स्थिति एवं भूमिका :
स्थिति तथा भूमिका, समाजशास्त्र में सामाजिक संबंधों के अध्ययन के एक खास विषय है। समाज में मनुष्य की विभिन्न क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। हम अपने दैनिक जीवन में विभिन्न लोगों के साथ मिलते हैं। उनके साथ संबंध स्थापित होते हैं। संबंध को स्थापित करते समय हम व्यक्ति विशेष के स्थान और उसके भूमिका से भी अवगत होते हैं। जैसे ही हमें पता चलता है कि जिस व्यक्ति के साथ हम संबंध बना रहे हैं वह व्यक्ति डॉक्टर, प्रोफेसर, वकील या राजनेता हैं तो उसी के अनुरूप हम अपने व्यवहार को नियंत्रित करते हुए उससे मिलने की तैयारी करते हैं। इसके साथ ही समाजशास्त्र में हम वैसी परिस्थितियों का भी अध्ययन करते हैं, जब व्यवहार के बारे में पहले से कुछ तैयारी नहीं की जाती अचानक या फिर अनायास ही हमें परिस्थितियों के अनुरूप व्यवहार में परिवर्तन लाना पड़ता है। इन परिस्थितियों तथा अंतःसंबंध के विभिन्न पद्धतियों के संदर्भ में भूमिका तथा स्थिति का अध्ययन निश्चय ही काफी दिलचस्प प्रतीत होता है।
जहाँ तक भूमिका का प्रश्न है किंगस्ले डेविस के अनुसार इसका आकलन व्यक्ति के स्थान से लगाया जाता है। अगर उस व्यक्ति का स्थान ऐसा है कि उसे ही एक टीम का नेतृत्व करना है तो ऐसी स्थिति में उसकी जिम्मेवारी बढ़ जाती है और उसकी भूमिका में भी अपेक्षित बदलाव देखा जा सकता है जो अन्य टीम के सदस्यों की तुलना में बिल्कुल ही अलग हो सकता है।
इस प्रकार व्यक्ति के स्थान को ध्यान में रखकर ही उस व्यक्ति की भूमिका का आकलन किया जा सकता है। इस प्रकार किंग्सले डेविस के शब्दों में किसी व्यक्ति की भूमिका का अंदाज हम उसके वास्तविक रूप की स्थिति को ध्यान में रखकर लगा सकते हैं अर्थात जिस प्रकार वह अपने स्थिति के अनुरूप कार्य करता है वह उसके भूमिका का द्योतक है। इसीलिए भूमिका को किंग्सले डेविस ने स्थिति का “गतिशील पहलू” कहा है। परंतु स्थिति के अतिरिक्त और भी कई ऐसे पहलू हैं जो व्यक्ति की भूमिका को निर्धारित व नियंत्रित करते हैं। सामाजिक बनावट के दृष्टिकोण से जब हम भूमिका पर विचार करते हैं तो उसमें सदैव एक प्रकार का नयापन और अनुमान नहीं लगा पाने में दुविधा रहती है। जब हम एक नेता को चुनकर संसद या विधान सभा में भेजते हैं तो हम उम्मीद करते हैं कि वह किस प्रकार काम करेगा परंतु संभव है वह नेता हमारे उम्मीद के ही अनुरूप काम न करें। इसीलिए भूमिका के बारे में कोई भी भविष्यवाणी या पूर्वानुमान लगाना एक पहेली है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भूमिका से हमारा अभिप्राय है ‘व्यक्ति विशेष का अपने स्थिति व स्थान के आधार पर प्रतिबद्ध होकर काम करना।’
एक व्यक्ति की भूमिका उसके निजी गुणों पर नहीं वरन् उसके सामाजिक स्थान से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए एक शिक्षक का व्यवहार उसके व्यक्तिगत गुणों के बजाय उसके सामाजिक स्थिति के कारण संचालित होता है। इसीलिए वह अपने स्थिति को ध्यान में रखकर तथा समाज से प्रभावित होकर वह कार्य करता है।
व्यक्ति के भूमिका को लेकर समाजशास्त्र में ही दो विचारों को सैद्धान्तिक आधार पर मान्यता प्राप्त है। पहला व्यवस्थित प्रयोग जार्ज हबर्ट मीड ने 1934 में किया। उनके अनुसार भूमिका अंतःसंबंधों की प्रक्रिया में देखने को मिलता है। इसे अपनाकर लोग संचालित करते हैं। मीड ने इस बात का खुलासा किया कि अपने व्यवहार को भूमिका सीखा जाता है। मनुष्य उस समाज का एक अंग बनकर अपनी भूमिका की पहचान करता है और उसी के अनुरूप कार्य संपादित करता है। बच्चों में खासकर काल्पनिक रूप में भूमिका को निर्वाह करने की क्षमता होती है। कल्पना के द्वारा एक बच्चा डाक्टर, टीचर, वकील, जज और नेता की भूमिका को बेखुबी अपनाकर उसके अनुरूप काम करता है। प्रत्येक भूमिका दूसरे व्यक्ति के भूमिका के संदर्भ में होती है। भूमिका जान-बूझकर निर्वाह भी सामाजिक क्षेत्र में होता है। हम अपने सामाजिक जीवन में हमेशा दूसरे के भूमिका के बारे में विचार करते हैं। दूसरे की भूमिका के आधार पर हम अपनी भूमिका को नियंत्रित करते हैं। सामाजिक अंतर्क्रियावादी सिद्धान्त के पक्षधर यह मानते हैं कि भूमिका का निष्पादन मनुष्य के व्यवहार को स्थायित्व प्रदान करता है। इसलिए सामाजिक क्षेत्र में जो लोग इन भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं उनके व्यवहार में एकरूपता देखी जा सकती है।
इसके साथ ही जो दूसरा सिद्धान्त देखने को मिलता है वह राल्फ लिटन (1936) के नाम से जुड़ा है और जिसे प्रकार्यवादी सिद्धान्त से जोड़कर देखा जाता है। इस विचार के समर्थक यह मानते हैं कि भूमिका सदैव प्रस्तावित होता है जिसका सीधा संपर्क उस समाज के संस्कृति से होता है। इस संस्कृति से जुड़े हुए विचार के अनुसार भूमिका को हमेशा दूसरी भूमिका के संदर्भ में पहचाना जा सकता है। व्यक्ति हमेशा संस्कृति द्वारा परिभाषित भूमिका की जानकारी रखते हैं और उसी के अनुरूप अपनी भूमिका को नियंत्रित करते हैं।
कई परिस्थितियों में व्यक्ति को ऐसी भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है जो उसके ऊपर दबाव डालते हैं जिसके कारण दो या दो से अधिक भूमिका का निर्वाह करते हुए भूमिका संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। दो या दो से अधिक ऐसी भूमिकाओं के बीच विसंगति तथा विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिससे भूमिका-संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कई बार दोस्त के नारों या परिवार के रिश्ते के नाते असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है। व्यक्ति अपने औपचारिक कार्य के निष्पादन में दोस्ती या रिश्तेदारी का फर्ज अदा करने में अपने आप को असमर्थ पाता है।
कुछ ऐसे भी क्षण आते हैं जब व्यक्ति निर्णय लेने में अपने आप को असमर्थ पाता है। परंतु कुछ क्षेत्र जैसे मिलेटरी में अनुशासन या नियमों को इतना कठोर बना दिया जाता है कि कोई भी व्यक्ति फैसला लेते समय नियमों की मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर पाता है। अर्थात् ऐसे परिस्थिति में जो ऑफ़िस की भूमिका है वह इतनी प्रभावी होती है कि व्यक्तिगत दबाव का उन पर कोई असर नहीं हो पाता और ऐसे क्षणों में अपने आप भूमिका से दूरी बनाने में व्यक्ति सफल हो पाता है। फिर भी यहां यह ध्यान रखना आवश्यक होगा कि किसी भी अंतःसंबंध की क्रिया में इस प्रकार से दबाव तथा विसंगति सरंचनात्मक तत्वों के साथ जुड़े होते हैं।
स्थिति का अभिप्राय है व्यक्ति द्वारा एक स्थान पर बने रहने से जो व्यक्ति को या तो ऑफिस अनौपचारिक रूप से मिलता है या फिर उस समाज के द्वारा उसे दिया जाता है। किसी-किसी समाज में स्थान ब स्थिति व्यक्ति के वहाँ के रीति रिवाजों या रूढ़िवादी परंपराओं द्वारा मिली होती है। एक जज को वह पद उसे ऑफिस के द्वारा मिला होता है परंतु अगर वह निम्न वर्ग, अश्वेत हो तो उसे समाज में उसी के अनुरूप वह स्थान नहीं मिल पाता है। अर्थात् श्वेत होना या ब्राह्मण जाति का होना उसकी स्थिति को समाज में निर्धारित करता है। अर्थात् कुछ स्थान व्यक्ति को औपचारिक तरीके से मिलते हैं और कुछ अनौपचारिक तरीके से मिलते हैं। औपचारिक तरीके से एक हरिजन संसद का सदस्य चुना जा सकता है परंतु आधार पर यह हरिजन एक ब्राह्मण लड़की से विवाह नहीं कर सकता है।
इस प्रकार यह समझना आवश्यक है कि किस आधार पर कुछ लोगों को तथा स्थितियों स्थान प्रदत्त होता है और कुछ लोगों का तथा स्थितियों में वह स्थान अर्जित होता है। प्रदत्त तथा अर्जित स्थिति दो अलग अवधारणा है जिसे समझना आवश्यक है।
इस प्रकार यह समझना आवश्यक है कि किस आधार पर कुछ लोगों को तथा स्थितियों में स्थान प्रदत्त होता है और कुछ लोगों का तथा स्थितियों में वह स्थान अर्जित होता है। प्रदत्त तथा अर्जित स्थिति दो अलग अवधारणा है जिसे समझना आवश्यक है –
(क) प्रदत्त स्थिति के आधारभूत तत्व :
प्रदत्त स्थिति का आधार व्यक्ति में निहित होता है। यह माना जाता है कि व्यक्ति में कुछ प्राकृतिक गुण ऐसे हैं जिसके कारण उस व्यक्ति को वह स्थान दिया जा सकता है। यह भी माना जाता है कि व्यक्ति के अन्दर वह गुण पहले से ही विद्यमान है जिसके लिए किसी परीक्षण व निरीक्षण की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार के स्थिति के कुछ आधार होते हैं जो निम्न हैं –
1. जन्म
ये स्थिति व्यक्ति को जन्म से मिली होती है। जन्म ही किसी व्यक्ति के स्थान का निर्धारण करता है। राजा के यहां हुआ उसका पुत्र राजा के मरणोपरांत राजा बनाया जायेगा। जाति में भी जन्म से ही कुछ लोग ब्राह्मण व निम्न जाति में जन्म लेते हैं और जन्म से ही उनके परस्पर स्थिति अलग-अलग हो जाते हैं। जन्म से ही एक बच्चा या तो पुरुष होता है या स्त्री। इस प्रकार लिंग के आधार पर भी जो अंतर पाया जाता है वह जन्म से ही निश्चित हो जाता है।
यहां यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इन स्थिति को न्यायोचित व वैध नहीं बताया जा रहा। यहां सिर्फ इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है कि समाज में कुछ ऐसे प्रतिमान हैं जिसके कारण एक व्यक्ति को उच्च व निम्न स्थान जन्म से मिलता है। इन स्थितियों के निर्वाह में कितने सफल होंगे इसका सूचक उनकी स्थिति से लगाना गलत होगा। अतः उनके स्थिति से उनके क्षमता व गुणों के बारे में कुछ भी अन्दाज नहीं लगाया जा सकता है।
2. आयु
आयु के आधार पर कुछ ऐसे लोगों को एक खास स्थान मिलता है। आदिवासी समाज में उम्र के आधार पर वृद्ध लोगों को निर्णय लेने का अधिकार मिला होता है। मैक्स वेबर ने इसे पितृसत्तात्मक परिवार से जोड़कर इसे आनुवांशिक या पैतृक अधिकार की संज्ञा दी है। इसी प्रकार मातृसत्तात्मक परिवार में वृद्ध महिलाओं के आनुवांशिक अधिकार हो सकते हैं।
आर 0एच0 लोवी ने मसाई समुदाय के आयु संबंधित स्थिति का विस्तार से वर्णन किया है और बताया है कि किस प्रकार आयु या उम्र से उस समाज में लोगों को स्थिति मिला होता है।
3. स्वजन
स्वजन या नातेदारी भी व्यक्ति के स्थिति का एक महत्वपूर्ण सूचक होता है। एक बच्चा आनुवांशिक स्थिति के आधार पर इस अधिकार का प्रयोग करता है जिसे समाज द्वारा मान्यता मिली होती है। उदाहरण के लिए यह कहा जा सकता है कि भारतीय समाज में रक्त संबंधी रिश्तेदारों की स्थिति विवाद से जुड़े रिश्तेदारों के मुकाबले उच्च मानी जाती है। इसे वैध ठहराना कहां तक उचित है यह अलग बात है परन्तु यहाँ पर यह समझना ही काफी है कि नातेदारी भी स्थिति में अंतर का कारण हो सकता है।
(ख) अर्जित स्थिति :
ये स्थिति ऐसे हैं जहाँ व्यक्ति अपने क्षमता, गुणों से अपना स्थान प्राप्त करते हैं। एक व्यक्ति सफल व्यापारी, उद्योगपति अपने गुणों के आधार पर बनता है जो उसे जन्म के आधार पर नहीं मिला होता है बल्कि इसे वह व्यक्ति अपने गुणों के आधार पर मेहनत के द्वारा हासिल करता है। प्रायः आधुनिक समाज में व्यक्ति यह स्थान अपने मेहनत से हासिल करता है। परन्तु परंपरागत समाज तथा आदिवासी समाज में लोगों को उनका स्थान जन्म के द्वारा प्रदत्त होते हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि स्थिति में विविधता या भिन्नताओं के आधार अलग-अलग हो सकते हैं।