# ब्रिटिश भारत के किसान (कृषक) आन्दोलन : कारण एवं स्वरूप (Krishak/Kisan Aandolan)

कृषक आन्दोलन (Peasant Movements) :

अंग्रेजी शासनकाल में किसानों की दशा सोचनीय थी। प्रत्येक भूमि बन्दोबस्त (Land Settlement), जो अंग्रेज करते थे, भारतीय किसानों की स्थिति को और खराब कर देता था। नवीन भूमि व्यवस्था के कारण अनेक प्रकार के भूमिपति हो गए थे जिनकी शोषण प्रवृत्ति का शिकार किसान ही होता था। इस प्रकार अंग्रेजों की भूमि व्यवस्था के कारण अब किसानों को सिर्फ अंग्रेजी सरकार से ही नहीं वरन् भूमिपतियाँ के विभिन्न वर्गों से भी संघर्ष करना पड़ता था।

कृषकों की दशा को 1793 ई. के स्थायी बन्दोबस्त ने और खराब कर दिया। इस भूमि बन्दोबस्त (Land Settlement) के द्वारा अंग्रेजों ने न केवल राजस्व को बढ़ाया, वरन् अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए जमींदारों के एक नवीन वर्ग का उदय कर दिया। अंग्रेजी शासनकाल में दो प्रकार की पद्धतियों को लागू किया गया था। प्रथम ‘रैयतवाड़ी पद्धति‘ व दूसरी ‘महालवाड़ी पद्धति‘। महालवाड़ी पद्धति के अन्तर्गत सरकार कृषकों से राजस्व की वसूली जमींदारों के माध्यम से करती थी। रैयतवाड़ी पद्धति के अन्तर्गत सरकार सीधे कृषकों से ही लगान वसूल करती थी। लगान न चुका पाने की स्थिति में किसानों को भूमि से बेदखल कर दिया जाता था। इस प्रकार दोनों ही पद्धतियों में कोई विशेष अन्तर न था और दोनों ही शोषण के सिद्धान्त पर आधारित थीं, परिणामस्वरूप किसानों की शिकायतें निरन्तर बढ़ती रही।

अंग्रेजी सरकार की नीतियों से किसानों की जो दुर्दशा हुई उसमें 19वीं सदी में हुए अनेक अकालों ने और अधिक वृद्धि की इस गम्भीर स्थिति के पश्चात् भी 1934-35 ई. से पूर्व किसानों को व्यापक स्तर पर संगठित करने और उन्हें अपने अस्तित्व के लिए लड़ने में सहायता देने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया। यद्यपि किसानों ने विभिन्न अवसरों पर संगठित होकर विद्रोह किए व आन्दोलनों में भाग लिया, किन्तु ये अल्पकालिक थे।

उदाहरणार्थ– बंगाल व संथाल के गाँवों में हजारों किसानों ने विद्रोह किया। उन्होंने कर देने से इन्कार कर दिया, न्यायालय की अवज्ञा की तथा उपलब्ध हथियारों से लड़े भी, किन्तु इस विद्रोह को दबा दिया गया।

प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में कृषकों की भूमिका –

1857 ई. के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में कृषकों ने भी भाग लिया तथा अपने आक्रोश को प्रदर्शित किया, किन्तु इसके असफल होने के कारण किसानों को अत्यधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा अंग्रेजी सरकार ने अधिकारियों को अधिक अधिकार प्रदान किए तथा 1859 ई. में ‘रेट अधिनियम‘ (Rent Act) लागू किया। इसके अतिरिक्त किसानों से वसूल की जाने वाले लगान को भी बढ़ा दिया गया।

नील विद्रोह –

नील विद्रोह 1859 ई. में हुआ तथा 1860 ई. में यह काफी व्यापक हो गया। बंगाल में नील की खेती करने वाले कृषकों ने अपने अंग्रेज भूमिपतियों के विरुद्ध यह विद्रोह किया था। विद्रोह की व्यापकता को देखते हुए 1860 ई. में ही ‘नील आयोग’ (Indigo Commission) की नियुक्ति की गयी जिसके सुझावों को 1862 ई. के अधिनियम में सम्मिलित किया गया। इस प्रकार किसान अपने उद्देश्य में सफल हुए।

मराठा कृषकों का विद्रोह –

1875 ई. में मराठा कृषकों ने विद्रोह कर दिया। कृषकों ने साहूकारों के घरों व दुकानों पर आक्रमण किए तथा उन्हें जला डाला। सरकार ने इस विद्रोह का कठोरता पूर्वक दमन किया तथा इस विद्रोह के कारणों का पता लगाने के लिए ‘डेकन उपद्रव आयोग‘ (Decan Riots Commission) की स्थापना की। इसके अतिरिक्त 1879 ई. में कृषकों की दशा सुधारने के उद्देश्य से ‘कृषक राहत अधिनियम’ (Agriculturist Relief Act) पारित किया गया, जिससे कृषकों को कुछ सुविधाएँ प्रदान की गयी।

पंजाब के कृषकों में असन्तोष –

भारत के विभिन्न भागों में किसानों द्वारा किए जा रहे विद्रोहों व अपनी खराब स्थिति से पंजाब के किसानों में विद्रोह की भावना बढ़ती जा रही थी। अंग्रेजी सरकार यह नहीं चाहती थी कि अन्य स्थानों के समान पंजाब में भी विद्रोह हो, अतः सरकार ने ‘पंजाब भूमि अतिक्रमण अधिनियम’ (Punjab Land Alientation Act) 1900 ई. में पारित किया, जिसके द्वारा पंजाब के किसानों को कुछ सुविधाएँ दी गयीं।

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन तथा कृषक आन्दोलन –

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 ई. में हुई, किन्तु कांग्रेस ने किसानों की दशा सुधारने के कोई विशेष प्रयत्न न किए। कांग्रेस की इस नीति की आलोचना की गयी। प्रो. एन. जी. रंगा ने कांग्रेस की नीति के विषय में लिखा है, “भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1905-1919 के मध्य भारतीय किसानों के लिए राहत की आवश्यकताओं पर उतना जोर नहीं दिया जितना उसने भारतीय उद्योगपतियों पर दिया था।” भारतीय कांग्रेस ने भारत के कृषकों की खराब स्थिति का तो उल्लेख किया, किन्तु उसको सुधारने के लिए कुछ विशेष न कर सकी।

चम्पारन में विद्रोह –

1917 ई. में महात्मा गाँधी ने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया। गाँधीजी अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष को व्यापक बनाना चाहते थे, अतः उन्होंने गाँवों की जनता तथा किसानों में भी जागृति उत्पन्न करने का प्रयास किया। गाँधीजी के इस कार्य से किसानों में अत्याचारी अंग्रेजी भूमि व्यवस्था के विरुद्ध आन्दोलन करने व संगठित होने का साहस उत्पन्न हुआ। बिहार के चम्पारन जिले में नील की खेती करने वाले किसानों की उनके यूरोपीय मालिकों द्वारा प्रताड़ित किया गया था। गाँधीजी ने कृषकों की स्थिति का अध्ययन किया तथा किसानों को संगठित कर आन्दोलन के लिए प्रेरित किया इस विद्रोह के परिणामस्वरूप, अन्ततः सरकार को झुकना पड़ा तथा ‘तिनकथिया पद्धति’ जिसके अधीन किसानों को अच्छी भूमि उससे छीन ली गयी थी, समाप्त कर दिया गया लगान में वृद्धि को भी सीमित कर दिया गया। इस प्रकार गाँधीजी द्वारा किसानों को संगठित करने के परिणामस्वरूप किसानों की कुछ समस्याएँ अवश्य दूर हो गयीं, किन्तु इससे कोई स्थायी हल न निकल सका।

बारदोली आन्दोलन –

बम्बई सरकार ने लगान में लगभग 25 प्रतिशत की वृद्धि कर दी। इसके विरुद्ध कृषकों ने बारदोली में विद्रोह किया। यह आन्दोलन 1922 ई. में आरम्भ किया गया था, किन्तु 1922 ई. में ही चोरी-चौरा की घटना के कारण असहयोग आन्दोलन के साथ ही यह आन्दोलन समाप्त हो गया। 1928 ई. में बारदोली आन्दोलन पुनः प्रारम्भ हुआ। इस बार इस आन्दोलन का नेतृत्व सरदार पटेल ने किया तथा किसानों की संगठित शक्ति के समक्ष, सरकार को उनकी माँगें मानने के लिए विवश होना पड़ा।

असहयोग आन्दोलन व कृषक –

महात्मा गाँधी ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध 1921 ई. में असहयोग आन्दोलन (Non-co-operation Movements) प्रारम्भ किया। यह आन्दोलन राष्ट्रीय स्तर पर किया गया था तथा कृषकों ने भारी संख्या में इस आन्दोलन में भाग लिया, किन्तु महात्मा गाँधी के द्वारा इस आन्दोलन को अचानक समाप्त किए जाने के कारण यह आन्दोलन असफल ही रहा। इस आन्दोलन से कृषकों को इतना लाभ अवश्य हुआ कि उनमें आन्दोलन करने के साहस में वृद्धि हुई व संगठित होने का प्रयत्न करने लगे।

मोपला विद्रोह –

1921 ई. में मालाबार क्षेत्र में ‘मोपला ‘विद्रोह’ हुआ। दक्षिण भारत में किसानों द्वारा किया गया, यह पहला विद्रोह था। प्रारम्भ में यह अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध था, किन्तु बाद में इसे साम्प्रदायिक रूप दे दिया गया, क्योंकि मोपलों द्वारा कुछ हिन्दू जमींदारों की हत्या कर दी गयी थी।

इस प्रकार 1921 ई. तक कृषकों का कोई संगठन नहीं था। सर्वप्रथम 1923 ई. में रैयत सभा’ तथा ‘किसान मजदूर सभा’ का आविर्भाव हुआ। इसके पश्चात् 1925 ई. ‘कामगार तथा किसान दल’ बना। शीघ्र ही भारत के विभिन्न भागों में इसी प्रकार के अनेक दल बने। 1927 ई. में ‘बिहार किसान सभा’ की स्थापना हुई। बाद में 1934 ई. में सहजानन्द सरस्वती के प्रयत्नों से इस संगठन का विस्तार किया गया। 1936 ई. में ‘अखिल भारतीय किसान सभा’ की स्थापना हुई। यह किसानों के लिए निश्चित रूप से एक उपलब्धि थी, क्योंकि इससे किसान राष्ट्रीय स्तर पर संगठित होने में सफल हुए। इस संगठन ने किसानों की उन्नति के लिए काफी प्रयत्न किए तथा इसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से भी जोड़ने की कोशिश की गई।

कृषकों द्वारा किए गए कुछ अन्य आन्दोलन :

किसानों द्वारा किए गए विभिन्न आन्दोलनों में बंगाल के किसानों द्वारा किया गया ‘तिभागा आन्दोलन‘ प्रमुख है। इस आन्दोलन का नेतृत्व 1936 ई. में स्थापित ‘बंगीय प्रादेशिक किसान सभा’ ने किया। यह आन्दोलन फसल का तीन-चौथाई भाग किसानों को दिए जाने के लिए चलाया गया था। इस आन्दोलन में बंगाल के विभिन्न भागों के कृषकों ने भाग लिया तथा इसने लम्बे समय से सरकार के साथ संघर्ष किया। उत्तरी बंगाल के किसानों ने भी इस आन्दोलन में भाग लिया। इस प्रकार से सम्पूर्ण बंगाल के किसानों ने जमींदारों व सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। यह आन्दोलन स्वतन्त्रता-प्राप्ति तक चलता रहा। तिभागा आन्दोलन के समान ही महत्वपूर्ण एक अन्य आन्दोलन हैदराबाद के निजाम व उनके रजाकारों के विरुद्ध प्रारम्भ किया गया ‘तेलंगाना आन्दोलन’ था। 1946 ई. में किसानों व रजाकारों में जगह-जगह संघर्ष हुए। इस आन्दोलन को जनता का समर्थन मिला व इसने काफी सफलता प्राप्त की।

इस प्रकार स्पष्ट है कि राष्ट्रीय आन्दोलन के समय भारतीय कृषक संगठित न थे। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात्, बल्कि उचित तो यह कहना होगा कि असहयोग आन्दोलन के पश्चात् ही उनमें संगठित होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई, लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि किसानों ने तब कब अपने अधिकारों के लिए संघर्ष ही नहीं किया था। किसानों ने न केवल समय-समय पर आर्थिक व अन्य कारणों से विद्रोह किए, वरन राष्ट्रीय आन्दोलन में भी भाग लेकर देश को स्वतन्त्र कराने का प्रयत्न किया।

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