गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य वाद :
न्यायिक दृष्टिकोण के इतिहास में मौलिक अधिकारों की श्रेष्ठता स्थापित करने में “गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य” वाद एक मील पत्थर है। मौलिक अधिकारों में संशोधन के सम्बन्ध में इस मामले से पूर्व शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ तथा सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य वाद में संशोधनों की विधि मान्यता को चुनौती देते हुए कहा गया था कि उक्त संशोधन ( क्रमशः प्रथम एवं 17वां ) मूल अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं अतः अवैध हैं, कारण कि संविधान का अनु० 13 स्पष्टतः उपबन्धित करता है कि – “राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो भाग-3 में उल्लिखित अधिकारों को छीनती या न्यून करती है।”
इस वाद में पुनः तर्क प्रस्तुत करते हुए याचना की गयी कि – “अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत पारित संविधान संशोधन भी अनु० 13 के अन्तर्गत प्रयुक्त ‘विधि’ शब्द के अर्थों में है, अतः भाग-3 में उल्लिखित अधिकारों के विरूद्ध होने के कारण असंवैधानिक हैं।”
‘गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य वाद‘ की एक विशेष रूप से गठित 11 सदस्यीय संवैधानिक पीठ द्वारा सुना गया, जिसमें संवैधानिक पीठ ने 6-5 के बहुमत से अपना निर्णय दिनांक 27 फरवरी 1967 को दिया, सर्वोच्च न्यायालय ने ‘शंकरी प्रसाद’ एवं ‘सज्जन सिंह वादों में दिये गये निर्णयों को पूर्णतः उलटते हुए अभिनिर्धारित किया कि – “अनु० 13 में प्रयुक्त विधि के अन्तर्गत वे सभी विधियां सम्मिलित हैं, वे चाहे साधारण विधियां हो या संविधान संशोधन विधि…।”
अतः “संसद को भाग-3 में उल्लिखित मौलिक अधिकारों में संशोधन की शक्ति प्राप्त नहीं है।
इस प्रकार कोई विधि जो मूल अधिकारों को छीनती या न्यून करती है उस मात्रा तक शून्य है। मुख्य न्यायाधीश सुब्बाराव ने संविधान में उल्लिखित मौलिक अधिकारों (जिन्हें आधुनिक शब्दावली में ‘मौलिक’ कहा जाता है) की प्रकृति और महत्व को लेते हुए परम्परागत रूप में, नैसर्गिक (प्राकृतिक) अधिकार बताया। उनके ही शब्दों में – “ये वे अधिकार है जिन्हें प्रत्येक मानव को प्रत्येक समय और प्रत्येक दशा में, प्राप्त होना ही चाहिए… उन पर ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास निर्भर है, इन अधिकारों से ही व्यक्ति अपने जीवन को श्रेष्ठ ढंग से निर्मित कर सकता है।”
साथ ही विद्वान मुख्य न्यायाधीश ने अपने निर्णय में मौलिक अधिकारों को भाग-4 में वर्णित निदेशक सिद्धान्तों से भी सम्बन्धित करते हुए उद्धृत किया कि – “संविधान के भाग-3 एवं भाग-4 पूर्णतः एकीकृत योजना प्रस्तुत करते हैं। वे ऐसी रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं जिसके अन्तर्गत सभी निदेशक तत्व मौलिक अधिकारो को बगैर न्यून या छीनते हुए प्रभावी किए जा सकते हैं।”
इस वाद में न्यायमूर्ति सुब्बाराव ने मौलिक स्वतन्त्रताओं को श्रेष्ठता देते हुए स्पष्ट किया कि लोगों ने शासन के सुसंचालन हेतु संविधान निर्मित किया है साथ ही स्वयं के लिए कुछ मूलभूत मौलिक स्वतन्त्रताएं भी सुरक्षित की हैं जो अनुलंघनीय है एवं इस दृष्टि से – “संसद की संशोधन शक्ति जो मौलिक अधिकारों को परिवर्तित कम या शून्य करती हो, स्वतन्त्रताओं की प्रकृति के विरूद्ध होगी… मौलिक अधिकार किसी भी बाहृय सत्ता द्वारा निर्मित न होकर, व्यक्ति के व्यक्तित्व में ही निहित है।”
संवैधानिक विधि में ‘गोलकनाथ वाद‘ से ही मौलिक अधिकारों को श्रेष्ठता के साथ-साथ अनुलंघनीयता प्राप्त हुयी, उन्हें संविधान संशोधन शक्ति से भी परे रख दिया गया, निश्चित रूप से ये संसद की शक्तियों पर कुठाराघात था, संसद सदस्यों का उसके विरूद्ध रोष प्रकट करना स्वाभाविक था, विधि वेत्ताओं ने भी परस्पर विरोधी मत व्यक्त किये, सारतः इस वाद के पश्चात् मौलिक अधिकारों में संशोधन में संशोधन का प्रश्न वाद-विवाद का प्रश्न बन गया।