छत्तीसगढ़ में शरभपुरीय वंश :
लगभग छठी सदी के पूर्वार्द्ध में दक्षिण कोसल में नए राजवंश का उदय हुआ। शरभ नामक नरेश ने इस क्षेत्र में अपनी राजधानी बनाई। राजधानी का नाम उसी के नाम पर शरभपुर रखा गया तथा यह राजवंश शरभपुरीय राजवंश कहलाया।
इस राजवंश के शासकों का सही कालखंड निर्धारण नहीं हो सका क्योंकि इन शासकों द्वारा जारी किए गए ताम्रपत्रों व सिक्कों में किसी सन् या संवत् का उल्लेख नहीं किया गया था। भानुगुप्त के एरण स्तंभलेख से शरभराज का उल्लेख प्राप्त होता है, जो संभवतः शरभपुरीय वंश का संस्थापक था। इस वंश के अधिकांश ताम्रपत्र आरंग और मल्हार क्षेत्र से मिले है।
शरभपुर वंश के नरेश अपने आपको “परमभागवत” कहते थे, अर्थात वे भागवत धर्म (वैष्णव धर्म) के मानने वाले थे। शरभ के उत्तराधिकारी पुत्र नरेंद्र (उपनाम – भरतबल) का नाम कुरूद व पिपरुदुला नामक ताम्रपत्र में मिलते है। इस वंश के सर्वाधिक प्रतापी राजा प्रसन्नमात्र ने अपने नाम से प्रसन्नपुर (मल्हार) नामक नगर की स्थापना कर नई राजधानी बनाई, जो निडिला नदी (लीलागर नदी) के किनारे स्थित था। इन्होंने भारी मात्रा में गरुण, शंख, चक्रयुक्त सोने के सिक्के चलवाए।
प्रसन्नमात्र का उत्तराधिकारी पुत्र जयराज (अन्य नाम – मनमात्र, दुर्गराज) था। मल्हार ताम्रपत्र के अनुसार इन्होंने दुर्ग शहर की स्थापना की। जयराज के बाद प्रवरराज-I शासक बना, इन्होंने श्रीपुर (सिरपुर) को नई राजधानी बनाई। इसके बाद सुदेवराज शासक बना, इसके सामंत का नाम इंद्रबल था जिसका वर्णन कौआताल अभिलेख (महासमुंद) में मिलता है।
सुदेवराज के सामंत इंद्रबल ने सुदेवराज के पुत्र प्रवरराज-II की हत्या कर श्रीपुर (सिरपुर) में पाण्डुवंश की नींव रखी, इस प्रकार इस वंश के अंतिम शासक प्रवरराज-II हुआ। भानुगुप्त के एरण अभिलेख में इस वंश के शासकों का उल्लेख मिलता है।