शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ वाद :
मौलिक अधिकारों की श्रेष्ठता के प्रश्न पर न्यायिक दृष्टिकोण अनेक मामलों में परिलक्षित हुआ है। भारतीय संवैधानिक विधि में, मौलिक अधिकारों की प्रकृति, संशोधन के विषय में दृष्टिकोण जीवन्त विषय हैं। गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य, 1967 से पूर्व संविधान के भाग-3 में उल्लिखित मौलिक अधिकारों के संशोधन के विषय में संसद की शक्ति एवं मौलिक अधिकारों की स्थिति के विषय में जुड़ा बाद ‘शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ, 1951 है।’ इस वाद में मौलिक अधिकारों की अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत संशोधनीयता का प्रश्न सर्वप्रथम उठाया गया।
संविधान के प्रथम संशोधन, जिसके द्वारा अनु० 31 (A) एवं अनु० 31 (B) धाराएं जोड़ी गयी थीं, की वैधता को चुनौती दी गयी।
संशोधन की वैधता को चुनौती अन्य आधारों के होते हुए भी प्रमुख दो बिन्दुओं पर केन्द्रित थी।
यथा –
- संशोधन अधिनियम भाग-3 में उल्लिखित अधिकारों को, छीनता एवं कम करता है जो अनु० 13 (2) के अन्तर्गत संवैधानिक रूप से निषिद्ध है।
- अनुच्छेद 31 (A) एवं अनु० 31 (B) भाग 5 के अध्याय चार के अनुच्छेद 132 एवं 136 को संशोधित करता है, जिसमें अनुच्छेद 368 (2) के अन्तर्गत आधे राज्यों का अनुमोदन (स्वीकृति) भी आवश्यक है। जिसे प्राप्त नहीं किया गया है, परिणामतः संशोधन असंवैधानिक है।
इन्हीं आधारों के साथ यह भी कहा गया कि संदर्भित संशोधन सातवीं अनुसूची के सूची 2 राज्य सूची से सम्बन्धित है जिन पर राज्य विधायिका कानून बनाने की शक्ति रखती है, संसद नहीं।
इस प्रकार इस शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ वाद में यह मूलभूत प्रश्न विचारणीय था कि क्या अनुच्छेद 13 की उपधारा (2) में ‘कानून’ में ‘संवैधानिक संशोधन‘ भी आते हैं, संवैधानिक पीठ ने सभी तर्कों को सुनने के पश्चात् सर्वसम्मति से निर्णय देते हुए कहा कि – “यद्यपि विधि में साधारणतः संवैधानिक विधि समाहित होती है परन्तु सामान्य कानून (विधायी शक्ति के अन्तर्गत निर्मित) एवं संवैधानिक कानून (संवैधानिक शक्ति के अन्तर्गत विनिर्मित) के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा है।”
इस बाद में न्यायाधीश शास्त्री ने स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा कि – “संविधान निर्माता भाग-3 में उल्लिखित मौलिक अधिकारों सम्बन्धी उपबन्धों के अमेरिकी माडल से प्रभावित थे। जिस कारण, उन्हें राज्य के कानूनी क्षेत्र से मुक्त रखा, परन्तु संवैधानिक संशोधन से भी इन अधिकारों को मुक्त रखना चाहते थे इसकी स्पष्ट झलक नही मिलती…।”
इस तरह इस वाद में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 13 की उपधारा (2) में ‘कानून’ शब्द में अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत संसद द्वारा बनाया कानून नहीं आता। अनुच्छेद 13 में उल्लिखित कानून शब्द का अर्थ विधायी शक्ति के अन्तर्गत बनाये गये नियम या विनियम हैं जिसमें संवैधानिक शक्ति के अन्तर्गत विनिर्मित संशोधन नहीं आते अनुच्छेद 13 (2), अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत संशोधन को प्रभावित नहीं करता। न्यायाधीशों का स्पष्ट मत था कि संविधान संशोधन का अनु० 368 पृथक अस्तित्व में है और किसी अपवाद के बगैर, संसद को संशोधन के लिए अधिकृत करता है।
इस प्रकार न्यायालय के समक्ष अनु० 31 (A) और अनु० 31 (B) के सम्बन्ध में जो मत रखा गया था एवं जिसके अन्तर्गत अनु० 368 की धारा (2) के अन्तर्गत अनुमोदन की आवश्यकता व्यक्त की गयी थी। न्यायालय ने इस पूरे मत को अस्वीकार करते हुए अभिनिर्धारित किया कि उपर्युक्त संशोधन मौलिक अधिकारों को छीनते या न्यून नहीं करते। दूसरे, संसद संविधान के प्रत्येक भाग जिसमें मौलिक अधिकार भी समाहित हैं, अनुच्छेद 368 में विहित प्रक्रिया द्वारा संशोधन की शक्ति रखती है। न्यायालय ने इस वाद में संविधान संशोधन का अर्थ सम्पूर्ण संविधान के उपबन्धों में संशोधन से लिया एवं संशोधन शक्ति को संसद के पक्ष में निर्णीत किया, साथ ही मौलिक अधिकारों की श्रेष्ठता भी बनाये रखी।