छत्तीसगढ़ी लोक वाद्य यंत्र :
यदि वाद्यों की उत्पत्ति को कल्पित भी माना जाए तो भी यह स्वीकार करना ही होगा कि प्रकृति के अंग-अंग में वाद्यों का समावेश है। हमारे लोकजीवन के रग-रग में वाद्यों का स्वर सराबोर है। लोकजीवन ने प्रकृति के आंचल से वाद्यों को ग्रहण करके उन्हें इतना समृद्ध बनाया कि उनकी एक पृथक शाखा बन गई है जो कि शास्त्रीय वाद्यों से अलग ही पहचान रखते हैं। शास्त्रीय वास्तव में कृत्रिमता युक्त बौद्धिक साधना है जबकि लोक वाद्य हृदय से प्राकृतिक गुणों के कृत्रिमताविहीन आलंबन है।
छत्तीसगढ़ के लोक संगीत में प्रयुक्त वाद्य यंत्रों का निम्नानुसार वर्गीकरण किया जा सकता है।
- तत् वाद्य – ऐसे तार के वाद्य यंत्र जो कि तार छोड़कर बजाते है, तत् वाद्य कहलाते हैं। जैसे – तंबूरा, इकतारा, धनकुल, किकरी आदि।
- वितत् वाद्य – वे वाद्य यन्त्र जो खोखले डिब्बेनुमा होती है, व जिसे कमानी या आघात देकर बजाते है, जैसे – सारंगी, चिकारा, ठिसकी आदि।
- सुषिर वाद्य – वे वाद्य यन्त्र जिसे फूंक कर या हवा के दबाव में बजाए जाते है, जैसे – बांसुरी, शंख, तोड़ी, तुरही, बीन आदि।
- अवनद्ध वाद्य – वे वाद्य जिन पर खाल चढ़ी रहती है, जैसे – ढोल, डमरू, मृदंग आदि।
- घन वाद्य – ये वाद्ययन्त्र धातु या काष्ठ (लकड़ी) के बने होते है, ये आघात देने से बजते है, जैसे – घंटा, घुंघरू, मंजीरा, सूप, आदि।
छत्तीसगढ़ी लोक वाद्ययंत्र :
छत्तीसगढ़ अंचल में लोक संगीत में प्रयुक्त होने वाले प्रमुख वाद्ययंत्र
मांदर –
मांदर दो प्रकार के होते है। बड़ी मांदर 84 खाने की और छोटी मांदर 64 खाने की होती है।
मांदर बनाने का काम मुख्यतः घसिया जाति करती है। मांदर के खोल पकी मिट्टी का बना होता है, उस पर बकरे का चमड़ा मढ़ा जाता है। इसे कसने के लिए भी चमड़े की डोरी लगाई जाती है। इसकी आवाज दूर दूर तक गूंजती है। यह सैला तथा कर्म नृत्य के समय उपयोग में लाया जाता है।
ढोल –
ढोल की खोल लकड़ी का होता है, इस पर भी बकरे का चमड़ा गढ़ा होता है, इसमें पतली – पतली कड़ियां लगी रहती है। चमड़े अथवा सुता की रस्सी द्वारा कसा जाता है। यह फाग तथा सैला नृत्यों में बजाया जाता है।
टिमकी –
कुम्हार मिट्टी से इसका कुंडा गढ़ता है और आग की आंच में पकाता है। इसके मुंह पर भी बकरे का चमड़ा मढ़ा जाता है। इसे कसने के लिए चमड़े की डोरी लगी रहती है। दो छड़ियों के द्वारा इससे स्वर निकाला जाता है। इसका उपयोग फाग गायन तथा सैला नृत्यों में किया जाता है।
नगाड़ा –
इसमें भी चमड़ा गढ़ा होता है, इसे उत्सवों के समय बजाया जाता है। होली के समय इसकी ध्वनि त्योहार में मनोरम का कार्य करती है।
ठिसकी –
इसे बांस को धनुषाकार में झुकाकर बनाते हैं जिसमें गोल लकड़ी के गुटके लगे रहते है और हाथों से खींच कर बजाते है। करमा सैला नृत्यों में इसे बजाया जाता है।
तंबूरा –
यह वाद्य भक्ति गीत के समय बजाया जाता है। गोल लौकी (तुम्बा) या कद्दू के सूखे खोल में बांस लगाकर इसे बजाया जाता है। इसमें तार या तांत का उपयोग होता है। इसे कसने के लिए बांस के डंडे में ऊपर की ओर खुंटिया लगी रहती है। पंडवानी आदि गाते समय इसका उपयोग किया जाता है।
चिकारा –
इसे सारंगी भी कहते है, लकड़ी की पोल खोल में चमड़े लगाकर इसे बनाते हैं इसे घोड़े के बालों से बने छोटी धनुष से बजाते हैं।
बांसुरी –
पोले बांस से बनाई जाती है और स्वर निकालने के लिए इसमें छेद होते है। आदिवासियों में इसकी लंबाई एक फुट से तीन फुट तक होती है।
तूरही –
इसका मुंह शहनाई की अपेक्षा कुछ बड़ा रहता है। शेष भाग क्रमशः पतला और लंबा होता जाता है। इसे मुख से बजाया जाता है। यह बस्तर के आदिवासियों द्वारा उपयोग में लाया जाता है।
सिंगी –
यह सींग से बनाई जाती है। देवी – देवताओं का आव्हान करते समय बैगा और देवार लोगों द्वारा बजाई जाती है।
मोहरी –
धातु से बनी यह वाद्य यंत्र शहनाईनुमा होती है। इसका प्रयोग विवाह के अवसर पर विशेषकर किया जाता है। महरा जाति के लोगों द्वारा बजाए जाने के कारण इसे महरा बाजा भी कहते है।
वाद्य हमारे जीवन में रसास्वादन करने में सहायक है। नृत्य और गीत वाद्यों पर ही आश्रित हैं। लोक जीवन में लोक कलाओं की सौंदर्य वाद्य यंत्रों के माध्यम से बढ़ जाता है। इनकी ध्वनि में लोक जीवन मंत्रमुग्ध हो उठता है, वास्तव में नृत्य और गीत के प्रेरक तत्व वाद्य यंत्र ही है।
छत्तीसगढ़ के अन्य प्रमुख वाद्य यंत्रों में अलगोजा, खंजरी, चांग (डफ), टिमटिमी, हुडकू, ताशा, करताल, झांझ, धनकुल, आदि है।.