छत्तीसगढ़ राज्य अपनी सांस्कृतिक धरोहर और खनिज संपदा के साथ-साथ अपनी उपजाऊ मिट्टी और कृषि आधारित जीवन शैली के लिए भी जाना जाता है। यहाँ की लगभग 80% आबादी गाँवों में बसती है और उनकी जीविका का मुख्य साधन कृषि है। कृषि की सफलता का आधार मिट्टी पर निर्भर करती है, और इस दृष्टिकोण से छत्तीसगढ़ अत्यंत विविधतापूर्ण है। भौगोलिक स्थिति, जलवायु, बारिश, खनिजों और पेड़-पौधों के आधार पर छत्तीसगढ़ में अलग-अलग तरह की मिट्टी पाई जाती है।
मिट्टी के निर्माण में सहायक कारक :
मिट्टी का निर्माण एक दीर्घकालिक और जटिल प्रक्रिया है, जिसमें कई प्राकृतिक तत्व मिलकर मिट्टी को आकार देने में योगदान देते हैं:
1. मूल शैल (Parent Rock): मिट्टी का स्वभाव कैसा होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस चट्टान से बनी है। चट्टान के रासायनिक गुण मिट्टी में उतर आते हैं।
2. जलवायु (Climate): बारिश, गर्मी और नमी – ये सब मिलकर मिट्टी के बनने और बिगड़ने (क्षरण) की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं।
3. वनस्पति और जैविक तत्व: पेड़-पौधों के पत्ते और सूक्ष्म जीव मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं। ये मिट्टी में ह्यूमस (Humus) की मात्रा बढ़ाते हैं, जो पौधों के लिए बहुत ज़रूरी है।
4. समय: मिट्टी बनने में अधिक समय लगता है। यह प्रक्रिया लाखों साल तक चल सकती है। धीरे-धीरे ही चट्टानें मिट्टी में बदलती हैं।
5. स्थलाकृति (Topography): जमीन कैसी है, ऊंची है या नीची, ढलान कैसा है – इससे पानी का बहाव और मिट्टी का कटाव प्रभावित होता है। इसलिए, मिट्टी सिर्फ मिट्टी नहीं है, यह एक जटिल और अद्भुत चीज है!
छत्तीसगढ़ की प्रमुख मिट्टियां :
छत्तीसगढ़ में मुख्यतः पाँच प्रकार की मिट्टियां पाई जाती है –
- काली मिट्टी (कन्हार मिट्टी)
- लाल और पीली मिट्टी (मटासी मिट्टी)
- बलुई मिट्टी (लाल रेतीली मिट्टी)
- लाल दोमट मिट्टी
- लैटराइट मिट्टी (मुरुमी या भाठा मिट्टी)
#अन्य – डोरसा मिट्टी : यह कन्हार मिट्टी और मटासी मिट्टी का का समिश्रण होता है। इसका रंग पीला और भूरा होता है।
इन सभी मिट्टियों का उपयोग कृषि कार्यों में होता है, साथ ही प्रत्येक की अपनी भिन्न विशेषताएँ और उपयोगिता है;
1. काली मिट्टी (कन्हार मिट्टी) :
काली मिट्टी, जिसे “भर्री”, “रेगुर”, “कन्हार” या “कपास वाली मिट्टी” के नाम से भी जाना जाता है, छत्तीसगढ़ के प्रमुख और अत्यंत उपजाऊ मिट्टियों में से एक है। इस मिट्टी के काले रंग इसमें उपस्थित टिटेनिफेरस मैग्नेटाइट और जैव तत्वों की उपस्थिति का परिणाम है। यह मिट्टी विशेष रूप से उन क्षेत्रों में पाई जाती है जहाँ प्राचीन ज्वालामुखी गतिविधियों के कारण बेसाल्ट चट्टानों का विघटन हुआ है।
भौगोलिक विस्तार
छत्तीसगढ़ में इस मिट्टी का विस्तार मुख्यतः मुंगेली, पंडरिया, और राजनांदगांव जिले के कुछ भागों में पाया जाता है। छत्तीसगढ़ में इसे विशेष रूप से “कन्हार” मिट्टी के नाम से ही जाना जाता है, जो राज्य के मैदानी क्षेत्रों और घाटियों में देखने को मिलती है।
रचना और विशेषताएँ
1. रंग और बनावट: इसका रंग गहरा काला से लेकर हल्का ग्रे हो सकता है। बनावट में यह भारी और चिकनी होती है।
2. जल धारण क्षमता: इसमें अत्यधिक जल धारण क्षमता होती है, जो शुष्क क्षेत्रों में खेती के लिए इसे अनुकूल बनाती है।
3. फटने और सिकुड़ने की प्रवृत्ति: सूखने पर यह मिट्टी सिकुड़कर गहरे दरारें बना लेती है, जो इसके प्राकृतिक गुणों में शामिल है।
4. खनिज तत्व: इसमें चूना, मैग्नीशियम, लोहा, कैल्शियम और पोटाश की पर्याप्त मात्रा होती है, लेकिन फॉस्फोरस की मात्रा कम होती है।
उपयुक्त फसलें
काली मिट्टी कपास की खेती के लिए विश्वविख्यात है, इसलिए इसे “कपास वाली मिट्टी” भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त इसमें ज्वार, बाजरा, गेहूं, मूंगफली, अरहर, तिलहन, सोयाबीन, सूरजमुखी, गन्ना, चना और कई प्रकार की सब्जियाँ सफलतापूर्वक उगाई जाती हैं। सिंचाई की सुविधा होने पर इसमें धान की भी अच्छी पैदावार होती है।
कृषि की दृष्टि से महत्व
काली मिट्टी की सबसे बड़ी विशेषता इसकी जल धारण क्षमता है, जिससे यह वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में भी खेती को संभव बनाती है। यह धीरे-धीरे नमी छोड़ती है, जिससे पौधों को लंबे समय तक जल उपलब्ध रहता है। इसकी उर्वरता लम्बे समय तक बनी रहती है, लेकिन इसमें जैविक पदार्थों की मात्रा बढ़ाने के लिए गोबर खाद और अन्य जैविक उर्वरकों का उपयोग लाभदायक होता है।
2. लाल और पीली मिट्टी (मटासी मिट्टी) :
छत्तीसगढ़ में लाल और पीली मिट्टी मुख्यतः गोंडवाना क्रम के कायांतरित और आग्नेय चट्टानों के अपक्षय (weathering) से उत्पन्न हुई है। ये मिट्टियाँ विशेष रूप से संपूर्ण छत्तीसगढ़ में पाई जाती हैं। वन क्षेत्र वाले इलाकों में इन मिट्टियों का अधिक विस्तार है।
रचना और रंग का कारण
लाल और पीली मिट्टी में लौह ऑक्साइड (Iron Oxide) की अधिकता होती है। जब यह लौह तत्व पूरी तरह से ऑक्सीकरण हो जाता है, तो मिट्टी का रंग लाल हो जाता है। वहीं जब ऑक्सीकरण की प्रक्रिया अधूरी होती है, तो मिट्टी का रंग पीला दिखाई देता है। इस कारण ये दोनों मिट्टियाँ एक-दूसरे से संबंधित होती हैं।
भौतिक और रासायनिक विशेषताएँ
1. बनावट: इनकी बनावट दोमट से लेकर रेतीली दोमट तक हो सकती है।
2. जलधारण क्षमता: यह मिट्टी पानी को अधिक समय तक रोक नहीं पाती, अतः सिंचाई की आवश्यकता होती है।
3. खनिज तत्व: इसमें पोटाश और आयरन की मात्रा अच्छी होती है, लेकिन नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और ह्यूमस की कमी होती है।
4. प्राकृतिक उर्वरता: इसकी उर्वरता मध्यम होती है, लेकिन जैविक खाद और उर्वरकों के प्रयोग से इसमें अच्छी पैदावार ली जा सकती है।
उपयुक्त फसलें
छत्तीसगढ़ में लाल और पीली मिट्टी पर धान, मूंगफली, कोदो-कुटकी, अरहर, चना, मक्का, तिलहन, तथा सब्जियाँ प्रमुखता से उगाई जाती हैं। जहाँ सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होती है, वहाँ गेहूं और सब्जियों की अच्छी खेती की जाती है। बस्तर और दक्षिणी जिलों में पारंपरिक झूम खेती (shifting cultivation) भी इसी मिट्टी पर होती है।
कृषि संबंधी सुझाव
इस मिट्टी में नमी जल्दी समाप्त हो जाती है, इसलिए बार-बार सिंचाई आवश्यक होती है। साथ ही, जैविक खाद और हरी खाद का उपयोग करके इसकी उर्वरता को बनाए रखा जा सकता है। मिट्टी संरक्षण की दृष्टि से समोच्च खेती (contour farming) और मल्चिंग जैसे उपाय लाभकारी सिद्ध हो सकते हैं।
3. बलुई मिट्टी (लाल रेतीली मिट्टी) :
छत्तीसगढ़ राज्य विविध भौगोलिक और भौमिकी संरचना के कारण कई प्रकार की मिट्टियों से परिपूर्ण है। इन विभिन्न मिट्टियों में बलुई मिट्टी या लाल रेतीली मिट्टी का भी एक विशिष्ट स्थान है। यद्यपि यह मिट्टी अत्यधिक उपजाऊ नहीं मानी जाती, फिर भी उचित तकनीकी उपायों के माध्यम से इसका कृषि में उपयोग किया जा सकता है।
भौगोलिक विस्तार
छत्तीसगढ़ में बलुई मिट्टी मुख्यतः राजनांदगांव, कांकेर, नारायणपुर, कोण्डागांव, बस्तर, दंतेवाड़ा और सुकमा आदि जिलों के कुछ क्षेत्रों में पाई जाती है। यह मिट्टी नदियों के किनारे, पुराने नदी मार्गों और जलोढ़ मैदानों में पाई जाती है।
उत्पत्ति और संरचना
बलुई मिट्टी का निर्माण मुख्यतः ग्रेनाइट व निस चट्टानों के भौतिक अपक्षय और नदियों द्वारा लाई गई जलोढ़ सामग्री से होता है। यह मिट्टी हल्की, दानेदार और झरझरी होती है, जिसमें जल निकासी क्षमता अधिक होती है। इसकी बनावट में 70-80% रेत, 10-15% गाद और बहुत कम मात्रा में चिकनी मिट्टी होती है।
भौतिक एवं रासायनिक विशेषताएँ
1. जल धारण क्षमता: यह मिट्टी जल को अधिक देर तक रोक नहीं पाती, जिससे सिंचाई की आवश्यकता अधिक होती है।
2. उर्वरता: इसमें जैविक पदार्थ ह्यूमस, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश की मात्रा सामान्यतः कम होती है।
3. हवादार प्रकृति: इसकी संरचना इसे अत्यधिक हवादार बनाती है, जिससे पौधों की जड़ें आसानी से साँस ले सकती हैं।
4. सतही तापमान: गर्मी के दिनों में यह मिट्टी जल्दी गर्म हो जाती है, जिससे यह कुछ खास किस्म की फसलों के लिए उपयुक्त बन जाती है।
उपयुक्त फसलें
छत्तीसगढ़ में बलुई मिट्टी पर शाक-सब्जियाँ, तरबूज, खरबूजा, आलू, प्याज, लहसुन, मूंगफली, तिल, और कुछ दलहनी फसलें जैसे मूंग व उड़द उगाई जाती हैं। यदि सिंचाई की अच्छी व्यवस्था हो, तो धान जैसी फसलों की खेती भी की जा सकती है, विशेषकर गर्मी या रबी मौसम में।
कृषि संबंधी सुझाव
- इस मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए जैविक खाद, हरी खाद, और कंपोस्ट खाद का नियमित प्रयोग आवश्यक है।
- मल्चिंग (mulching) जैसी तकनीकें नमी को संरक्षित रखने में सहायक हो सकती हैं।
- सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली (drip irrigation) का उपयोग पानी की बचत के साथ बेहतर उत्पादन में सहायक हो सकता है।
- मृदा परीक्षण कर उपयुक्त उर्वरकों का चयन करना लाभदायक रहेगा।
4. लाल दोमट मिट्टी :
लाल दोमट मिट्टी मुख्यतः लोहे के ऑक्साइड की अधिकता के कारण लाल रंग की होती है। इसमें रेत, गाद और चिकनी मिट्टी का संतुलित मिश्रण पाया जाता है, जिससे इसकी जल धारण क्षमता अच्छी होती है। यह मिट्टी मध्यम से भारी बनावट की होती है और इसमें जैविक पदार्थों की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है, लेकिन अगर इसे सही तरीके से जैविक खाद और उर्वरकों से संवर्धित किया जाए, तो यह अत्यंत उपजाऊ सिद्ध हो सकती है।
भौगोलिक विस्तार
छत्तीसगढ़ में लाल दोमट मिट्टी का विस्तार मुख्यतः कांकेर, दंतेवाड़ा, सुकमा, बस्तर, और कोंडागांव जैसे जिलों में देखा जाता है। यह मिट्टी सामान्यतः पठारी इलाकों, ढलानों, वनों के किनारे और पर्वतीय क्षेत्रों के समीप पाई जाती है।
गुण और विशेषताएँ
1. रंग: इसका लाल रंग इसके भीतर उपस्थित लौह तत्वों के कारण होता है। कहीं-कहीं यह पीली या भूरी भी हो सकती है।
2. जल निकासी: इस मिट्टी की जल निकासी क्षमता अच्छी होती है, जिससे इसमें जल जमाव की समस्या कम होती है।
3. जल धारण क्षमता: दोमट मिट्टी होने के कारण यह नमी को लंबे समय तक सुरक्षित रख सकती है।
4. उर्वरता: इसकी प्राकृतिक उर्वरता मध्यम होती है, लेकिन उचित प्रबंधन से इसे सुधार कर अच्छी उपज ली जा सकती है।
फसलें
लाल दोमट मिट्टी में विभिन्न प्रकार की फसलें सफलतापूर्वक उगाई जा सकती हैं। विशेष रूप से इसमें धान, चना, मक्का, कोदो-कुटकी, अरहर, तिलहन, गेंहूं, सब्जियाँ और दलहन वर्ग की कई फसलें अच्छी तरह से उगती हैं।
कृषि संबंधी चुनौतियाँ
हालाँकि यह मिट्टी कई फसलों के लिए उपयुक्त है, फिर भी इसकी उर्वरता बनाए रखने के लिए समय-समय पर जैविक खाद, हरी खाद, और सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। अधिक उपयोग से यह मिट्टी कठोर हो सकती है, जिससे जल अवशोषण क्षमता घट सकती है।
5. लैटराइट मिट्टी (भाठा मिट्टी) :
लैटराइट मिट्टी का निर्माण उच्च तापमान और अधिक वर्षा की परिस्थितियों में चट्टानों के दीर्घकालिक रासायनिक अपक्षय (chemical weathering) से होता है। छत्तीसगढ़ में यह मिट्टी मुख्यतः सरगुजा जिले के मैनपाट पठार के दक्षिणी भाग तथा उससे जुड़े बिलासपुर, कोरबा, जांजगीर, दुर्ग, बेमेतरा तथा बस्तर संभाग में जगदलपुर के आस-पास पाई जाती है। इसके अलावा कुछ मात्रा में यह मिट्टी गरियाबंद और महासमुंद जिलों के ऊँचे भागों में भी मिलती है।
मुख्य विशेषताएँ
1. रंग और बनावट: लैटराइट मिट्टी का रंग सामान्यतः गहरा लाल से भूरे रंग का होता है। इसका कारण इसमें अधिक मात्रा में उपस्थित लौह ऑक्साइड और एल्युमिनियम ऑक्साइड होते हैं। इसकी बनावट कठोर और कभी-कभी चट्टानी होती है।
2. जलधारण क्षमता: यह मिट्टी जल को अधिक समय तक नहीं रोक पाती, जिससे इसमें बार-बार सिंचाई की आवश्यकता होती है।
3. उर्वरता: प्राकृतिक रूप से यह मिट्टी अत्यधिक उर्वर नहीं होती, क्योंकि इसमें जैविक पदार्थ, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश की मात्रा कम होती है। लेकिन उचित खाद और उर्वरकों के प्रयोग से इसमें अच्छी खेती संभव है।
4. अम्लीयता: यह मिट्टी प्रायः अम्लीय प्रकृति की होती है, जिससे कुछ फसलें इसमें ठीक से नहीं पनपतीं जब तक उसका संशोधन न किया जाए।
कृषि में उपयोग
छत्तीसगढ़ में लैटराइट मिट्टी पर मक्का, अरहर, तिलहन, कंद-मूल वाली फसलें, और कुछ स्थानों पर फलों के बागान जैसे आंवला, आम, कटहल आदि उगाए जाते हैं। यदि सिंचाई और खाद प्रबंधन सही तरीके से किया जाए, तो यह मिट्टी वन आधारित कृषि, कृषि वानिकी (Agroforestry) और बागवानी के लिए अत्यंत उपयुक्त हो सकती है।
कृषि सुधार के उपाय
- जैविक और हरी खाद का प्रयोग करके मिट्टी की उर्वरता बढ़ाई जा सकती है।
- पीएच परीक्षण कर आवश्यकता अनुसार चूना (lime) मिलाया जा सकता है जिससे इसकी अम्लीयता कम की जा सके।
- समुचित सिंचाई और मल्चिंग जैसी तकनीकों से इसकी जलधारण क्षमता में सुधार संभव है।
कृषि पर मिट्टियों का प्रभाव :
छत्तीसगढ़ की कृषि पूरी तरह से मिट्टी की प्रकृति पर निर्भर करती है। धान उत्पादन के लिए राज्य प्रसिद्ध है, क्योंकि मटियार, लाल-पीली और काली मिट्टी धान की फसल के लिए अत्यंत अनुकूल हैं। इसके अलावा कपास, दलहन, तिलहन और सब्जियों की खेती भी मिट्टी की विशेषताओं के आधार पर की जाती है।
मिट्टी संरक्षण और सुधार के उपाय :
1. जैविक खाद और हरी खाद का प्रयोग
2. फसल चक्र और बहुफसली प्रणाली अपनाना
3. सिंचाई प्रबंधन और जल निकासी व्यवस्था
4. भूमि परीक्षण और उपयुक्त उर्वरकों का प्रयोग
5. प्लावन और ढाल वाली कृषि विधियाँ
निष्कर्ष :
छत्तीसगढ़ की मिट्टियाँ राज्य की कृषि, अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन की रीढ़ हैं। यहाँ की विविध मिट्टी संरचना राज्य को विभिन्न प्रकार की फसलें उगाने की क्षमता प्रदान करती है। यदि इन मिट्टियों का वैज्ञानिक ढंग से उपयोग किया जाए और उपयुक्त सुधार उपाय अपनाए जाएँ, तो छत्तीसगढ़ को कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भर और समृद्ध राज्य बनाया जा सकता है।