छत्तीसगढ़ अंचल में काष्ठ कला की परंपरा अत्यंत प्राचीन रही है, यहां के निवासियों में अपनी विभिन्न आवश्यकताओं के लिए काष्ठ के उपयोग के उदाहरण मिलते है। आम व्यक्ति के लिए सुलभ और मनोवांछित आकार बनाने में आसान होने के कारण काष्ठ का उपयोग प्राचीन काल से होता रहा है। छत्तीसगढ़ में भी लकड़ी की प्रचुर मात्रा यहां की प्राकृतिक संपदा के रूप में उपलब्ध रही है इसलिए यहां पर काष्ठ शिल्पकला का सुंदर उदाहरण मिलते हैं।
छत्तीसगढ़ी लोकजीवन में प्रचलित काष्ठ कला कलाकारों के लिए अर्थोपार्जन का स्त्रोत है। लोगों की आवश्यकता के अनुरूप वे अपनी कला का उपयोग अपने शिल्प में करते हैं। छत्तीसगढ़ में मुख्य रूप से तीज त्यौहारों, मेले, मड़ई अवसरों पर काष्ठ शिल्प का निर्माण किया जाता है। इसके अतिरिक्त जो शिल्प बनाए जाते हैं वे दैनिक आवश्यकताओं से जुड़े होते हैं।
छत्तीसगढ़ के काष्ठ शिल्प :
ग्रामीण अंचल में बैलगाड़ियां काष्ठ कला का एक सुंदर उदाहरण है, यह आवागमन व समान ढोने का एक आदिमयुगीन साधन है। इसके पहिए, ढाचा आदि सभी लकड़ी के बने होते हैं।
लोकजीवन में लकड़ी के बने वस्तुओं का बहुताय में प्रयोग की जाती है। जैसे- पीढ़ा, खटिया, माची, हल, कोपर, मचान, लाठी, मकान आदि लकड़ी से ही बनते हैं। चाकू, हंसिया, खेती के औजारों की मुठिया, बांसुरी आदि सभी चीजों में की गई नक्काशीदार, स्तंभ व दरवाजे, देवस्थलों के खंभे भी काष्ठ शिल्प के उदाहरण हैं।
पोला पर्व के अवसर पर बच्चों के लिए खिलौनों में बैल मुख्य रूप से बनाए जाते हैं, जिन्हें आकर्षक रंगों से सजाए जाते हैं।
आदिवासी नर-नारी और सींग मुकुटधारी गंवर नर्तक की कलात्मक मूर्तियां अद्वितीय रहती है। इसके अलावा देवी देवताओं, पशु पक्षियों, बच्चों के खिलौने के रूप में काष्ठ शिल्प देखे जा सकते हैं।
बस्तर के काष्ठ शिल्प-कला :
बस्तर के आदिवासी अंचल में काष्ठ शिल्प के सुंदर उदाहरण मिलते हैं। आदिवासियों की मूर्तियां, उनके देवी देवताओं की मूर्तियां, काष्ठ की कंघियां और तंबाकू की डिब्बियां आदि भी यहां की काष्ठ कला के नमूने हैं।
बस्तर के काष्ठ शिल्पी वहां के आदिवासियों के लिए दशहरा पर्व हेतु भव्य रथ का निर्माण करते है जो पूरी तरह लकड़ी के ही बने होते है। साथ ही माता झूला का निर्माण करते हैं जो कि उनके लिए समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। ये अत्यंत कलात्मक होती है और इनको बनाने के लिए मुख्यतः सागौन, सिवना, सरई आदि के लकड़ी का उपयोग किया जाता है।
बस्तर क्षेत्र की काष्ठ कला में एक अत्यंत प्रचलित उदाहरण यहां बनाए जाने वाले तीर धनुष भी शामिल है। तीर धनुष को ज्यामितीय आकार में बनाकर आकर्षक रूप में सजाया जाता है।
बांस शिल्प में टुकना, टोकरी, सूपा, पर्री, झऊहा आदि के साथ विवाह में उपयोग आने वाली झांपी, पर्रा, बिजना आदि वस्तुएं बनाई जाती है। विवाह मंडप में बांस को मड़वा के रूप में गड़ाने की परम्परा भी है। बांस से लैंप सेड, ट्रे बैग, चित्रित परदा, पेन होल्डर, गुलदस्ता, कुर्सियां, आदि भी बनाई जाती है, ये सुंदर और कलात्मक होती है।
आदिवासियों में बांस के कंघी निर्माण की कला भी परिलक्षित होती है। दंडामी माडिया जनजाति द्वारा बांस से बनाए जाने वाली कंघियां तीन से नौ इंच लंबी होती है। इन कंघियों में घड़ाई के काम के साथ ही रत्नों की जड़ाई, मीनाकारी और अनेक तरीकों से अलंकरण का कार्य किया जाता है। बस्तर की जनजातियों में कंघी प्रेम सौंदर्य के उपादान के रूप में प्रतिष्ठित है।
आदिवासियों के द्वारा बनाए जाने वाले लकड़ी की डिब्बियां, जिनका उपयोग तंबाकू रखने के लिए किया जाता है; लोकजीवन की काष्ठ कला का अनुपम उदाहरण है। इन कलात्मक डिब्बियों में अनेक आकृतियां उकेरी जाती है जो कि कलाकार के नित्य प्रति के अनुभवों और जिज्ञासा को रेखांकित करती है।