# आश्रम व्यवस्था क्या है? इसके प्रकार एवं महत्व की व्याख्या कीजिए | Aashram Vyavastha

आश्रम व्यवस्था :

आश्रम व्यवस्था एक ऐसा प्रशिक्षण स्थल है जिसमें व्यक्ति चार आश्रम जीवन के सभी कर्तव्यों और दायित्वों को सीखने और निभाते हुए अपने आश्रम लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है अर्थात् अपने पुरुषार्थ को प्राप्त करता है। चारों आश्रमों की सफलता से ही मोक्ष मिलता है, अन्यथा व्यक्ति जन्म और मरण के चक्र में फंसा रहता है।

सामाजिक संगठन और सुव्यवस्था के लिए वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत जिस प्रकार चार वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र- समाज को विभाजित किया गया है, उसी प्रकार व्यक्तिगत जीवन को समुन्नत करने के लिए जीवन-यात्रा के सम्पूर्ण काल को चार आश्रमों या स्तरों (stages) में विभाजित कर दिया गया है। वे आश्रम हैं—

  1. ब्रह्मचर्य आश्रम,
  2. गृहस्थ आश्रम,
  3. वानप्रस्थ आश्रम,
  4. संन्यास आश्रम।

(1) ब्रह्मचर्य अर्थात् विद्याध्ययन तथा पवित्रता से जीवन व्यतीत करने का स्तर।

(2) गृहस्थ अर्थात् विवाह करके परिवार तथा उससे सम्बन्धित समस्त कर्तव्यों को पूरा करने का स्तर।

(3) वानप्रस्थ अर्थात् घर त्यागकर वन में जाकर तपस्या व ध्यान द्वारा सांसारिक इच्छाओं और बन्धनों से मुक्त होने के प्रयत्न करने का स्तर। दूसरे शब्दों में यह सांसारिक मायाजाल से अपने को पूरी तरह छुड़ाने के लिए आवश्यक प्राथमिक तैयारी का स्तर (preparatory stage) है।

(4) संन्यास अर्थात् समस्त सांसारिक बन्धनों व मोह को पूर्णतया त्याग देने का स्तर।

आश्रम व्यवस्था के प्रकार :

1. ब्रह्मचर्य आश्रम (Brahmcharya Ashrama)

हिन्दू शास्त्रों में मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन 100 वर्ष माना गया है। जन्म से 25 वर्ष का जीवन ब्रह्मचर्य आश्रम हेतु सुरक्षित होता है। इस आयु में मनुष्य की अवस्था इस प्रकार की होती है कि उसको जिस दिशा में चाहे शारीरिक व मानसिक स्तर पर मोड़ा जा सकता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है ऐसे मार्ग पर चलना, जिस पर चलकर महान् बना जा सके। शूद्रता में महानता की ओर ले जाने वाला मार्ग इसी आश्रम में रहकर खोजा जाता है। वेदों का अध्ययन, इन्द्रियों को वश में करना, मन और आत्मा को शुद्ध करने की कला ही ब्रह्मचर्य है।

महत्व/उद्देश्य :

ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करने से पूर्व बालक का यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता है क्योंकि यज्ञोपवीत से पहले वह द्विजत्व को प्राप्त नहीं करता है। ज्ञान अर्जन, संयमी जीवन तथा शारीरिक एवं मानसिक विकास ब्रह्मचर्य आश्रम का उद्देश्य है। इन सबके लिए बालक को एक स्वस्थ, शुद्ध व नैतिक वातावरण की आवश्यकता होती है। जिसमें रहकर वह ब्रह्मचर्य आश्रम के उद्देश्य को पूर्ण कर सके। इसीलिए बालक को पितृ से दूर गुरुकुल में अध्ययन के लिए भेजा जाता है। जहाँ उसे उसके स्वभाव, रुचि के अनुसार सभी प्रकार की शिक्षा दी जाती है। इनमें शास्त्र, शास्त्र व व्यवसाय सभी शिक्षाएँ सम्मिलित होती हैं।

2. गृहस्थ आश्रम (Grahastha Ashrama)

शारीरिक, मानसिक व आत्मिक रूप से पुष्टता ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करता है। गृहस्थ आश्रम का काल भी 25 वर्ष यानि 25 से 50 वर्ष तक की आयु का होता है। यह आश्रम सभी आश्रमों से अधिक महत्व का होता है। वास्तव में गृहस्थ भौतिक सुखों की प्राप्ति व उनका उपभोग इसी आश्रम में करता है। जहाँ एक ओर ब्रह्मचर्य संयम का आश्रम है, गृहस्थ उपभोग व धार्मिक अनुष्ठानों का गढ़ है। मनुष्य की सहज काम प्रवृत्ति की सन्तुष्टि के लिए हमारे ऋषियों ने गृहस्थ आश्रम की व्यवस्था की है। शरीर, मन व आत्मा सभी स्तरों पर ब्रह्मचर्य आश्रम में पूर्णता प्राप्त कर मनुष्य किसी योग्य कन्या से विवाह कर गृहस्थ बन जाता है।

महत्व/उद्देश्य :

इस आश्रम का मुख्य उद्देश्य देव, पितृ व ऋषि ऋणों से मुक्त होना व काम की तृप्ति है। हिन्दू धर्म में विवाह का अर्थ काम की स्वतन्त्रता को मर्यादा में बाँधकर एक व्यक्ति को भोग से संयम की ओर, संयम से निवृत्ति की ओर और तत्पश्चात् संसार से ईश्वर की ओर प्रेरित करता है। “गृहस्थाश्रम का प्रयोजन है स्त्री-पुरुष का संयुक्त जीवन निर्वाह और गृहस्थाश्रम संयम पालन के लिए है इसीलिए वह ब्रह्मचर्य मूलक है।” अर्थ और काम की प्राप्ति के अतिरिक्त गृहस्थ आश्रम का एक अन्य मुख्य उद्देश्य सन्तान प्राप्ति है। समाज की निरन्तरता के लिए सन्तानोत्पत्ति अति आवश्यक है।

(3) वानप्रस्थ आश्रम (Vanprastha Ashrama)

गृहस्थ आश्रम में सभी भौतिक सुखों को भोगकर अपने कर्तव्यों व उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर मनुष्य वानप्रस्थ आश्रम में प्रविष्ट होता है। मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है उसी की पहली सीढ़ी वानप्रस्थ है।

सामान्यतया 50 वर्ष की आयु में वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया जाता है तथा 75 वर्ष की आयु तक यह आश्रम चलता है। इसके लिए सर्वोत्तम स्थान वन में कुटिया बनाकर रहना है। इन्द्रियों पर नियन्त्रण, भौतिक सुखों का त्याग इस आश्रमवासी की विशेषताएँ हैं। जीवों पर दया, सदाचार का पालन, आत्म-नियन्त्रण, शुद्ध व पवित्र जीवन व्यतीत करना ही वानप्रस्थी के कर्तव्य हैं। वानप्रस्थाश्रम में जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, व्यक्ति को केवल कुल एवं गृह का ही आश्रम नहीं छोड़ना पड़ता था, बल्कि वह गाँव का भी आश्रम छोड़कर जंगल में अपनी कुटिया बनाकर रहता था।

महत्व/उद्देश्य :

सगे-सम्बन्धियों व पारिवारिक सम्बन्धों से हटकर जन-साधारण के कल्याण तथा समाज कल्याण में लगना और आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति वानप्रस्थ आश्रम का उद्देश्य है। वानप्रस्थ में कर्म प्रधान होता है, लेकिन कर्म निष्काम होता है। निःस्वार्थ सेवा व आत्मशुद्धि का दूसरा रूप ही वानप्रस्थ है।

(4) संन्यास आश्रम (Sanyas Ashrama)

जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति ही संन्यास आश्रम का उद्देश्य है। जीवन के अन्तिम भाग में स्वत्व को खत्म कर संसार के आकर्षण से ईश्वर में लीन होकर अन्तिम क्षण की प्रतीक्षा ही संन्यास है। डॉ. राधाकृष्णन् ने लिखा है कि “वे विश्व के समस्त वर्गों और समूहों को समदृष्टि से देखते हैं तथा सम्पूर्ण मानवता का कल्याण करना उनका उद्देश्य होता है।”

महत्व/उद्देश्य :

संन्यासी का कोई स्थान निश्चित नहीं होता है। कापड़िया ने कहा है, “वह अपने को जंगल तक सीमित नहीं रखता था, वरन् गाँव-गाँव जाता था और अपने उदाहरण और उपदेशों से समाज को प्रेरित करता था।” अतः सम्पूर्ण विश्व ही संन्यासी का घर होता है। संन्यासी भौतिक जगत् से दूर आध्यात्मिक संसार से जुड़ जाता था। अतः शरीर के प्रति उदासीन हो वह आत्मा से सम्बन्धित हो जाता है। केवल जीवन के लिए भोजन करना संन्यासी की विशेषता है। ईश्वर का ध्यान एवं प्राणायाम ही संन्यासी का प्रमुख कर्तव्य है।

संक्षेप में आश्रम व्यवस्था की सभी आवश्यकताओं का एक निर्धारित, सुनियोजित क्रम है। हिन्दू विचारकों व शास्त्रकारों ने आश्रम व्यवस्था से शारीरिक व मानसिक रूप से दृढ़ होकर सांसारिक सुखों को भोगकर, जनकल्याण में लगकर अन्त में ईश्वर में लीन हो जाने का मार्ग दर्शाया है।

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