संवैधानिक स्थिति – एक विश्लेषण :
“राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्त यद्यपि कोई वैधानिक आधार प्रदान नहीं करते और न ही संवैधानिक उपचार देते हैं, मात्र सुझाव की तरह मालूम पड़ते है परन्तु सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था के इन आधारभूत सिद्धान्तों ने न्यायालयों के लिए दीप ज्योति का कार्य किया है….” – एम० सी० सीतलवाड़
संविधान के चतुर्थ भाग में वर्णित राज्य के नीति निदेशक तत्वों ने आधुनिक प्रजातन्त्रिक राज्य के लिए एक व्यापक आर्थिक राजनीतिक एवं सामाजिक कार्यक्रम की रचना की है। संविधान के ये विलक्षण तत्व मौलिक अधिकारों के सहोदर ही हैं, लोकतन्त्र केवल एक राजनीतिक संरचना ही नहीं वरन् एक सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था भी है अर्थात् भाग तीन एवं भाग चार अधिकारों से ही सम्बन्धित हैं और सावयवी व्यवस्था के अभिन्न अंग हैं। मौलिक अधिकारों सम्बन्धी भाग तीन यदि देश में राजनैतिक प्रजातन्त्र की नींव रखता है तो चतुर्थ भाग में वर्णित सकारात्मक निर्देश सामाजिक व आर्थिक लोकतन्त्र के घोषणा प्रपत्र है। प्रो० के० सी० मार्केण्डन के शब्दों में, “यदि मौलिक अधिकारों का अध्याय लोकतान्त्रिक स्वरूप हेतु आवश्यक है तो राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्तों का लोक कल्याणकारी राज्य के लिए होना अनिवार्य हैं।”
संविधान के भाग चार में अनु० 36 से अनु० 51 तक वर्णित ये निदेशक सिद्धान्त, इस प्रकार किसी भी उत्तरदायी सरकार के समक्ष सामाजिक आर्थिक स्वतन्त्रताओं का लक्ष्य रखते हैं, शासन के आधारभूत सिद्धान्त स्वीकार किये जाने से राज्य पर निश्चित दायित्व आरोपित करते हैं। न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय न होने के बाद भी ये संविधान की अन्तर्रात्मा है।
प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर ने दो लक्ष्यों को स्पष्टतः आधार बनाया –
निदेशक सिद्धान्तों की प्रकृति और महत्व को देखते हुए उसकी संवैधानिक स्थिति के विषय में सदैव मतभेद रहा है। कुछ इन्हें मात्र नैतिक घोषणाएं मानते हैं जिनसे किसी को प्रेरणा नहीं मिलती कारण कि अन्यायिक हैं। दूसरी ओर इन निदेशक सिद्धान्तों को ऐसा निर्देश बताया गया जिनसे कुछ दायित्वों के संहिता की स्थापना होती है, जिनके द्वारा देश में सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक न्याय का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
संविधान सभा में टी० टी० कृष्णमचारी की उपमा –
“भावनाओं के उस कूड़ाघर से की है जिसमें काफी लचीलापन है तथा जिसमें सदन का कोई सदस्य रूचि के घोड़े पर बैठकर भीतर जा सकता है….”
फिर भी इन अधिकारों को ‘अन्यायिक अधिकार’ ‘पवित्र इच्छाएं’ या ऐसी चेक जिसका भुगतान बैंक पर निर्भर है अथवा राज्य के दायित्व या कर्तव्य मात्र के रूप में वर्गीकरण करना अनुचित होगा। ये ऐसे अधिकार हैं जिन्हें व्यक्ति पृथक रूप में उपभोग नहीं करता वरन लोक कल्याणकारी राज्य के सदस्य के रूप में सामूहिक रूप से उपभोग करता है ये ऐसे अधिकार भी नहीं हैं जिनके लिए व्यक्ति अधिकार के रूप में मांग कर सके वरन व्यक्ति के इन सामाजिक-आर्थिक अधिकारों के क्रियान्वयन का दायित्व राज्य पर रखा गया। राज्य से आशा की गयी कि कानून बनाते समय या नीति निर्माण के समय इन तत्वों से निर्देशन प्राप्त करे।
राज्य हेतु ये निदेशक सिद्धान्त कानूनी बाध्यता नहीं रखते वरन् नैतिक बाध्यता का कर्तव्य प्रस्तुत करते हैं। इन सिद्धान्तों के लिए ठीक ही कहा गया है कि- “ये मात्र सिद्धान्त ही नहीं, जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है, बल्कि ये तत्व बाध्यकारी चरित्र के है जिनका अननुपालन का अर्थ विश्वासघात होगा।”
यद्यपि ये नीति-निदेशक सिद्धान्त न्याय मान्य नहीं है, या सरल अर्थ में न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है फिर भी इनका वास्तविक उद्देश्य “सत्यम् शिवम् सुन्दरम्” के लक्ष्य की प्राप्ति करना है। ये तत्व एक अत्यन्त लचीली तथा प्रगतिशील संहिता की रचना करते है जिनका उद्देश्य लोककल्याण है। भाषा में भी ये तत्व इतने उदार हैं कि इनमें सभी विचारधाराओं के लिए स्थान है, आर्थिक लोकतन्त्र के आदर्श तक पहुँचने के लिए प्रयास अपने अपने तरीके से करने के पूर्ण अवसर हैं। इस सम्बन्ध में, अम्बेडकर ने स्पष्ट करते हुए कहा था – “निदेशक तत्वों के लिए हमने जानकर ऐसी भाषा का प्रयोग किया है जो न कठोर है और न अपरिवर्तनशील….”
लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना में इन निदेशक सिद्धान्तों को राज्य के दायित्व रूप में देखा जा सकता है संविधान निर्माताओं का निर्धारित लक्ष्य राजनीतिक लोकतन्त्र के साथ-साथ आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना भी था जिस कारण संविधान का अनु० 37 इन निदेशक सिद्धान्तों को शासन के आधारभूत तत्व घोषित करता है। निश्चित रूप से राज्य (विधायिका या कार्यकारी संस्था) का दायित्व है कि सामाजिक आर्थिक क्षेत्र सम्बन्धी नीतियाँ सुनिश्चित करते समय इन निदेशक तत्वों से निर्देशन प्राप्त करें, उन्हें पर्याप्त महत्व दें। निश्चित रूप से ये तत्व- “संविधान द्वारा, राज्य को दिये गये, निर्देश हैं।”
ये निदेशक सिद्धान्त यद्यपि किसी व्यक्ति द्वारा न्यायालय से प्रवर्तित नहीं कराए जा सकते किन्तु संविधान राज्य को विशेषतः और स्पष्टतः यह निर्देशित करता है कि इन आधारभूत सिद्धान्तों को लागू करे…। व्यक्ति राज्य को इस हेतु न्यायालय में भले ही न खींच सकें किन्तु राज्य की नैतिक बाध्यता है कि इनका क्रियान्वयन सुनिश्ति करें, राज्य के दृष्टिकोण से भी इनका क्रियान्वयन न होना उतना ही असंवैधानिक होगा जिनका न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय न होने पर होता है।
अनुच्छेद 37 में ‘किन्तु’ एवं ‘फिर भी‘ शब्दों का प्रयोग अत्यन्त महत्वपूर्ण है जो निदेशक सिद्धान्तों की प्रकृति एवं संवैधानिक स्थिति समझने के लिए पर्याप्त है। यद्यपि प्रकृति न्यायालय द्वारा अप्रवर्तनीय है तथा प्रबन्ध एवं क्रियान्वयन विधायिका एवं कार्यपालिकाओं को दिया गया है, तात्पर्य संवैधानिक उपचारों के साथ प्रवर्तनीय नहीं है। भारत का राष्ट्रपति भी संविधान में अपने पद के अनुरूप दायित्वों के अन्तर्गत तत्वों के प्रवर्तन के लिए विवश नहीं कर सकता है (जो निदेशक तत्वों के विरूद्ध हो।) परन्तु डा० अम्बेडकर ने इससे अपना विरोध प्रकट किया, उनके ही शब्दों में – “भारत की संसदीय प्रणाली में राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह एवं मंत्रणा पर ही कार्य करता है, और (सम्भवतः) ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं होगी कि उसे, प्रधानमंत्री द्वारा अनु० 78 के अन्तर्गत सूचनाएं दे दिए जाने के पश्चात, विशेषाधिकार के प्रयोग की आवश्यकता पड़े ……..
……… निदेशक तत्वों का पालन उनकी प्रकृति, नैतिक आधार एवं निहित नैतिक शक्ति में है ये देश के शासन में मूलभूत तत्व हैं।”
जहाँ तक इन निदेशक तत्वों के न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय न किए जाने की आलोचना का प्रश्न है इन तत्वों की संवैधानिक स्थिति, भाषा, प्रकृति और महत्व इसके प्रमाण हैं कि ये न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय न होने के बाद भी, संवैधानिक उपबन्धों के अनुसार, शासन के आधारभूत सिद्धान्त है, और एक निश्चित लक्ष्य रखते है।
दूसरे शब्दों में, प्रत्येक लिखित संविधान में कुछ ऐसी परम्पराएं होती हैं जो प्रत्यक्षतः, न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होतीं किन्तु यथावत पालन की जाती है। अतः, जो सम्मान, आदर और पालन संवैधानिक परम्पराओं का है वही संवैधानिक व्यवस्था में निदेशक सिद्धान्तों का है।
निदेशक तत्वों के अनुच्छेद 38, जिसमें “सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करें” शब्दावली का प्रयोग किया गया है… और “लोक कल्याण की अभिवृद्धि के प्रयास” का प्रयोग किया गया है। इसी क्रम में अनु० 38 की धारा-2 में भी लोगों के बीच “आय की असमानताओं को कम करने के प्रयास” की व्यवस्था की गयी है। ये समस्त शब्दावली निदेशक तत्वों की प्रकृति, महत्व और संवैधानिक स्थिति स्पष्ट कर देती है।
निष्कर्षतः, संविधान में उल्लिखित निदेशक तत्व गतिशील व्यवस्था के द्योतक है। भारत में लोगों के जीवन स्तर में सुधार, सामाजिक आर्थिक समृद्धि, असमानता की समाप्ति आदि तत्व इसकी प्रगतिशीलता के परिचायक है। निदेशक सिद्धान्त संविधान सभा द्वारा पूरे सोच और विचार विमर्श के साथ राष्ट्रीय नीति के रूप में उल्लिखित हैं, संविधान का दर्शन हैं। वे किसी दल या सम्मेलन की अभिव्यक्ति नहीं वरन जन आंकाक्षाओं के प्रतीक हैं। राज्य व्यक्तियों के लिए किस दिशा में क्या करें, किस दिशा की ओर व्यवस्था को लक्ष्यों के साथ आगे बढ़ाया जाये इन सबकी सूचक के रूप में उपस्थिति निदेशक सिद्धान्तों में है।
सार रूप में, राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्त आर्थिक और सामाजिक प्रजातन्त्र रूपी लक्ष्य के साधन है, इनकी उपेक्षा करने का अर्थ संविधान द्वारा स्थापित जीवनाधार, राष्ट्र को दिलायी गयी आशाओं और उन मूल आदर्शों की उपेक्षा करना होगा जिनके आधार पर संविधान का निर्माण किया गया है। इनके द्वारा ही कल्याणकारी राज्य की स्थापना सम्भव है। न्यायाधीश केनिया के शब्दों में- “ये तत्व किसी बहुमत की अस्थायी इच्छा नहीं है वरन् इनके द्वारा राष्ट्र की मननशील बुद्धिमत्ता अभिव्यक्त होती है जो देश के प्रशासन के लिए मूल आधार मानी गयी है ….”