जलभरण (वाटरशेड) प्रबंधन :
‘वाटरशेड’ (जलभरण) भूपटल पर एक जल निकास क्षेत्र है जहाँ से वर्षा के फलस्वरूप जल प्रवाहित होते हुए एक बड़ी धारा, नदी, झील या समुद्र में मिल जाती है। वाटरशैड किसी भी आकार का हो सकता है लेकिन इसका प्रबंध जल भू-वैज्ञानिक तरीके एवं प्राकृतिक रूप में होना चाहिए। वाटरशैड आधारित प्रबंध को आज सबसे युक्तिसंगत उपाय माना गया है। इस उपाय के अंतर्गत विकास को सिर्फ कृषि भूमि के लिए ही नहीं, बल्कि विस्तृत और विभिन्न गतिविधियों जैसे भूमि और जल संरक्षण, अनुपजाऊ एवं बेकार भूमि का विकास, वनरोपण, जल संचयन-जिसमें वर्षाकाल संचयन को विशेष महत्व दया जाता है इससे ग्रामीण लोगों को रोजगार उपलब्ध होता है।
वाटरशैड प्रबन्ध का प्रमुख उद्देश्य :
वाटरशैड प्रबन्ध का प्रमुख उद्देश्य निम्न है –
1. प्राकृतिक संसाधनों- भूमि, जल एवं कृषि संपदा का संरक्षण एवं विकास।
2. भूमि की जल को रोकने की क्षमता और उत्पादकता में सुधार।
3. वर्षा जल संचयन एवं पुनर्भरण।
4. हरियाली बढ़ाना जैसे वृक्ष, फसलें एवं घास आदि उगाना।
5. ग्रामीण मानव शक्ति और ऊर्जा प्रबन्ध प्रणाली का विकास।
6. समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार।
वर्तमान समय में वाटरशैड प्रबन्ध को उच्च प्राथमिकता दी जा रही है क्योंकि इससे भूमि को अपरदन से सुरक्षित रखने और उत्पादकता को बढ़ाने में सहायता मिलती है। वाटरशैड प्रबन्ध में भूमि अधिकतम वर्षा जल को रोकने, भूजल के पुनर्भरण में सुधार करने और गाद मिट्टी को कम करने पर विशेष ध्यान दिया जाता है। गाद के कम होने से जलाशयों की भरण क्षमता बढ़ जाती है।
वाटरशेड प्रबन्ध का महत्व एवं विकास :
योजनांतर्गत विकास की अवधि के दौरान खाद्यान्न की कमी को दूर करने और खाद्यान्नों के क्षेत्र में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सिंचाई एवं कृषि की दिशा में अधिकतर प्रयास किए गए थे। इससे देश में सबके लिए आहार का लक्ष्य तो प्राप्त कर लिया गया है, परन्तु विकास की प्रक्रिया से कृषि सामाजिक-आर्थिक और पारिस्थितिकीय क्षेत्रों में गंभीर असंतुलन पैदा हो गए हैं।
नवी पंचवर्षीय योजना के दौरान जल संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार ने सम्पूर्ण देश में स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से वाटरशैड विकास (WSD) योजना कार्यान्वित की है।
इसमें मुख्य रूप से वनारोपण एवं वाटरशैड पर आधारित कृषि भूमि के विकास के लिए अच्छे बीज, उर्वरक, बेहतर कृषि भूमि, उपकरण एवं बेहतर कृषि विज्ञान विधियों का प्रयोग किया जाता है। वास्तव में, व्यापक वाटरशैड विकास कार्यक्रम कृषि विकास एवं उत्पादन बढ़ाने के लिए अधिक प्रभावी पद्धति है। नदियाँ पर्वतीय ढलानों से नीचे आते हुए इन ढलानों की सतही मिट्टी को साथ ले जाती हैं। मैदानी क्षेत्र में आते हुए नदियों की गति गाद के जमने से अवरूद्ध हो जाती है एवं कभी-कभी जब नदी अपने तटों से बाहर बहने लगती है तो इन तटों के आसपास गाद को बिखेर देती है। पर्वतों से आती हुई यह गाद बहुत उपजाऊ और उन कृषकों के लिए वरदान साबित होती है, जिनके खेत ऐसी नदियों के जल से सींचे जाते हैं।
नदी के अंदर गाद के जमने से बाढ़ का खतरा बना रहता है। ढलान की सतही मिट्टी वर्षा के जल से नीचे बह जाती है जिसके विभिन्न कुप्रभाव होते हैं। ढलानों से वनस्पतियाँ हट जाती हैं और ये वर्षा जल के प्रवाह को रोक नहीं पाते जिससे वृक्षों की वृद्धि रूक जाती हैं। इसके परिणामस्वरूप नदी के तल में जमा गाद बाढ़ के कारण बनती है।
सामाजिक-आर्थिक समस्याएँ :
कृषि विकास का लाभ बहुत कुछ सिंचित क्षेत्रों तक ही सीमित है। कृषि विकास की असामनता निम्नलिखित समस्याओं की और हमारा ध्यान आकर्षित करती है –
1. वर्षा जल सिंचित विस्तृत क्षेत्रों में बहुत अधिक बेरोजगारी से गरीबी और उससे जुड़ी समस्याएँ जैसे निरक्षरता, निराशा एवं अशांति बढ़ रही है।
2. वर्षा जल सिंचित पिछड़े प्रदेशों से जनसंख्या के पलायन से शहरी क्षेत्रों में भीड़-भाड़ और झुग्गी-झोपडियों वाली मलिन बस्तियों की समस्या पैदा हो रही है।
इन कृषि, पारिस्थितिकीय और सामाजिक आर्थिक गंभीरताओं का ध्यान में रखते हुए भारत सरकार वर्षा जल सिंचित और सूखे भूमि विस्तृत क्षेत्रों की यह एक अहम् नीतिगत मुद्दा बनाया है, इसके अनुसरण में भारत सरकार के कृषि मंत्रालय ने वर्षा जल द्वारा कृषि क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय वाटरशैड विकास परियोजना का पुनर्गठन किया है।
वाटरशैड विकास कार्यक्रम के उपाय :
किसी भी वाटरशैड प्रबन्ध कार्यक्रम में निम्नलिखित उपाय शामिल होते हैं :-
(1) वनारोपण
(2) चैक बाघ का निर्माण और नाली नियंत्रण
(3) धारा तटों का अपरदन नियंत्रण
(4) वैज्ञानिक कृषि कार्य जैसे कगार बनाना, समोच्च जोताई और पट्टियों में बुआई
(5) नियंत्रित चराई।
इनमें से पहली तीन मदें सामान्यतः सरकारी विभागों जैसे वन एवं कृषि विभाग द्वारा कार्यान्वित की जाती है। वाटरशेड विकास के लिए विभिन्न छोटे वाटरशेड अथवा उप-बेसिन प्रवाहों और नाली आदि को उनकी विशेषताओं के अनुरूप विकसित करने के लिए विभिन्न विषयों का निम्न रूप से समेकित निवेश करना होगा –
(1) प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण
(2) अधिक उत्पादकता
(3) सीमित निधियों के भीतर मानव शक्ति का समन्वय
(4) सामुदायिक भागीदारी।
भारत के संदर्भ में इस तरीके को तीन चरणों में कार्यान्वित किया जा सकता है – जिसके प्रथम चरण में निम्नलिखित बातें महत्वपूर्ण है –
1. भौगोलिक क्षेत्रों का शीघ्र पता लगाना एवं उनका वर्गीकरण तथा प्राथमिकता कार्यक्रम तैयार करना।
2. सुदूर संवेदन एवं अन्य तकनीकों का प्रयोग करते हुए मास्टर प्लान तैयार करना।
3. आधारभूत वैज्ञानिक कार्य जैसे कम्पोस्ट का इस्तेमाल।
4. समुचित लाभकारी तकनीकी निवेश की शुरुवात जैसे बैलों द्वारा हल चलाने और गाड़ी खींचना।
5. सरकार के पास उपलब्ध सभी वाटरशैड सम्बन्धी ऑकटों तक आम आदमी की पहुँच को आसान करना।
6. जन संचार के माध्यम से संबंधित जन-जागरूकता को बढ़ाना और समुचित तकनीकी प्रशिक्षण प्रदान करना।
इसके द्वितीय चरण में निम्न बातों को महत्वपूर्ण माना है-
1. समुचित ग्रामीण प्रौद्योगिक प्रणाली।
2. ऊपरी प्रदेशों / क्षेत्रों का वाटरशैड प्रबंध।
3. निचले प्रदेशों, तटीय क्षेत्रों और अन्य स्थानों में भी इस तकनीक का प्रयोग।
4. क्षेत्रीय डाटा बैंकों का सृजन।
5. सक्षम कृषि औद्योगिक आधारभूत ढोंचों का सृजन जैसे बिजली आपूर्ति, हाईब्रिड सीड्स।
6. वाटरशैड संकल्पनात्मक पहलुओं जैसे खाइयों की लम्बाई और चौड़ाई और बीच के अंतर आदि पर अनुसंधान एवं विकास।
7. वाटरशैड संकल्पना पर एक साथ कानून बनाना और उन्हें लागू करना जैसे किसी वृक्ष को बड़ा होने से पहले काटना आदि ।
इसके तृतीय चरण में निम्न बातों को महत्वपूर्ण माना गया है :-
1. जहाँ संभव हो, विकास के लिए स्थानीय लोगों को वाटरशेड का वितरण करना।
2. प्रत्येक वाटरशेड में तकनीकी इकाइयों की स्थापना करना।
3. उपयुक्त प्रौद्योगिकी अनुप्रयुक्त अनुसंधान और स्वस्थ पर्यावरण को प्राथमिकता देना।
4. संबंधित पहलुओं को केन्द्रीयकृत करने हेतु ‘प्राकृतिक संसाधन मंत्रालय का गठन।
5. लोगों को पिछड़ेपन, सामाजिक अवरोधों और धार्मिक अंधानुकरण से बचाना।
वाटरशैड प्रणाली की आवश्यकता :
समुचित वाटरशैड विकास की समग्र रणनीति अपनाने से भूमि पर कृषि उत्पादनों के साथ-साथ जानवरों का चारा और मिट्टी सुधार की गुंजाइश हो जाती है। भारत में वर्षा जल सिंचन से 77 प्रतिशत भू-भाग पर कृषि होती है, जिसमें देश का 42 प्रतिशत कृषि उत्पादन होता है। वर्षा की मात्रा और समय में अनिश्चिता के कारण कृषि खाद्यानों और अन्य कृषि उत्पादों में अत्यधिक कमी का सामना करना पड़ता है। अतः इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिए वाटरशैड प्रणाली सहित वर्षा जल संरक्षण निम्न कारणों से अति आवश्यक है –
(1) उत्पादकता में कमी
(2) भू-स्खलन से प्राकृतिक प्रकोप की संभावना
(3) हरित पट्टी का अभाव
(4) मनुष्य तथा पशुओं के लिए जल की उपलब्धता
(5) जल निकास नालियों का व्यवहार
(6) कृषि विस्थापन, पानी का खारापन एवं क्षारीयता आदि की विशेष समस्याएँ
(7) खनन कार्यों के कारण उत्पन्न संकट और समस्याएँ ।
निष्कर्ष :
सिंचाई परियोजना के क्रियान्वन के दौरान स्थानीय क्षेत्र की समग्र जल उपलब्धता का आकलन एवं संरक्षण, विशेषकर वर्षाजल संरक्षण, पेयजल, जल की गुणवत्ता, सिंचित क्षेत्र में पानी की निकासी, भू-स्खलन, जल से उत्पन्न बीमारियों, स्वास्थ्य संबंधित समस्याएँ एवं पर्यावरण आदि सभी संभावनाओं का विश्लेषण करके ही परियोना को आकार एवं नियोजन किया जाना चाहिए क्योंकि जल एवं भूमि के समेकित उपयोग और रख-रखाव के जरिए ही कृषि भूमि से विशाल जनता के लिए भोजन जुटाया जा सकता है। इस प्रकार की वाटरशैड योजनाएँ जहाँ जल के कारण उत्पन्न खतरों, रोग और दोषपूर्ण जल के पीने से होने वाले कुप्रभाव से बचाती हैं यहीं कृषि, बागवानी, पशु पालन और पनबिजली के लिए भी जल का उपयोग सुगम हो जाता है।
जल संसाधनों का आयोजन जल वैज्ञानिक इकाई यानि संपूर्ण बेसिन या सब-बेसिन के आधार पर करना चाहिए। इसके लिए राज्यों को इस प्रकार के प्रस्ताव सभी संभावनाओं का आकलन करते हुए एक समेकित वाटरशैड के क्षेत्र में कार्यान्वित करनी चाहिए। तत्पश्चात् उसी किस्म के अथवा उसमें और अधिक बदलाव करके अन्य परियोजनाओं का विकास सारे भारत में उन स्थानों पर करना चाहिए जहाँ जल की कमी है।
अतः उन जल अभावग्रस्त क्षेत्रों के जल संसाधन विकास की दिशा में वाटरशैड प्रबंधन जिसमें भूमि और जल का समेकित उपयोग करके वर्षा जल के समुचित भंडारण द्वारा विशाल जन समुदाय के लिए पेयजल और किसानों को कृषि जल उपलब्ध कराया जा सके। वर्षा जल का संरक्षण करके ही हम अपनी सतही और भू-जल की क्षतिपूर्ति कर पाएँगे। सतही एवं भू-जल के समेकित उपयोग से ही सिंचाई और पेयजल आपूर्ति के राष्ट्रीय लक्ष्य की प्राप्ति में योगदान दिया जा सकता है।