सार रूप में संविधान सभा के अनेक सदस्य इन निदेशक सिद्धान्तों की प्रकृति से सन्तुष्ट नहीं थे वे इन्हें ‘अलोकतान्त्रिक’, ‘संसदीय लोकतन्त्र के विरूद्ध’ तथा संविधान से पृथक कर दिये जाने के पक्षधर थे। परन्तु वहीं इन निदेशक तत्वों की प्रकृति के विषय में औचित्य सिद्ध करते हुए सदस्यों के सकारात्मक विचार भी थे, यथा-

प्रो० शिब्बन लाल सक्सेना ने इस भाग को – “एक महत्वपूर्ण अध्याय बताते हुए, राज्य हेतु आधारभूत सिद्धान्त माना।”

पं० ठाकुर दास भार्गव ने इन तत्वों को – “संविधान का सार कहा एवं शब्दों को औचित्य पूर्ण बताया।”

एस०वी० कृष्णमूर्ति राव के शब्दों में – “इन तत्वों में समाजवादी शासन के बीज विद्यमान है।”

अन्ततः, सार रूप में, वी० एस० सरवटे के शब्दों में – “सभी सिद्धान्तों की प्रकृति इन्हें मौलिक एवं आधारभूत बनाती है। इनके क्रियान्वित किये जाने के प्रयास होने चाहिए।”

संविधान के भाग चार में उल्लिखित नीति निर्देशक तत्व, इस दृष्टि से अत्यन्त विवादित रहे हैं। यदि इन्हें कुछ सदस्य पवित्र इच्छायें मानते थे तो कुछ इन्हें “आधारभूत सिद्धान्त” मानते थे। मूलतः भाग 3, जो मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित है एवं भाग 4, जो निर्देशक सिद्धान्तों से सम्बन्धित है में विधिक रूप में मूलभूत अन्तर केवल न्यायिक और अन्यायिक स्थिति का था। दूसरे, व्यावहारिक दृष्टिकोण से अन्तर, निदेशक सिद्धान्तों की सामाजिक और आर्थिक प्रकृति के सम्बन्ध में था। नव स्वतन्त्र देश भारत के निर्माण की परिकल्पना में आर्थिक अधिकारों को सुरक्षित रखना तत्कालीन आवश्यकता थी।

संविधान सभा के कुछ सदस्यों का यथा – श्री महावीर त्यागी, विशम्भर दयाल त्रिपाठी, कृष्ण चन्द्र शर्मा आदि (सभी उत्तर प्रदेश) मत था कि इन निदेशक सिद्धान्तों में गांधी का दर्शन नहीं है जिस कारण इनका विस्तार किया जाना आवश्यक है। इसमें ‘गो वध का निषेध’, ‘मद्य निषेध’, ‘गरीबों का उत्थान’, ‘कुटीर उद्योग’ जोड़े जाने चाहिए।

सदस्यों ने यहां तक मत व्यक्त किया कि इस अध्याय के बाध्यकारी न होने के कारण सम्भव है कि इसके अन्तर्गत उल्लिखित सिद्धान्त लागू ही न किये जाये। अतः यह सुझाव दिया गया कि इन निदेशक सिद्धान्तों को प्रभावी रखने के लिए ऐसी व्यवस्था की जाये कि – “कोई भी विधि जो इन सिद्धान्तों के विरोध में होगी उस मात्रा तक शून्य होगी।”

उनके मत में, इस संविधान से, निदेशक सिद्धान्तों की प्रकृति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और ये न्यायालय क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आ सकेंगे।

डा० अम्बेडकर ने ‘प्रारूप संविधान‘ के प्रस्तुति के समय भी निदेशक सिद्धान्तों की प्रकृति के विषय में कुछ नहीं कहा। सम्भवतः इसका कारण था कि वे संविधान के सामान्य स्वरूप पर कहना चाहते थे, और विशेष रूप से, निदेशक सिद्धान्तों पर वक्तव्य नहीं दे रहे थे। दूसरे, अम्बेडकर इस बात पर निश्चित नहीं थे कि निदेशक सिद्धान्तों को संविधान के मूल प्रलेख में रखा जाये। वे इन सिद्धान्तों की प्रकृति के कारण इन्हें संविधान की अनुसूचियों में रखना चाहते थे। परन्तु यथार्थ रूप में आयरलैण्ड के जिस संविधान से प्रभावित होकर इन सिद्धान्तों को लिया गया था एवं अन्यायिक प्रकृति रखी थे, ये आयरलैण्ड के संविधान के भी मूल प्रलेख में थे।

19 नवम्बर 1948 को इन निर्देशक सिद्धान्तों की भाषा आवश्यकता और महत्व पर डा० अम्बेडकर ने कहा “मेरी दृष्टि में, निदेशक सिद्धान्तों के संवैधानिक उपबन्धों के प्रति अत्यधिक भ्रामक स्थिति विद्यमान है…. संविधान संसदीय लोकतन्त्र की स्थापना करता है और इस संविधान द्वारा हमारा लक्ष्य न केवल राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना है वरन् आदर्श आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना भी है।…. भावी सरकारों के समक्ष आर्थिक लोकतन्त्र का भी एक लक्ष्य होगा …।” (तदनुरूप)

“आर्थिक लोकतन्त्र के लक्ष्य हेतु भाषा निश्चित एवं कठोर नहीं रखी गयी है। तथा भावी पीढ़ियों के लिए (जो भिन्न सोच की हो सकती है।) इन लक्ष्यों के प्राप्त हेतु पर्याप्त स्थितियां प्रदत्त है….”

इस प्रकार संविधान सभा में निदेशक सिद्धान्तों के औचित्य लक्ष्य और उद्देश्य को भली-भाँति रखा गया था और आशा व्यक्त की गयी थी कि भविष्य की उत्तरदायी सरकारों द्वारा इनकी उपेक्षा नहीं की जायेगी।

भारतीय संविधान के इन निदेशक सिद्धान्तों के उपबन्धों की भाषा से निर्देशक सिद्धान्तों की प्रकृति और महत्व स्पष्ट हो जाता है। संविधान का अनुच्छेद 37 इस दृष्टि से तीन विशेषतायें रखता है।

1. निदेशक सिद्धान्त न्यायालय द्वारा प्रवृतनीय नहीं होंगे।
2. निदेशक सिद्धान्त, यद्यपि न्यायालय द्वारा प्रभावी क्रियान्वयन नहीं रखते, फिर भी शासन में आधार भूत माने जायेंगे।
3. राज्य का कर्तव्य होगा कि विधि बनाते समय इन सिद्धान्तों को लागू करें।

निर्देशक सिद्धान्तों सम्बन्धी अनुच्छेदों का सार तत्व विशिष्ट सामाजिक, आर्थिक उद्देश्य जिनके क्रियान्वयन हेतु राज्य प्रयत्नशील होगा, उल्लिखित करना है।

पुनश्च संविधान सभा के वाद-विवाद को पृथक रखकर निदेशक सिद्धान्तों के उपबन्धों से भी प्रकृति और महत्व स्पष्ट हो जाता है।

भारत के संविधान में जिन राजनीतिक एवं नागरिक स्वतन्त्रताओं का उल्लेख मौलिक अधिकार के अन्तर्गत है उसी को अधिक सार्थक और विस्तार देने के लिए सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रताओं के रूप में निर्देशक सिद्धान्तों को उपबन्धित किया गया है। भाग तीन में निहित मौलिक अधिकार यदि नकारात्मक स्वरूप के हैं, वहीं भाग चार में उल्लिखित अधिकार (निदेशक सिद्धान्त) व्यापक हितार्थ सकारात्मक स्वरूप के है। इसी व्यावहारिक स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए इन सकारात्मक अधिकारों को राज्य द्वारा (विधायिका एवं कार्यपालिका) क्रियान्वित किये जाने का दायित्व सौंपा गया।

ठीक ही कहा गया है कि – “न्यायालय के लिए यह अनावश्यक होता, कि वे राज्य को यह आदेश देते कि इन सकारात्मक अधिकारों हेतु विधि बनायी जाये।”

The premier library of general studies, current affairs, educational news with also competitive examination related syllabus.

Related Posts

# इतिहास शिक्षण के शिक्षण सूत्र (Itihas Shikshan ke Shikshan Sutra)

शिक्षण कला में दक्षता प्राप्त करने के लिए विषयवस्तु के विस्तृत ज्ञान के साथ-साथ शिक्षण सिद्धान्तों का ज्ञान होना आवश्यक है। शिक्षण सिद्धान्तों के समुचित उपयोग के…

# समाजीकरण के स्तर एवं प्रक्रिया या सोपान (Stages and Process of Socialization)

समाजीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ : समाजीकरण एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा जैविकीय प्राणी में सामाजिक गुणों का विकास होता है तथा वह सामाजिक प्राणी…

# सामाजिक प्रतिमान (आदर्श) का अर्थ, परिभाषा | Samajik Pratiman (Samajik Aadarsh)

सामाजिक प्रतिमान (आदर्श) का अर्थ : मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में संगठन की स्थिति कायम रहे इस दृष्टि से सामाजिक आदर्शों का निर्माण किया जाता…

# भारतीय संविधान में किए गए संशोधन | Bhartiya Samvidhan Sanshodhan

भारतीय संविधान में किए गए संशोधन : संविधान के भाग 20 (अनुच्छेद 368); भारतीय संविधान में बदलती परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुसार संशोधन करने की शक्ति संसद…

# समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र में अन्तर, संबंध (Difference Of Sociology and Economic in Hindi)

समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र : अर्थशास्त्र के अंतर्गत मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं, वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन एवं वितरण का अध्ययन किया जाता है। समाजशास्त्र के अंतर्गत मनुष्य…

# छत्तीसगढ़ में शरभपुरीय वंश (Sharabhpuriya Dynasty In Chhattisgarh)

छत्तीसगढ़ में शरभपुरीय वंश : लगभग छठी सदी के पूर्वार्द्ध में दक्षिण कोसल में नए राजवंश का उदय हुआ। शरभ नामक नरेश ने इस क्षेत्र में अपनी…

This Post Has One Comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

5 × 3 =