मौलिक अधिकारों की संवैधानिक स्थिति (पृष्ठभूमि) :
भारत के संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों को देश की सर्वोच्च विधि द्वारा संरक्षित हित के रूप में देखा जा सकता है। ये अधिकार उन उपबंधों से मान्यता पाते हैं जिनके द्वारा प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सीमित पुलिस शक्ति के सिद्धान्त का प्रतिपादन होता है ये राज्य के अनुचित हस्तक्षेप पर प्रतिबंध भी लगाते है। यद्यपि राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाये जा सकते है परन्तु ये प्रतिबंध उचित है या नहीं, ये निर्णय करने का अधिकार न्यायपालिका को दिया गया है। इस दृष्टि से जनता की संरक्षित स्वतंत्रता में न्यायिक पुनर्विलोकन एक अपरिहार्य अंग है।
मौलिक अधिकारों की संवैधानिक स्थिति पर संविधानविद् डी० डी० बसु का कथन है – “साधारण कानूनी अधिकार देश के सामान्य कानूनों द्वारा संरक्षित व क्रियान्वित होते हैं जबकि मौलिक अधिकार राज्य के लिखित संविधान द्वारा संरक्षित तथा प्रत्याभूत होते हैं।”
लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना के आदर्श में यह निहित है कि समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिए अधिकारों पर अंकुश लगाये जाएँ, समाज में रहने वाले प्रत्येक नागरिक अपने अधिकारों के साथ दूसरे के अधिकारों का भी आदर करें।
भारतीय संविधान इसी को दृष्टिगत रखते हुए व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित में संतुलन स्थापित करता है, जहाँ मौलिक अधिकारों का उल्लेख है वहीं प्रयोग की सीमायें भी निर्धारित है यथा- “भारत की प्रभुता और अखण्डता, लोकव्यवस्था, नैतिकता, सुरक्षा शिष्टाचार या सदाचार अथवा शान्ति व्यवस्था के आधार पर युक्ति युक्त, निर्बंधन…”
इन युक्ति युक्त निर्बंधन के विषयों में अन्तिम निर्णय देने की शक्ति न्यायपालिका को प्राप्त है, जिसका निर्धारण बाद के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर है।
मौलिक अधिकार राज्य के विरूद्ध संरक्षित है :
संविधान के भाग 3 में उल्लिखित मौलिक अधिकार राज्य शक्ति के विरूद्ध संवैधानिक सुरक्षा के रूप में है। राज्य के समक्ष व्यक्ति असहाय स्थिति में होता है अतः राज्य के विरूद्ध व्यक्ति की स्वतंत्रताएं संविधान में संरक्षित कर दी जाती है। इस दृष्टि से संविधान के भाग 3 में प्रदत्त मौलिक अधिकार मूलतः राज्य के विरूद्ध प्राप्त हैं।
संविधान के इस भाग के प्रथम अनु० (अनु० 12 ); में ही इसी हेतु राज्य परिभाषित किया गया है जिसमें सम्मिलित हैं –
- संघ सरकार एवं संसद
- राज्य सरकार एवं विधान मण्डल
- सभी स्थानीय प्राधिकारी
- अन्य प्राधिकारी।
अधिकारों के राज्य के विरूद्ध संरक्षण की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अनु० 32 के अंतर्गत प्रस्तुत एक बाद में याचिका इसी आधार पर खारिज की कि “मौलिक अधिकारों का संरक्षण व्यक्ति के अनुचित कार्यों के विरूद्ध नहीं वरन् राज्य शक्ति के विरूद्ध है…”
इस प्रकार संविधान में उल्लिखित मौलिक अधिकार मूलतः राज्य के विरूद्ध प्राप्त हैं किन्तु कुछ मौलिक अधिकार निजी व्यक्तियों के विरूद्ध भी प्राप्त है। यथा-
- अनु० 15 (2) सार्वजनिक स्थलों में पहुंचने एवं उपयोग के बारे में समानता
- अनु० 17 अस्पृश्यता का अन्त
- अनु० 18 ( 3 ), (4) विदेशी उपाधि स्वीकार करने की मनाही
- अनु० 23 मानव पण्य का प्रतिषेध
- अनु० 24 बालकों को संकटपूर्ण कामों में लगाने की मनाही….. आदि
अधिकार एवं संशोधनीयता :
संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार यह स्पष्टतः उपबन्धित करते हैं कि – “राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनायेगा जो प्रदत्त अधिकारों को छीनती या न्यून करती हो, और उल्लंघन में बनायी गयी प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी…..”
इसी अनु० के उपखण्ड 3 के अनुसार – “विधि के अंतर्गत उसी भांति बल रखने वाला कोई अध्यादेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना, रूढ़ि या प्रथा है…..”
स्वाभाविक प्रश्न यह है कि संविधान संशोधन द्वारा संशोधित विधि जो पृथक भाग में निहित प्रक्रिया द्वारा संशोधन के बाद अस्तित्व में आयी है, अनु० 13 के अन्तर्गत देखी जा सकती है? तात्पर्य मौलिक अधिकारों में भी संशोधन किये जाने का विषय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आया जिसमें न्यायालय ने संशोधन के विषय में संसद के पक्ष में ही निर्णय दिया एवं उसकी संशोधन की असीम शक्ति को स्वीकार किया।
किन्तु 1967 में गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने इस स्थिति के विपरीत निर्णय दे दिया कि- “कोई भी संशोधन, यदि किसी मौलिक अधिकार को अतिक्रमित करता है तो अनु० 13 (2) के प्रकाश में उक्त संशोधन विधि भी अवैध होगी……”
इस विवादास्पद निर्णय ने संसद की सम्प्रभुता और संशोधन की असीम शक्ति पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिये। परिणामतः संसद “गोलकनाथ वाद” के पश्चात मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती थी।
इस परिप्रेक्ष्य में संसद की संशोधन में असीम शक्ति स्थापित करने हेतु संविधान में 1971 में 24वाँ संशोधन किया गया एवं अनु० 13 में उपधारा ( 4 ) जोड़कर यह उपबन्धित किया गया कि संविधान संशोधन को अनु० 13 के अन्तर्गत नहीं देखा जायेगा। मूल पाठ के अनुसार – “इस अनुच्छेद की कोई बात अनु० 368 के अधीन किये गये इस संविधान के किसी संशोधन को लागू नहीं होगी।”
इस संशोधन को भी सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने “केशवानन्द भारती वाद” में वैध ठहराते हुए एवं अभिनिर्धारित किया कि “संसद संविधान संशोधन की असीम शक्ति रखती है जिसके अन्तर्गत मौलिक अधिकार भी आते हैं…”
इस प्रकार संसद पुनः पूर्व स्थिति में आ गयी एवं अब मौलिक अधिकारों में पुनः संशोधन कर सकती थी। परन्तु इसी बाद में यह भी निर्णय दे दिया गया कि संसद संविधान के आधारभूत ढाँचे को संशोधित या परिवर्तित नहीं कर सकती।
मुख्य न्यायाधीश सीकरी के अनुसार आधारभूत ढाँचे के अन्तर्गत हैं
- संविधान की सर्वोच्चता
- शासन का लोकतंत्रीय एवं गणतंत्रीय स्वरूप
- पंथनिरपेक्षता
- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का वितरण एवं
- संघवाद
न्यायाधीश शेलट एवं न्यायाधीश ग्रोवर ने अन्य विषय, यथा –
- लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना का आदेश
- राष्ट्र की एकता और अखण्डता आधारभूत ढाँचे के अन्तर्गत रखें।
- न्यायाधीश हेगड़े और न्यायाधीश मुखर्जी द्वारा ‘भारत की सम्प्रभुता’ को भी आधारभूत ढाँचा माना गया।
अनु० 368 में संशोधन कर जोड़ी गयी धारा 4 एवं 5 जिनके द्वारा संशोधन को न्यायालय में किसी आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जाएगा एवं संशोधन शक्ति पर पुनर्विलोकन नहीं होगा, को भी सर्वोच्च न्यायालय ने इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया कि न्यायिक पुनर्विलोकन भी आधारभूत ढांचा है।
मौलिक अधिकारों से असंगत विधियां एवं पृथक्करणीयता की स्थिति –
मौलिक अधिकारों के भाग-3 में अनु० 13 (1) यह स्पष्ट उल्लिखित करता है कि “(संविधान के लागू होने से पूर्व )”… प्रवृत्त सभी विधियाँ उस मात्रा तक शून्य होंगी जहाँ तक वे इस भाग के उपबन्धों से असंगत हैं।”
वैधानिक रूप में इस अनुच्छेद 13 का प्रभाव भूतलक्षी नहीं है और उसी दिन से प्रभावी होगा जिस दिन से संविधान लागू किया गया अर्थात मौलिक अधिकारों से असंगत “संविधान पूर्व विधियाँ” प्रारम्भ से ही नहीं, संविधान लागू होने के पश्चात ही अवैध होगी। संविधान लागू होने से पहले किये गये कार्यों एवं प्रभाव में यथावत रहेगीं।
पृथक्करणीयता का आशय यह है कि कोई विधि उस सीमा तक अवैध होगी जहाँ तक मौलिक अधिकारों से असंगत एवं विरोध में है, तात्पर्य अधिनियम का कोई भाग असंवैधानिक होने पर शून्य घोषित होगा जो संविधान के उपबन्धों से असंगत है यथा- “राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो प्रदत्त अधिकारों को छीनती या न्यून करती हो और उल्लंघन में बनायी गयी प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी…”
सर्वोच्च न्यायालय ने भी एक वाद में इस स्थिति में सम्पूर्ण अधिनियम को नहीं, मात्र मौलिक अधिकारों से असंगत भाग को ही अवैध घोषित किया। इसे ही पृथक्करणीयता का सिद्धान्त कहते हैं। यदि किसी अधिनियम का कोई भाग पूर्ण से पृथक नहीं किया जा सकता, ऐसी स्थिति में पूरा अधिनियम ही अवैध होगा।
आच्छादन की स्थिति :
इस सिद्धान्त जिसका विकास भीखाजी बनाम म०प्र० राज्य वाद में किया गया के अन्तर्गत संविधान पूर्व विधियाँ अनु० 13 (1) के निहितार्थ में प्रारम्भ से ही शून्य नहीं होतीं वरन मौलिक अधिकारों के लागू हो जाने से वे आच्छादित हो जाती हैं परिणामतः पूर्णतः मृत न होकर सुसुप्तावस्था में रहती हैं” अर्थात् –
संविधान लागू होने के पूर्व किसी अधिकार या दायित्व का विनिश्चय करना हो तो उनका अस्तित्व बना रहता है या उन गैर नागरिकों, जिन्हें मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं है, के लिए भी वे प्रभावित रहती हैं।
अनु० 13, इस सम्पूर्ण आयामों से मौलिक अधिकारों के लिये आधार स्तम्भ है ये अनु० ही न्यायालयों को मौलिक अधिकारों से असंगत विधियों को अवैध घोषित करने का अधिकार दे देता है तथा न्यायालयों को अधिकारों का प्रहरी बना देता है।
अधित्याग का सिद्धांत :
मौलिक अधिकारों की संवैधानिक स्थिति से जुड़ा एक अन्य स्वाभाविक प्रश्न यह भी है कि क्या कोई व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों को स्वेच्छा से त्याग सकता है? सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस सम्बन्ध में अभिनिर्धारित किया गया कि “संविधान के भाग 3 में उल्लिखित मौलिक अधिकार स्वेच्छा से त्यागे नहीं जा सकते…”
मौलिक अधिकार त्यागने या अपने को दोषी बताने के लिए प्रदत्त नहीं है वे व्यक्तिगत हित से अधिक लोकनीति के आधार पर जनहित में समाविष्ट किये गये है। नागरिक राज्य से भेदभाव का बर्ताव करने के लिए नहीं कह सकता कारण कि – “मूल अधिकार संविधान द्वारा राज्य पर लगाये गये कर्तव्य है और कोई भी व्यक्ति राज्य को ऐसे कर्तव्यों से मुक्त नहीं कर सकता…”
दूसरे सर्वोच्च न्यायालय का यह भी मत था कि मौलिक अधिकारों का अधित्याग इस कारण पर नहीं किया जा सकता, चूँकि ये अधिकार दोहरी प्रकृति के हैं – प्रथम, ये अधिकार न्यायिक है अर्थात उन्हे न्यायालय द्वारा लागू कराया जा सकता है दूसरे, ये अधिकार सरकार पर कुछ प्रतिबन्ध और सीमाएं भी आरोपित करते है। (अनुच्छेद 13 का उल्लेख इस प्रभाव के लिए ही है कि इन अधिकारों को सरकार अतिक्रमित न कर सके)
मौलिक अधिकारों का द्वीपीय सिद्धान्त :
मौलिक अधिकारों की संवैधानिक स्थिति से सम्बन्धित “द्वीपीय सिद्धान्त” सर्वोच्च न्यायालय द्वारा “गोपालन वाद” में संस्थापित किया गया, जिसके अनुसार मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित प्रत्येक अनु० अपने में पूर्ण है एवं अन्य अनुच्छेदों से अन्तः सम्बन्धित नहीं है।
निवारक-निरोध अधिनियम अनु० 19 एवं अनु० 21 के प्रतिकूल मानकर न्यायालय के समक्ष उक्त बाद में प्रश्न उठाया गया तथा न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया कि उक्त विधि- “प्रत्यक्षतः व्यक्तिगत स्वतंत्रता से सम्बन्धित है उसका परीक्षण मात्र अनु० 21 (जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता हेतु है) के अन्तर्गत किया जा सकता है एवं अनु० 19 जो सामान्य स्वतंत्रता से सम्बन्धित है, के अन्तर्गत वैधता का परीक्षण नहीं किया जा सकता…
“इसी प्रकार सम्पत्ति अधिग्रहण जो अनु० 31 के अन्तर्गत है को अनु० 19 के आधार पर अवैध नहीं किया जा सकता…”
तात्पर्य अनु० 19, अनु० 21 या अनु० 31 आपस में पृथक और पूर्ण है। परन्तु इस द्वीपीय सिद्धान्त को प्रथमतः बैंक राष्ट्रीयकारण वाद द्वारा खारिज किया गया तथा इसी प्रकार “मेनका गांधी वाद” में भी स्वतंत्रता से सम्बन्धित विधि अनु० 21 एवं अनु० 19 के साथ रखकर देखी गयी थी एवं अभिनिर्धारित किया गया कि कोई विधि तभी तक वैध होगी जब वह प्रत्येक अधिकार के साथ उचित और वैध है। इस प्रकार द्वीपीय सिद्धान्त न्यायालय द्वारा स्वयं ही समाप्त कर दिया गया।
आपात कालीन व्यवस्था एवं मौलिक अधिकार :
भारतीय संविधान के भाग 18 में तीन प्रकार के आयात उपबंधों का उल्लेख है –
- युद्ध बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से उत्पन्न आपात (अनु० 352 )
- राज्यों में संवैधानिक विफलता से उत्पन्न आपात (अनु० 356) एवं
- वित्तीय आपात काल (अनु० 360 )
आपात उद्घोषणा हो जाने पर मौलिक अधिकारों का स्थगन या निलम्बन भी किया जा सकता है, 44वें संशोधन 1978 द्वारा आपात उद्घोषणा सम्बन्धी व्यवस्थाओं में व्यापक संशोधन किये गये थे। जिसके पश्चात् – अनु० 19 द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रताएं ( अधिकार ) तभी निलम्बित होगी जबकि आपात उद्घोषणा “युद्ध या बाह्य आक्रमण के आधार पर” की गयी है, सशस्त्र विद्रोह के आधार पर नहीं।
अनु० 359 जो मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के निलम्बन के सम्बन्ध में है के अनुसार भी, जब आपात उद्घोषणा प्रवर्तन में है तब – अनु० 20 (जो अपराधों के दोष सिद्धि के सम्बंध में संरक्षण प्रदान करता है एवं अनु० 21 (जो प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण से सम्बन्धित है) का निलम्बन नहीं किया जायेगा।
राष्ट्रपति अपनी घोषणा में यह स्पष्ट उल्लेख करेगा कि भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तित कराने के लिए न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार या न्यायालय में लम्बित सभी कार्यवाहियां निलम्बित रहेगी।
सारांशतः भारत के संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार आत्यन्तिक (Absolute) नहीं है, लोक कल्याणकारी राज्य के अन्तर्गत आधुनिक सरकारों के कार्यों में व्यापक वृद्धि हुयी हैं, अतः नागरिकों के अधिकारों के साथ सन्तुलन स्थापित करना अति आवश्यक है। सामान्य हित और व्यवस्था हेतु ही मौलिक अधिकारों पर युक्ति युक्त निर्बन्धन आरोपित किये जा सकते हैं। न्यायिक व्याख्या और संवैधानिक संशोधनों ने सामाजिक नियन्त्रण की इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है।