वस्तुनिष्ठता की प्राप्ति में समस्या/कठिनाइयां :
सामाजिक शोध में वस्तुनिष्ठता आवश्यक है। वस्तुनिष्ठता के अभाव में सामाजिक शोध को वैज्ञानिकता की ओर ले जाना असम्भव है। वस्तुनिष्ठता की प्राप्ति कैसे की जाय ? अनेक ऐसी व्यावहारिक कठिनाइयाँ आती हैं, जो वस्तुनिष्ठता की प्राप्ति के मार्ग में बाधा उपस्थित करती हैं। यहाँ सामाजिक शोध में वस्तुनिष्ठता की प्राप्ति में जो व्यावहारिक समस्याएं या कठिनाइयाँ आती हैं, वे अग्र प्रकार हैं-
1. अभिनति के विभिन्न स्रोत
अभिनति की एक कृत्रिम स्थिति बनावटी स्थिति है। इसके कारण सामाजिक शोधकर्ता अध्ययन विषय की घटना को उसके वास्तविक रूप (Real form) में न देखकर पहले से ही निर्धारित उसके काल्पनिक रूप में देखता है। अभिनति वे स्थितियाँ और कारक हैं, जिनके द्वारा घटनाओं को उनके वास्तविक रूप में देखने में बाधा उपस्थित होती है। “जब किसी घटना को उसके वास्तविक स्वरूप में प्रस्तुत न करके बाह्य प्रभावों से उसे रेंगकर प्रस्तुत किया जाता है, तो ऐसा करने की क्रिया को ही अभिनति के नाम से जाना जाता है। इसलिए सामाजिक शोध में अभिनति के समावेश के कारण वस्तुनिष्ठता नहीं आ पाती है। परिणामस्वरूप अध्ययन में वैज्ञानिकता का अभाव पाया जाता है और जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं, उनमें सत्यापन की कमी पाई जाती है। इस प्रकार अभिनति सामाजिक शोध में वस्तुनिष्ठता की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा है।
अभिनति अनेक स्रोतों से आकर शोध में बाधा उपस्थित करती है। अभिनति के प्रमुख स्रोत निम्नलिखित हैं–
(i) शोधकर्ता की अभिनति (Bias of researcher)- सामाजिक शोध में वस्तुनिष्ठता की प्राप्ति में जो महत्वपूर्ण अभिनति बाधा उपस्थित करती है, उसमें शोधकर्ता की स्वयं की अपनी अभिनति महत्वपूर्ण है। इसका मौलिक कारण यह है कि अध्ययनकर्ता अपने को अध्ययन से अलग रखने में असमर्थ होता है। पी. वी. यंग का विचार है कि सामाजिक घटनाओं का शुद्ध अवलोकन सम्भव नहीं है, इसका कारण यह है कि शोधकर्ता की ज्ञानेन्द्रियाँ धोखा खा जाती हैं। शोधकर्ता के अपने संस्कार, विचार, पर्यावरण, संस्कृति, उसकी सामाजिक विरासत, दृष्टिकोण, मनोवृत्तियाँ और राग-द्वेष होते हैं, जो वस्तुनिष्ठता के प्राप्ति के मार्ग में बाधा उपस्थित करते हैं।
(ii) सूचनाओं की अभिनति (Bias of informations)- वस्तुनिष्ठता की प्राप्ति में जो दूसरी अभिनति महत्वपूर्ण होती है, उसका सम्बन्ध सूचनादाताओं से है। सामाजिक शोधों की सत्यता सूचनादाताओं के उत्तर पर ही आधारित होती है। यदि उत्तर वास्तविक न हुए, या किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हुए, तो सही सूचनाएँ प्राप्त करना अत्यन्त ही कठिन कार्य होता है। सूचनादाता कुछ तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं, तो कुछ तथ्यों को झूठा बतलाते हैं। ऐसी स्थिति में यथार्थ तथ्यों की प्राप्ति कठिन हो जाती है।
(iii) निदर्शन की अभिनति (Bias of the sampling)- सामाजिक शोध में निदर्शन का चुनाव करते समय अभिनति से बचना चाहिए। यदि निदर्शन के चुनाव में अभिनति का प्रवेश हो जाता है, तो वस्तुपरक तथ्यों की प्राप्ति अत्यन्त कठिन कार्य हो जाती है। ऐसी स्थिति में जो निदर्शन चुने जाते हैं, वे सामाजिक घटनाओं का वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। इन निदर्शनों की सहायता से जो तथ्य प्राप्त होंगे, वे यथार्थ का वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं करेंगे।
(iv) दोषपूर्ण प्रश्नावली (Faulty questionnaire)- सामाजिक शोध में तथ्यों के संकलन के लिए अनुसूची और प्रश्नावली महत्वपूर्ण होते हैं। शोध में वास्तविकता का पता लगाया जा सके, इसके लिए आवश्यक है कि प्रश्नावली और अनुसूची दोषमुक्त हो। किन्तु किन्तु प्रश्नावली और अनुसूची को दोषमुक्त रखना अत्यन्त ही कठिन कार्य है। प्रश्नों के दोषपूर्ण होने से जो सूचनाएँ प्राप्त होती हैं, उनमें अभिनति का समावेश हो जाता है। जब उत्तर दोषपूर्ण होते हैं तो इन उत्तरों के आधार पर जो तथ्य संकलित किया जाता है, उसका दोषपूर्ण होना नितान्त ही स्वाभाविक है।
(v) तथ्यों का दोषपूर्ण संकलन (Faulty collection of data)- सामाजिक शोध के दौरान ऐसी अनेक ऐसी स्थितियाँ आती हैं, जो शोधकर्ता को गलत सामगी संकलित करने को बाध्य करती हैं। यह दोषपूर्ण संकलन शोध पद्धति के कारण और सूचनादाता की मानसिक स्थिति की उपेक्षा के कारण होता है। कभी-कभी शोधकर्ता आलस्य और अज्ञानता के कारण भी गलत सामग्री का संकलन कर लेता है। ऐसी स्थिति में जो सामग्री संकलित हो जायेगी, निश्चित रूप से दोषपूर्ण होगी।
(vi) तथ्यों की दोषपूर्ण विवेचना (Faulty analysis of data)- जिस सामग्री का संकलन किया गया है, उसकी विवेचना भी दोषपूर्ण हो सकती है। सामाजिक शोध के बाद संकलित तथ्यों का जो वर्गीकरण और सारणीयन (Classification and Tabulation) किया जाता है, वह भी दोषपूर्ण हो सकता है। दोषपूर्ण वर्गीकरण और सारणीयन के कारण अभिनति उत्पन्न हो जाती है।
(vii) दोषपूर्ण सामान्यीकरण (Faulty generalization)- सामाजिक शोध में सामान्यीकरण में तर्कशास्त्रीय (Logical) और सांख्यिकीय (Statistical) पद्धतियों का अत्यधिक महत्व है। इन पद्धतियों का पर्याप्त ज्ञान न होने से जो सामान्यीकरण होगा, वह गलत होगा। अध्ययनकर्ता की पक्षपातपूर्ण भावना भी सामान्यीकरण में अभिनति उत्पन्न करती है।
2. भावनात्मक प्रवृत्तियाँ
सामाजिक शोध सामाजिक जीवन और घटनाओं से सम्बन्धित होता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए इन सामाजिक घटनाओं से व्यक्ति का लगाव और पूर्वाग्रह स्वाभाविक होते हैं। समाज की घटनाएँ सामाजिक मूल्यों (Social values) और आदर्शो (Norms) से सम्बन्धित होती हैं। इन मूल्यों के प्रति व्यक्ति का लगाव उसकी भावनाएँ होती हैं। घटनाएँ गुणात्मक प्रकृति (Qualitative Nature) की होती हैं इनका संख्यात्मक अध्ययन (Quantitative Study) करना कठिन होता है। भावनात्मक प्रवृत्तियाँ व्यक्ति को बाध्य करती हैं और इस प्रकार वस्तुपरकता की प्राप्ति में बाधा उपस्थित होती है।
3. नैतिक पक्षपात
प्रत्येक व्यक्ति के कुछ अपने नैतिक मूल्य होते हैं। ये नैतिक मूल्य व्यक्ति के जीवन और कार्यों के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होते हैं। व्यक्ति इन मूल्यों की रक्षा करता है तथा इनके अनुकूल आचरण करता है। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति इन नैतिक मूल्यों की उपेक्षा करता है, उसके बारे में विरोधी दृष्टिकोण को जन्म देते हैं। यदि कोई ऐसा तथ्य है, जो नैतिक मूल्यों से मेल नहीं खाता है, तो व्यक्ति उस ओर उदासीन दृष्टिकोण अपना लेता है। ऐसी स्थिति में जो सूचनाएँ एकत्रित की जाती हैं, वे एकांगी होती हैं और वस्तुनिष्ठता की प्राप्ति में बाधा उपस्थित करती हैं।
4. सामान्य समझ
प्रत्येक व्यक्ति का ज्ञान और उसकी समझ सीमित होती है। एक व्यक्ति की समझ और ज्ञान को सामान्य समाज की समझ और ज्ञान नहीं माना जा सकता है। जो तथ्य हमारे सामान्य समझ के अनुकूल होते हैं, उन्हें अपना लिया जाता है और जो तथ्य मेल नहीं खाते हैं, उन्हें गलत मान लिया जाता है। ऐसी स्थिति में वास्तविक तथ्यों की जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती है और जो सामग्री संकलित की जाती है, उसमें वस्तुनिष्ठता का अभाव पाया जाता है।
5. सांस्कृतिक पर्यावरण
प्रत्येक व्यक्ति का अपना सांस्कृतिक वातावरण होता है। व्यक्ति जिस सांस्कृतिक वातावरण में पलता है उसी के अनुरूप अपने विचार और दृष्टिकोण निर्मित कर लेता है। सामाजिक शोध के दौरान व्यक्ति जिन तथ्यों को एकत्रित करता है, उन्हें अपनी संस्कृति के अनुरूप समझने का प्रयास करता है। ऐसी स्थिति में वह समाज की घटनाओं का अध्ययन अपने सांस्कृतिक पर्यावरण में करने का प्रयास करता है। वह अनेक प्रयासों के अपने सांस्कृतिक प्रतिमानों में और आदर्शों को सामाजिक घटनाओं से अलग करने में असमर्थ रहता है। ऐसी स्थिति में, वह जो अध्ययन करता उसमें वस्तुनिष्ठता नहीं आ पाती है।
6. शोधकर्ता के निजी स्वार्थ
शोधकर्ता के निजी स्वार्थ भी सामाजिक शोध में वस्तुनिष्ठता की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करते हैं। सामाजिक शोध के द्वारा व्यक्ति जो निष्कर्ष निकालता है, उसमें ऐसा प्रयास करता है कि कहीं उसके स्वार्थों को आघात न पहुँचे। जो निष्कर्ष उसके स्वार्थों के विपरीत होते हैं, व्यक्ति उन्हें स्वीकार नहीं करता है। साथ ही ऐसे तथ्यों को प्राप्त करने का प्रयास करता है, जोकि उस व्यक्ति के हितों और स्वार्थों के अनुकूल होते हैं। ऐसी स्थिति में वस्तुनिष्ठता को रख सकना, उस व्यक्ति के लिए असम्भव होता है।
7. विरोधी पक्षपातों की सम्भावना
यदि शोधकर्ता सामाजिक शोध में पक्षपात से बचने का प्रयास करता है, तो उसे बाध्य होकर उनका विरोध या उनकी आलोचना करनी पड़ती है। इन दो सीमाओं में व्यक्ति यदि किसी का भी चुनाव करता है, तो उसका अध्ययन वैज्ञानिक नहीं हो पाता है। यदि वह पक्षपात न करना चाहे, तो इतना सतर्क रहता है और इतनी तीव्र दृष्टि रखता है कि आलोचना करना उस व्यक्ति के लिए अनिवार्य हो जाता है। ऐसी स्थिति में वस्तुनिष्ठता का प्रश्न ही नहीं उठता है।
8. शीघ्र निर्णय
सामाजिक शोध का सम्पादन वैज्ञानिक पद्धति के द्वारा होता है इसलिए इसमें समय और साहस की आवश्यकता होती है। शोधकर्ता को अत्यन्त ही धैर्य के साथ निष्कर्षों की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। सामाजिक जीवन से सम्बन्धित सभी शोध ज्ञान की प्राप्ति के लिए नहीं किये जाते हैं। कुछ का उद्देश्य तो किसी विशिष्ट समस्या का समाधान करना होता है, ऐसे शोधों का निपटारा शीघ्र करना पड़ता है। निष्कर्षों की शीघ्रता के कारण भी सामाजिक शोध में वस्तुनिष्ठता नहीं आ पाती है।
9. बाह्य हितों द्वारा बाधा
शोधकर्ता के निजी स्वार्थ ही वस्तुनिष्ठता की प्राप्ति में बाधा उपस्थित नहीं करते हैं, अपितु बाह्य कारण और परिस्थितियाँ भी बाधा उपस्थित करती हैं। जब शोधकर्ता अपने ही समूह का अध्ययन कर रहा होता है, तो अनेक बातों के बारे में संक्षिप्त जानकारी देकर वस्तुस्थिति को टालने का प्रयास करता है; जैसे-विवाह के पूर्व लिंग सम्बन्धों की स्थापना, विवाह से पूर्व मातृत्व आदि। इस प्रकार बाह्य हित भी सामाजिक शोध में वस्तुनिष्ठता के मार्ग में बाधा उपस्थित करते हैं।
10. सामाजिक घटना की प्रकृति
अन्त में, सामाजिक घटना की प्रकृति वस्तुपरक अध्ययन के मार्ग में बाधा उपस्थित करती है। सामाजिक घटनाओं की प्रकृति गुणात्मक होती है। उसमें सामाजिक मूल्य, आदर्श, धर्म, नैतिकता आदि तत्व जुड़े रहते हैं। शोधकर्ता इन तत्वों के बारे में वस्तुपरक मत प्राप्त नहीं करता है। इस प्रकार वस्तुनिष्ठता के मार्ग में बाधा उपस्थित होती है।
11. विशिष्ट मूलक भ्रान्ति
डब्लू. आई. थामस के अनुसार, सामाजिक शोध में वस्तुनिष्ठता की प्राप्ति में एक कठिनाई विशिष्टमूलक भ्रान्ति भी है। विशिष्टमूलक धान्ति के कारण शोधकर्ता सामाजिक घटना के किसी एक कारण को आवश्यकता से अधिक महत्व देता है तथा घटना के किसी एक पक्ष को सबसे महत्वपूर्ण मानकर अपर्याप्त तथा असम्बद्ध तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकाल लेता है, जिससे वस्तुनिष्ठता प्राप्ति में कठिनाई आती है।
12. असत्य प्रतिमाएँ
फ्रांसिस बेकन ने विशिष्ट वाक्यांश के द्वारा शोधकर्ता द्वारा किसी शोध में की जाने वाली गलतियों को बतलाया है। फ्रांसिस बेकन के अनुसार, “ये प्रतिमाएँ अनेक प्रकार की होती हैं ;
जैसे-
- गुफा की प्रतिमाएँ (Idols of Cave) अर्थात् वे गलतियाँ, जिन्हें शोधकर्ता अपने संकीर्ण तथा असम्बद्ध विचारों के फलस्वरूप एक घटना या व्यक्ति के सम्बन्ध में कर बैठता है, ये विचार उसके अपने विचार होते हैं अथवा ऐसे होते हैं, जिनके विषय में कोई दूसरा नहीं जानता है।
- न्यायालय या वादपीठ की प्रतिमाएँ (Idols of Forum) अर्थात् शोधकर्ता केवल शब्दों पर अनावश्यक भरोसा करने की गलती कर बैठता है।
- बाजार की प्रतिमाएँ (Idols of the Market place) अर्थात् प्रथा, परम्परा, रूढ़ि इत्यादि पर अनावश्यक बल देने और उसी के आधार पर निष्कर्षों को निकालने की गलती।
- जनजाति की प्रतिमाएँ (Idols of the Tribe) अर्थात् शोधकर्ता किसी वस्तु या घटना को अपने ही ढंग से देखने या विचारने की गलती करता है।
अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण या जीवन के सम्बन्ध में अपने सीमित ज्ञान के बाहर निकलकर कुछ निष्कर्ष निकालना अक्सर शोधकर्ता के लिए कठिन होता है। इस असत्य प्रतिमाओं के कारण वस्तुनिष्ठता की प्राप्ति में मुश्किल होती है।”