आर्य समाज ने समाज सुधार के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया। इसके प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती थे।
परिचय: आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती थे। 19वीं शताब्दी के सामाजिक और धार्मिक आन्दोलनों में आर्य समाज सबसे शक्तिशाली आन्दोलन सिद्ध हुआ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वैदिक धर्म और संस्कृति को पुनर्जीवित किया और सर्वप्रथम ‘वेदों की ओर लौट जाओ’ तथा ‘भारत भारतीयों के लिए’ का नारा दिया। वे एक साथ सन्त, समाज-सुधारक और देशभक्त थे। रोमा रोला के शब्दों में, “दयानन्द इलियट अथवा गीता के प्रमुख नायक के समान थे। उनमें हरक्यूलिस की सी शक्ति वस्तुतः शंकराचार्य के बाद इतनी महान् बुद्धि का सन्त दूसरा नहीं जन्मा।”
दयानन्द सरस्वती का जन्म 1824 ई. में काठियावाड़ के मोरखी रियासत में टंकारा नामक स्थान पर एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम मूलशंकर था। उनके पिता अम्बाशंकर एक जमींदार और साहूकार थे और शैव मत के अनुयायी थे। बचपन से ही वे कुशाग्र बुद्धि के थे और सत्यान्वेषणी प्रवृत्ति के थे। 14 वर्ष की उम्र में उन्होंने वेदों और संहिताओं के अनेक अंशों को कंठस्थ कर लिया था। वे संस्कृत और व्याकरण के प्रकांड विद्वान थे। विवाह-बन्धन से बचने के लिए 1846 ई. में उन्होंने गृह त्याग दिया। सत्य, ज्ञान और मुक्ति की खोज में उनका सम्पर्क अनेक साधु-संन्यासियों से हुआ। ब्रह्मानन्द नामक संन्यासी के प्रभाव के कारण उनका ध्यान वेदान्त की ओर आकर्षित हुआ। सन् 1867 के हरिद्वार महाकुम्भ के अवसर पर उन्होंने सबसे पहले अपने मत का प्रचार प्रारम्भ किया।
स्वामी दयानन्द जी ने अपनी शैली से वेदों का भाष्य प्रारम्भ किया। उनके द्वारा सर्वप्रथम मुम्बई और लाहौर में आर्य समाज की स्थापना हुई। पहले वे एनीबेसेन्ट के साथ कुछ दिनों कार्य करते रहे, किन्तु वेदों में स्वामी जी की अखण्ड निष्ठा थी। थियोसोफिकल सम्प्रदाय से उनका मन मिल नहीं सका, वे पृथक् प्रचार में लग गये। उनमें प्रकाण्ड प्रतिभा थी, उज्ज्वल त्याग था और उनकी वाणी में अद्भुत शक्ति थी, जनता पर उनका प्रभाव बहुत अधिक पड़ा। स्वामी दयानन्द सरस्वती महान् पुरुष थे। उनके जैसे स्पष्टवादी, निर्भीक वक्ता बहुत कम होते हैं। वेदों में प्राचीनतम संस्कृति में उनकी अगाध निष्ठा थी। उन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा का भरपूर प्रयास किया। हिन्दुत्व पर होने वाले आक्रमणों का उन्होंने प्राण-पण से विरोध किया। इन्होंने ऐकेश्वरवाद पर बल दिया। स्वामी जी ने हिन्दू समाज में शुद्धि आन्दोलन द्वारा एक नवीन प्रकार की क्रान्ति पैदा कर दी।
आर्य समाज के मुख्य सिद्धान्त :
आर्य समाज के धार्मिक सिद्धान्त आर्य समाज के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं –
- ईश्वर एक है। वह अनादि, अनन्त व सर्वशक्तिमान है। उसकी उपासना आध्यात्मिक ढंग से होनी चाहिए। मूर्ति पूजा उचित नहीं है।
- तीन वस्तुएँ – 1. ईश्वर, 2. आत्मा, 3. प्रकृति अनादि है।
- तीर्थयात्रा करना बेकार तथा अनावश्यक है।
- अवतार का सिद्धान्त मिथ्या है राम, कृष्ण इत्यादि महापुरुष थे, वे अवतार नहीं थे।
- कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त सत्य है, क्योंकि वेदों में उनका वर्णन है।
- सत्य का आदर करना चाहिए। झूठ मत बोलो।
- सद्गुणों का अपने अन्दर विकास करना उचित है।
आर्य समाज के सामाजिक सिद्धान्त :
आर्य समाज के निम्नलिखित सामाजिक सिद्धान्त विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-
- जाति-पाँत पर जोर नहीं दिया।
- योग्यता के आधार पर न्याय करना चाहिए।
- सहानुभूति का आदान-प्रदान भी करना चाहिए।
- हिन्दी तथा संस्कृत का प्रचार करना चाहिए।
- बाल-विवाह की प्रथा को बुरा कहा है।
- कुछ दशाओं में विधवाओं को पुनर्विवाह का भी अधिकार दिया जाये।
- व्यक्ति को केवल अपना स्वार्थ नहीं देखना चाहिए दूसरों की भलाई के लिए भी कार्य करना चाहिए।
आर्य समाज की देन :
१. सामाजिक क्षेत्र में –
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सामाजिक क्षेत्र में सराहनीय सुधार किए। उन्होंने बाल-विवाह, बहुविवाह, पर्दा प्रथा, सती-प्रथा, जाति प्रथा, छुआछूत, अशिक्षा, आदि सामाजिक बुराइयों का विरोध किया तथा स्त्री शिक्षा, अन्तर्जातीय विवाह एवं विधवा विवाह का समर्थन किया। आर्य समाज ने जन्तर-मन्तर, जादू-टोना तथा अन्य अन्धविश्वासों को मान्यता प्रदान नहीं की।
आर्य समाजियों ने शादी-विवाह, जीवन-मरण, आदि रीतियों को सरल बनाने का कार्य भी किया। उन्होंने अनाथों एवं विधवाओं की दशा सुधारने का भी प्रयास किया तथा देश में अनेक अनाथालयों, विधवाश्रमों की स्थापना की। शिक्षा के क्षेत्र में गुरुकुल और डी. ए. बी. कॉलेज एवं अन्य संस्थाओं की स्थापना करके भारतीय जनता को शिक्षित बनाने का प्रयत्न किया।
दयानन्द सरस्वती ने वर्ण व्यवस्था और जाति-पात के ऊँच-नीच और भेद-भाव को नहीं माना और सामाजिक समानता पर बल दिया। वे वर्ण-व्यवस्था को जन्म के स्थान पर कर्म पर आधारित मानते थे। उन्होंने ब्राह्मणों के प्रभुत्व का विरोध किया तथा सबके वेदों को पढ़ने का अधिकार दिया जिसके फलस्वरूप हिन्दू समाज में अछूतों को समानता की दृष्टि से देखा जाने लगा। दयानन्द सरस्वती ने शुद्धि आन्दोलन भी चलाया जिसके अन्तर्गत ऐसे हिन्दुओं को जो बलपूर्वक ईसाई या मुसलमान बनाए गए थे। तथा जो पुनः हिन्दू धर्म स्वीकार करना चाहते थे, उनकी शुद्धि करके हिन्दू धर्म ग्रहण करवाया जाता था। इस आन्दोलन के द्वारा लाखों हिन्दुओं को जो ईसाई और मुसलमान बन गए थे, शुद्ध करके पुनः हिन्दू धर्म में सम्मिलित कर लिया गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती के पश्चात् लाला हंसराज तथा स्वामी श्रद्धानन्द आदि के नेतृत्व में आर्य समाज ने हिन्दू समाज के उद्धार के लिए कई कार्य किए।
२. धार्मिक क्षेत्र में –
आर्य समाज में एकेश्वरवाद को मान्यता दी गयी तथा हिन्दू समाज के कर्मकाण्डों और पुरोहितवाद का विरोध किया गया। इस समाज ने वैदिक धर्म का पुनरुत्थान किया और वैदिक रीति से यज्ञ, हवन, प्रार्थना, सत्संग आदि करके निराकार ईश्वर की उपासना के सिद्धान्त को सामने रखा। आर्य समाज ने तीर्थ यात्रा तथा अवतारवाद का विरोध किया।
आर्य समाजी आत्म-ज्ञान का मार्ग प्रत्येक व्यक्ति के लिए खोल देने के पक्षपाती थे। उनके अनुसार समस्त ज्ञान का स्रोत वेद है और वेदों के अध्ययन का अधिकार प्रत्येक स्त्री-पुरुष को है चाहे वह किसी भी जाति का हो। आर्य समाज ने ही जनता में हिन्दू धर्म के प्रति निष्ठा उत्पन्न करके हिन्दुओं को अन्य धर्मों के चंगुल से बचाया। स्वामी दयानन्द का मानना था कि वैदिक धर्म ही सब धर्मों में श्रेष्ठ है। क्योंकि इसका आधार वेद है जो ईश्वरीय देन है। उन्होंने जिस तरह इस्लाम और ईसाई धर्म की बुराइयों का मजाक उड़ाया उसी तरह से हिन्दू धर्म की बुराइयों का जनाजा निकाला। उन्होंने हिन्दू धर्म को सरल बनाकर उसकी श्रेष्ठता को फिर से स्थापित करने का प्रयास किया।
३. राष्ट्रीय क्षेत्र में –
स्वामी दयानन्द ने हिन्दू समाज में नव चेतना का संचार करके हिन्दुओं में आत्मसम्मान की भावना जाग्रत की। उन्होंने हिन्दुओं को यह बताया कि उनकी संस्कृति विश्व की प्राचीन और महान् संस्कृति है। आर्य समाज ने ‘नमस्ते’ शब्द प्रचलित किया जो आज भारत के अतिरिक्त विदेशों में भी लोकप्रिय है। उन्होंने भारतीयों में राजनीतिक चेतना जाग्रत की। हिन्दुओं में स्वाभिमान एवं देश-प्रेम की भावना को जाग्रत किया। तिलक, लाला लाजपत राय और विपिन चन्द्र पाल जैसे व्यक्ति आर्य समाज के विचारों से प्रभावित थे। निःसन्देह आर्य समाज ने ऐसे कट्टर व्यक्तियों के निर्माण में सहयोग दिया था जो कट्टर हिन्दू धर्म की भावना को लेकर भारतीय राष्ट्रीयता के समर्थक बने।
अपने राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान हमें अनेक ऐसे व्यक्ति प्राप्त हुए जो राजनीतिक आन्दोलन में भाग लेते थे और आर्य समाज के भी सदस्य थे। डॉ. मजूमदार के अनुसार, “आर्य समाज आरम्भ से ही उग्रवादी सम्प्रदाय था। इसका मुख्य स्रोत तीव्र राष्ट्रीयता था।” विपिन चन्द्र पाल के शब्दों में, “यह सत्य है कि पंजाब के हिन्दू नवयुवक ईसाई और मुस्लिम धर्म प्रचारकों के प्रचार का मुकाबला न कर पाने के कारण अपने को असम्मानित अनुभव करते थे। दयानन्द के उपदेशों से उन्हें वह हथियार मिला जिसके द्वारा वे अपने राष्ट्रीय धर्म की तुलना में ईसाई और इस्लाम धर्म की श्रेष्ठता के दावे का मुकाबला कर सकते थे, दयानन्द ने ईसाई और इस्लाम धर्म के प्रचार पर कठोरता से आक्रमण किया, उनकी नैतिक गिरावट को नंगा किया तथा हिन्दू पंजाबियों के सम्मान की भावना को प्रोत्साहन दिया।”
४. साहित्यिक एवं शैक्षणिक क्षेत्र में –
आर्य समाज ने साहित्यिक एवं शैक्षणिक क्षेत्र में भी काफी महत्वपूर्ण कार्य किए। उन्होंने हिन्दी भाषा में पुस्तकें लिखकर हिन्दी भाषा को समृद्ध बनाया। वे नारी शिक्षा के भी प्रबल समर्थक थे। उन्होंने संस्कृत भाषा के महत्व को पुनः स्थापित करने का प्रयास भी किया। वे प्राचीन गुरुकुल प्रणाली के समर्थक थे जिससे विद्यार्थी ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शिक्षा प्राप्त कर सके। उन्होंने शिक्षण संस्थाओं में सभी जाति के बच्चों के साथ समान व्यवहार करने को कहा। दयानन्द की मृत्यु के बाद आर्य समाज शिक्षा के प्रश्न को लेकर दो दलों में विभाजित हो गया। एक दल के नेता लाला हंसराज थे जो कि पश्चिमी शिक्षा के समर्थक थे तथा दूसरे दल के नेता महात्मा मुंशीराम थे वे प्राचीन भारतीय शिक्षा के समर्थक वे मुंशीराम के प्रयासों से 1900 ई. में हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना हुई। यही मुंशीराम आगे चलकर श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए। लाला हंसराज ने भारत में स्थान-स्थान पर डी. ए. बी. के नाम से अनेक स्कूलों एवं कॉलेजों की स्थापना की।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आर्य समाज ने भारत को सामाजिक, धार्मिक, राष्ट्रीय एवं शैक्षणिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसी कारण जबकि ब्रह्म समाज आन्दोलन प्रायः समाप्त हो गया। रामकृष्ण मिशन का प्रभाव मुख्यतया शिक्षित और समाज के उदार वर्ग पर है, आर्य समाज अभी तक न केवल एक जीवित आन्दोलन है बल्कि हमारे समाज के छोटे-से-छोटे और निम्न से निम्न वर्ग तक उसकी पहुँच है।