किसी भी क्षेत्र के संस्कृति के विकास में स्थानीय त्योहारों का विशेष योगदान होता है, ये संस्कृति को जीवंत स्वरूप प्रदान करता हैं। पर्वों की दृष्टि से छत्तीसगढ़ वर्ष के बारहों महीने कोई न कोई पर्व मनाता रहता है, जो यहाँ की सांस्कृतिक भावों को उल्लासित करते रहते हैं। कुछ प्रमुख स्थानीय त्योहारों का विवरण निम्नानुसार हैं –
छत्तीसगढ़ के प्रमुख तीज-त्योहार :
दियारी तिहार – Diyari Tihar
बस्तर भूमि के वनवासी समाज की अपनी अलग तरह की दीपावली मनती है, जिसे ‘दियारी तिहार’ कहा जाता है। इस तिहार के अवसर पर लक्ष्मी जी की पूजन ‘लक्ष्मी-जगार’ पर्व के माध्यम से करते हैं। दियारी तिहार की कोई मान्य तिथि नहीं होती अपितु ‘माटी पुजारी’ के प्रतिनिधित्व में गाँव के मुखियों की एक बैठक आयोजित कर निर्णय लिया जाता है कि ‘दियारी तिहार’ कब मनाया जावे। ‘दियारी तिहार’ में धोराई (चरवाहा) केन्द्र बिन्दु बन जाता है।
धोराई (चरवाहा) रात में उनके घर ‘गेठा’ या ‘जेठा’ बांधने जाता है। प्रत्येक पशुधन स्वामियों के घरों में स्थित कोठों (पशु शालाओं) में बाजे-गाजे के साथ पहुंचकर पशुओं के गलें में गेठा बांधता है। वह इन मालाओं को सन या पलाश की जड़ों से तैयार करता है। बैल की माला ‘जेठा’ तथा गाय की माला ‘चुई’ कहलाती है। धोराई को प्रत्येक घर से जेठा बांधने का पारिश्रमिक, थोड़ा सा धान मिल जाता है। दूसरे दिन प्रातः पशुधन स्वामि अपने-अपने पशुओं को खिचड़ी खिलाते हैं।
इस अवसर पर प्रत्येक पशुओं की पूजा कर उनके माथे पर लाली व फूल चढ़ाया जाता है। इस कार्यक्रम को ‘गोड़धन पूजा’ कहते हैं। दिन में गोड़धन पूजा का कार्यक्रम सम्पन्न होता है और शायं के समय धोराई पुनः बाजे-गाजे के साथ पशुधन के स्वामियों के घर जाकर बाजा-बजानी दस्तूर माँगता है। पशुधन के स्वामियों के घरों से फिर उसे थोड़ा-थोड़ा धान मिल जाता है। इससे बाजा वालों का भुगतान भी निकल आता है।
तीसरे दिन गाँव के ‘गोठान’ में दियारी तिहार का मुख्य कार्यक्रम ‘गोठान पूजा’ सम्पन्न होती है। मध्यान्ह के समय जब सूर्य का प्रकाश तीव्र हो जाता है, तब धोराई अपने पशुओं को विश्राम कराने के लिए जिस स्थान में लेकर जाता है उसे ही गोठान कहते हैं। गोठान की रक्षा हेतु एक ग्राम्य देव, जो नियत रहते हैं उन्हें ‘गोठान देव’ संबोधित किया जाता है। पर्व के अंतर्गत भक्ति भावना से आल्हादित होकर गोठान देव की पूजा की जाती है।
उल्लेखनीय है कि बस्तर क्षेत्र, विशेषकर उत्तर बस्तर में धोराई का कार्य ठेठवार व राउत जाति के लोग करते हैं तथा उन्हीं के द्वारा इस पर्व को विशिष्टता प्रदान की गई है।
पुतरा-पुतरी पर्व – Putara Putari Parv
अक्षय तृतीया का पर्व भारत भर में मनाया जाता है। इसे परशुराम जयंती के नाम से भी जाना जाता है। छत्तीसगढ़ अंचल मे पुतरी-पुतरा का प्रतीक स्वरूप विवाह सम्पन्न कराया जाता है।
माटी तिहार – Mati Tihar
‘माटी तिहार’ बस्तर अंचल में चैत्र मास की पूर्णिमा के अवसर पर मनाया जाता है। इस त्यौहार को मनाने का कारण बस्तर के आदिम समाज का मिट्टी की अनंत सत्ता से प्रभावित होना है। माटी देवगुड़ी के परिसर में बीजधाम मिट्टी को अर्पित किया जाता है और प्रसाद के रूप में बीज धान लिया जाता है। इस पर्व को बीजपुटनी भी कहते हैं। बस्तर के आदिवासी मिट्टी की उपादेयता के आगे श्रृद्धा से नमस्तक होकर ‘माटी तिहार’ मनाकर उसके प्रति पूजा भाव प्रकट कर आंतरिक कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
जंवारा – Janwara Tihar
लोक पर्वो में जंवारा का प्रमुख स्थान है। वर्ष में दो बार क्वार व चैत्रमास में नवरात्रि का आयोजन किया जाता है। चैत्र नवरात्रि में जंवारा बोने का पर्व मनाया जाता है।
भोजली तिहार – Bhojli Tihar
रक्षाबंधन के दूसरे दिन भाद्र मास की प्रतिपदा को मनाए जाने वाला यह त्यौहार मूलतः मित्रता का पर्व है।
गोंचा पर्व – Goncha Parv
यह पर्व विशेष रूप से बस्तर क्षेत्र में आषाढ़ शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है। इस पर्व की पृष्ठभूमि में काकतीय नरेश की एक तीर्थयात्रा है। इस पर्व में ग्रामवासी श्री जगन्नाथ मंदिर की मूर्तियों को सम्मानपूर्वक रथ में स्थापित कर रथयात्रा करते हैं।
क्षेत्र के गाँव-गाँव से ग्रामवासी जगदलपुर पहुंचकर रथयात्रा में भाग लेते हैं और प्रसन्नतापूर्वक रथ खींचते हैं। ये रथ दशहरा पर्व पर उपयोग किए जाने वाले चार पहिए के वही रथ होते हैं जिन्हें ‘फूलरथ’ के नाम से भी जानते हैं। इस पर्व के प्रथम चरण को ‘सिरी गोंचा’ तथा अंतिम चरण को ‘बाहुड़ा गोंचा’ (लौटती गोंचा) कहते हैं। इस अवसर पर प्रसन्नता व्यक्त करने तथा भगवान को सलामी देने के लिए ‘तुपकी’ नामक उपकरण का उपयोग किया जाता है। तुपकियों की आवाज उत्सव की शोभा बढ़ाती है। तुपकियाँ चलाने के लिए गोलियों के गुच्छे भी बाजार में बिकते हैं जो स्थानीय भाषा में “पेंग” के नाम से जानी जाती है। यह वास्तव में एक जंगली आयुर्वेदिक औषधी ‘मालकांगिनी’ है। गोंचा तिहार में भगवान जगन्नाथ की पूजा उपरांत जो प्रसाद बंटता है उसे ‘गजामूंग’ कहते हैं।
गोबर बोहरानी – Gobar Bohrani
बस्तर क्षेत्र के छिंदगढ़ स्थित गाँवों में प्रतिवर्ष चैत्र मास में रामनवमी के पूर्व एक विचित्र त्यौहार मनाया जाता है, जिसे ‘गोबर बोहरानी’ कहते हैं। इस क्षेत्र में अधिकतर धुरवा जनजाति आबाद है। गोबर बोहरानी आयोजित करने के लिए ग्रामवासी ग्राम से लगे एक मैदान को आयोजन स्थल बना लेते हैं। आयोजन स्थल पर सबसे पहले ग्राम देवी की स्थापना की जाती है। यहाँ बाजा-मोहरी वालों के लिए ‘छापर’ (शेड) भी बनाए जाते हैं।
ग्राम देवी के पूजा स्थल पर पुरूष वर्ग द्वारा अपने शस्त्रों यथा- तीर-धनुष, कुल्हाड़ी, फरसा आदि की विधिवत् पूजा-अर्चना की जाती है। त्यौहार के अंतर्गत आखेट का भी प्रावधान रहता है, अतः आखेट से पूर्व पूजा कार्यक्रम सम्पन्न करा लिए जाते हैं। पूजा उपरांत ग्रामवासी आखेट के लिए निकल पड़ते हैं। यद्यपि आखेट प्रतिबंधित है तथापि ये जंगली पक्षियों से ही संतोष कर लेते हैं।
दोपहर तक ग्रामवासी आखेट से निवृत्त होकर अपने-अपने घरों को लौट आते हैं। थोड़ी देर विश्राम करने के बाद पुनः पूजा स्थल की ओर प्रस्थान करते हैं। शाम होते ही गोबर बोहरानी का आयोजन स्थल, लोक-संगीत के विविध रंगों में रंग जाता है।
आयोजन स्थल पर गोबर भंडारण के निमित्त गड्ढा बना लिया जाता है, जिसमें लोग थोड़ा-थोड़ा गोबर लाकर डालते रहते हैं। ठीक 10 वें दिन इस पर्व का समापन हो जाता है। इस दिन लोग प्रातः समय आयोजन स्थल में एकत्रित होकर नाचते-गाते हुए गड्ढे में से गोबर उठा-उठा कर एक दूसरे पर छिड़कते हुए अपशब्दों का उच्चारण करते हैं। अंत में गड्ढे से गोबर उठाकर ग्रामवासी अपने-अपने खेतों की ओर चल देते हैं। खेतों में गोबर छिड़क कर नहा-धोकर प्रेम पूर्वक घर लौटते हैं। इस प्रकार पर्व का समापन हो जाता है। इसके बाद खेतों में खाद डालने का कार्य प्रारंभ हो जाता है।
छेर-छेरा – Chherchhera Tihar
फसल काटने के बाद यह पूर्व बस्तर सहित छत्तीसगढ़ व ओडिशा के अन्य हिस्सों में भी मनाया जाता है। यह प्रति वर्ष पौष माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। छोटे बच्चों की टोली प्रसन्नतापूर्वक नाचते-गाते प्रत्येक घर से नए फसल के धान मांगने के लिए दस्तक देते है।
बाली परब – Bali Parab
यह पर्व हलबा एवं भतरा प्रजाति में विशेष लोकप्रिय है। यह पर्व लगातार तीन माह तक मनाया जाता है। यह पर्व भीमादेव को समर्पित है। यह भीमादेव गुड़ी परिसर में ही मनाया जाता है। इस पर्व को मनाने का निश्चित समय नहीं होता, यह सुविधानुसार मनाया जाता है। इस पर्व में रात-दिन नाच-गाना होता है। इस पर्व मे सेमल का एक विशेष स्तंभ स्थापित किया जाता है। (विस्तृत पढ़े)
भीमा जातरा – Bhima Jatra
जेठ माह मे भीमादेव का विवाह प्रतीक स्वरूप धरती माता से किया जाता है। यह उत्सव वर्षा की कामना में बड़े उत्साह से किया जाता है। इस तरह से बस्तर के अन्य क्षेत्रों में वर्षा की कामना से ‘मेंडका विवाह’ भी किया जाता है।
करसाड़ – Karsad Tihar
माटी तिहार के बाद बस्तर की अबुझमाड़िया कुटुम्ब प्रतिवर्ष गर्मी और बरसात के मध्य में करसाड़ पर्व मनाते हैं। इस पर्व में दोरला व दंडामी माड़िया जनजाति के लोग भी शामिल होते हैं। इस पर्व में अच्छी फसल के लिए गोत्र देव से पूजा-अर्चना की जाती है। यह पर्व मुख्य रूप से गोत्रीय देव-पूजन का पर्व है। इस पर्व में एक नृत्य समारोह का भी आयोजन होता है।
करम पर्व – Karam Parv
यह पर्व उराँव, बिंझवार, बैगा व गोंड़ आदि जनजाति का महत्वपूर्ण पर्व है। इस पर्व का प्रमुख ध्येय जीवन में कर्म की असीम प्रधानता का है। वस्तुतः यह पर्व वन्य जीवन व कृषि संस्कृति में श्रम साधना की पूजा पर आधारित है। यह प्रायः धान रोपने व फसल कटाई के मध्य अवकाश काल का पर्व है जोकि भाद्र माह में मनाया जाता है। इस पर्व के अवसर पर प्रसिद्ध करमा नृत्य का आयोजन किया जाता है।
आमाखायी – Aamakhayi
बस्तर संभाग में धुरवा एवं परजा जनजातियों द्वारा आयोजित होने वाला प्रमुख पर्व है। इस जनजाति के लोग यह पर्व आम फलने के समय अत्यंत ही उत्साह से मनाते हैं।
सरहुल – Sarhul Parv
यह उराँव जनजाति का प्रमुख पर्व है जोकि अप्रैल माह के आरंभ में मनाया जाता है। इस पर्व के अवसर पर सूर्यदेव व धरती माता का प्रतीकात्मक विवाह रचाया जाता है। यह पर्व आदिम जनजाति के प्रकृति प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है।
गौरा-गौरी तिहार – Goura Gouri Tihar
यह उत्सव कार्तिक माह में मनाया जाता है, इस उत्सव पर स्त्रियां शिव पार्वती का पूजन करती है। गोंड आदिवासी भीमसेन की प्रतिमा भी स्थापित करते है।
राउत-नाचा – Raout Nacha
दीपावली के तुरंत बाद राउतों द्वारा नृत्य का सामुहिक आयोजन किया जाता है। वे समूह में सिंग बाजा के साथ गाँव के मालिक, जिनके वे पशुधन की देखभाल करते हैं, के घर में जाकर नृत्य करते हैं। उनके लिए यह एक बड़ा वार्षिक पर्व है। देवउठनी, पुन्नी (पूर्णिमा) के दिन गायों को सोहाई बाँधते व अपने सुख समृद्धि की कामना कर दोहा पारते हैं। बिलासपुर में होने वाले राउत नृत्य प्रतियोगिता ने तो अब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि पा ली है।
हलषष्ठी (खमरछठ/हरछठ) –
यह छत्तीसगढ़ की माताओं का ममताप्रिय पर्व है, जिसमें माँ अपने पुत्र की लम्बी आयु की कामना करते हुए उपवास रखती है। इस दिन माताएँ भूमि में कुण्ड बनाकर शिव-पार्वती की पूजा-अर्चना करती हैं। वस्तुतः यह पर्व पुत्र के प्रति माता की असीम स्नेह व आशीष की अभिव्यक्ति है।
पोला – Pola Tihar
यह छत्तीसगढ़ के किसानों का लोकप्रिय पर्व है। भाद्र माह में किसान बुआई व रोपाई एवं निंदाई के बाद अपने सर्वाधिक उपयोगी पशु बैल के प्रति धन्यवाद अर्पित करते हुए साज-सज्जा के साथ बैल की पूजा अर्चना करते हैं। बच्चे मिट्टी के बैलों को प्रतीकात्मक रूप से सजाकर पूजा करने के बाद खेलते हैं। वस्तुतः यह पर्व कृषक व उसके मूक पशु के परस्पर प्रेम का प्रतीक है।
तीजा – Tija ke Tihar
यह छत्तीसगढ़ में लोकप्रिय परम्परागत पर्व है। इस पर्व मे पत्नी अपने पति की लम्बी आयु व उत्तम स्वास्थ्य की कामना करते हुए बिना अन्न एवं जल ग्रहण किए उपवास रखती है। भाद्र माह के अवसर पर विवाहिता स्त्रियाँ अपने ससुराल से मायके जाती हैं और शिव-पार्वती की पूजा अर्चना करते हुए इस पर्व को मनाती हैं।
हरेली – Hareli Tihar
यह छत्तीसगढ़ क्षेत्र में प्रथम पर्व के रूप में अत्यधिक उल्लास के साथ मनाया जाने वाला पर्व है। हरेली मुख्य रुप से हरियाली का उत्सव है जिसे छत्तीसगढ़ का आम किसान बड़े ही उत्साह के साथ मनाते हैं। यह पर्व श्रावण माह की अमावस्या को मनाया जाता है। यह दिन तंत्र साधना, जादू-टोना करने वाले बुरी शक्तियों के गहरे विश्वास से भी जुड़ा है।
गोवर्धन पूजा – Govardhan Pooja
छत्तीसगढ़ मे गोवर्धन गोधन की समृद्धि की कामना में यह पर्व कार्तिक माह में दीपावली के दूसरे दिन मनाया जाता है। इस दिन गोबर की विशेष आकृतियाँ बनाकर उसे पशुओं के खुर से कुचलवाया जाता है।
मातर – Maatar Tihar
यह छत्तीसगढ़ के यादव समुदाय का परम्परागत पर्व है। यह पर्व दीपावली के तीसरे दिन कुलदेवता की पूजा कर मनाया जाता है। इस पर्व में यादववंशीय लकड़ी के बने अपने कुलदेव अर्थात् खोड़हर देव की विधिवत पूजा-अर्चना के साथ अपनी पारम्परिक वेशभूषा में आर्कषक लाठियाँ लेकर नृत्य करते हैं।
लारूकाज – Larukaj
गोड़ों का यह पर्व नारायण देव के सम्मानार्थ आयोजित किया जाता है, इस पर्व में आदिवासी अपनी कृषि भूमि की पूजा करते हैं। इस पर्व में महिलाएँ सम्मिलित नहीं होती।
लक्ष्मी जगार – Laxmi Jagar
इस पर्व में आदिवासी धान की बाली को खेत से लाते हैं, जिसे वे कन्या का प्रतिरुप मानते हैं। धान की बाली को जगार घर या दूल्हा घर में बड़े ही धूमधाम से लाते हैं। इस प्रकार लक्ष्मी का प्रतीक बाली और विष्णु का प्रतीक जगार घर में स्थापित नारियल का विवाह होता है। (विस्तृत पढ़े)
अमूंस तिहार – Amuns Tihar
बस्तर अंचल के आंतरिक त्योैहारों में ‘अमूँस तिहार’ का अत्याधिक महत्व है। अमावस्या को स्थानीय हल्बी-भतरी परिवेश में ‘अमूँस’ कहा जाता है। यह त्यौहार प्रतिवर्ष हरियाली अमावस्या के आसपास गाँव-गाँव में मनाया जाता है। इसके अंतर्गत पारंपरिक रूप से पशुचिकित्सा का प्रावधान रहता है। पशुधन के स्वास्थ्य को ठीक बनाए रखने के प्रयास में अमूँस तिहार के अवसर पर औषधी का प्रयोग की प्रथा चली आ रही है। इस क्षेत्र में पशुधन के चरवाहे को ‘धोराई’ कहा जाता है। पशुधन को चराते-चराते धोराई इतना अनुभवी हो जाता है कि वह रोगों को पहचान कर जंगली जड़ी-बूटी से उनका इलाज भी कर लेता है। इसमें पशु औषधियों की पूजा-अर्चना की जाती है। इसमें विशेष रूप से ‘रसना’ और ‘शतावरी’ पौधों को विशेष महत्व दिया जाता है।
नवाखानी – Navakhani
यह पर्व प्रतिवर्ष भादो माह में शुक्ल पक्ष से पूर्णिमा तक परम्परानुसार मनाया जाता है। परंपरानुसार विधिपूर्वक नया अन्न ग्रहण करने के शुभारंभ को बस्तर भूमि के ग्रामीण अंचल में ‘नवाखानी’ कहते हैं। इस अवसर पर ग्राम व कुल देवियों की पूजा की जाती है और नया धान चढ़ाकर प्रसाद ग्रहण किया जाता है। नवाखानी का पर्व मना लेने के बाद ही ग्रामवासी नई फसल को उपभोग के काम में लाते हैं। यह उल्लेखनीय है कि धान के साथ-साथ इस अंचल में विविध फलों और अन्नों की भी नवाखानी मनाते हैं।
मेघनाद पर्व – Meghnaad Parv
गोंड़ जनजाति का यह पर्व फाल्गुन मास के प्रथम पखवाड़े में आयोजित होता है, कहीं कहीं यह पर्व चैत्र में भी मनाया जाता है। गोंड़ मेघनाद को अपना सर्वोच्च देवता मानते है।
पतदेव पूजा
लोगों को भूतप्रेत से बचाने और टोना-टोटका करने वाले व्यक्तियों को दंडित करने के लिए ‘पतदेव पूजा’ की जाती है। जिस गाँव में टोना-टोटका किया जा रहा हो वहाँ के ग्रामीण मंदिर से पतदेव को अपने गाँव ले जाने की अनुमति मंदिर के पुजारी से माँगते हैं। अनुमति मिलने पर पतदेव को मंदिर से बाहर लाकर चार व्यक्ति कंधों पर उठाकर चलते हैं ये चार व्यक्ति उस गाँव के नहीं होने चाहिए जहाँ पतदेव को ले जाया जा रहा है। गाँव में पहुंचकर पूर्व दिशा से प्रारंभ कर पश्चिम दिशा की ओर एक चक्कर लगाया जाता है, तत्पश्चात गाँव में प्रवेश किया जाता है। प्राचीन काल से चली आ रही यह प्रथा आज भी अपने अल्प-परिवर्तनीय रूप में विद्यमान है।
पोलई
खलिहान के कूपों में रचे गए अनाज की जब मिंजाई (गाहनी) हो चुकी होती है और अनाज का ढेर लग जाता है, तब से लेकर घर पहुंचने तक काफी अनाज बँट जाया करता है यथा- अटपहरिया, धोराई और कोटवार भागीदार बनते हैं। उसी में से मजदूरी चुकाई जाती है और यदि खेतिहर सामान्य स्थिति का हुआ तो उसे डेढ़ी-बाढी (कर्ज) भी चुकानी पड़ जाती है। मिंजाई करते समय जानवर भी कुछ बालियाँ खा जाते हैं।
कृषक के इस उपलब्धि बेला से बस्तर अंचल में एक उदार प्रथा भी जुड़ गई है। इस प्रथा का नाम ‘पोलई’ है। पोलई का शाब्दिक अर्थ चाहे जो भी हो परंतु पोलई प्रथा अपनी व्यवहारिक सार्थकता के लिए अंचल में प्रसिद्ध है। पोलई प्रथा के अंतर्गत कोई भी गरीब, बेसहारा, विकलांग, स्त्री या पुरूष पोलई ले जाने का अधिकारी हाे सकता है। पोलई में होता यह है कि व्यक्ति, किसान के खलिहान तक अपनी हैसियत के अनुसार भेंट में कुछ न कुछ लेकर पहुंचता है। किसान उसकी भेंट को प्रेमपूर्वक स्वीकार कर लेता है और भेंट में लाई गई वस्तु के अनुमानित मूल्य से अधिक का धान दे देता है। भेंट ले जाने की इस स्थिति को पोलई ले जाना और किसान द्वारा बदले में सहायतार्थ दिए गए अन्नदान की पोलई देना कहते हैं। पोलई में किसी असहाय व्यक्ति को कोठरों से इतना अनाज मिल जाता है कि उसकी कुछ समय की भोजन व्यवस्था हो जाती है।