शिक्षा और समाज का सम्बन्ध :
शिक्षा और समाज का अटूट सम्बन्ध है। बालक का विकास केवल घर या परिवार में ही नहीं होता वरन् समाज के सम्पर्क में आकर होता है। मनुष्य के ज्ञान के विकास में परिवार का भी योग रहता है परन्तु जीवन की यथार्थताओं की शिक्षा समाज में रहकर ही प्राप्त करता है। दूसरे, शिक्षा के आदान-प्रदान की प्रक्रिया समाज में ही सम्भव है। शिक्षा के लिए पुस्तकों और अध्यापकों की आवश्यकता है, जो समाज में ही उपलब्ध हो सकते हैं। तीसरे, समाज के सम्पर्क में आकर बालकों के अनुभवों में वृद्धि होती है। उसकी बोल-चाल, रहन-सहन तथा संस्कृति समाज द्वारा प्रभावित होती है।
सामाजिक वातावरण का बालक पर विशेष प्रभाव पड़ता है। इस विषय में के. जी. सैयदेन लिखते हैं, “जब बालक जीवन के पथ पर चलना आरम्भ कर देता है तो वह न केवल घर के वातावरण से पोषण प्राप्त करता है वरन् उसके गिर्द सामाजिक जीवन का एक पूरा वृत्त होता है। जो प्रायः अप्रत्यक्ष परन्तु अत्यन्त प्रभावात्मक ढंग से उसकी आदतों, विचारों और स्वभाव को धीरे-धीरे एक विशेष साँचे में ढालता है। उसकी चाल-ढाल, बोल-चाल, शब्दकोष, उसके चरित्र सम्बन्धी सिद्धान्त और आदर्श उस वातावरण के रंग में रंग जाते हैं।”
शिक्षा की प्रकृति का निर्धारण समाज की विचारधारा के अनुकूल ही होता है। उदाहरण के लिए अमरीका, भारत तथा इंग्लैण्ड आदि देशों का समाज प्रजातन्त्रात्मक विचारों में आस्था रखता है। इस कारण ही इन देशों की शिक्षा में स्वतन्त्रता और समानता पर विशेष बल दिया जाता है। इसके विपरीत रूस और चीन का समाज साम्यवादी विचारधारा का है। अतः वहाँ शिक्षा को पूर्णतया राज्य के नियन्त्रण में रखा जाता है। वहाँ शिक्षा द्वारा व्यक्ति को स्वतन्त्र रूप से अपने विकास के अवसर नहीं दिये जाते वरन् राज्य के हित में विकसित होने के अवसर दिये जाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि समाज की विचारधारा के अनुकूल ही शिक्षा की प्रकृति का निर्धारण होता है।
शिक्षा का समाज पर प्रभाव :
समाज शिक्षा को प्रभावित करता है। उसी प्रकार शिक्षा समाज को प्रभावित करती है। शिक्षा समाज को किस प्रकार प्रभावित करती है, यह निम्नलिखित शीर्षकों में वर्णित किया गया है-
1. सामाजिक आदर्शों की स्थापना में शिक्षा का योगदान
शिक्षा द्वारा समाज के आदर्शों का निर्धारण होता है। संसार के महान शिक्षा शास्त्री समाज सुधारक भी हुए हैं, उन्होंने शिक्षा के द्वारा समाज में सुधार किये हैं तथा नवीन आदर्शों की स्थापना की है। महात्मा गाँधी इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। एक. के. अग्रवाल के शब्दों में, “शिक्षा समाज के आदर्शों तथा क्रियाओं का विवेचन करती है। आवश्यक तथा अनावश्यक आदर्शों का निर्णय करती है। अनुपयोगी, असामाजिक तथा रूढ़िगत विचारों, परम्पराओं तथा आदर्शों से समाज की रक्षा करती है।”
2. शिक्षा समाज के विकास और प्रगति में योग देती है
शिक्षा समाज की संस्कृति का संरक्षण ही नहीं करती वरन उसकी प्रगति और विकास में भी योग देती है। शिक्षा ही व्यक्ति को इस योग्य बनाती है कि वह समाज का प्रगतिशील सदस्य बन सके और अपनी शिक्षा द्वारा समाज की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। विद्यालय में अनेक ऐसे महत्त्वपूर्ण अनुसन्धान किये जाते हैं जिनसे समाज का प्रचुर लाभ होता है। तकनीकी विद्यालय तथा कृषि विद्यालय समाज की तात्कालीत औद्योगिक तथा कृषि सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति कर उसके विकास में योग देते हैं। इसी प्रकार कला और साहित्य के सृजन में भी विद्यालय योग देते हैं। अन्य शब्दों में विद्यालय बालकों के विचार प्रगतिशील बनाते हैं। जिस समाज में जितने प्रगतिशील व्यक्ति होंगे वह समाज भी उतना ही प्रगतिशील होगा। जॉन डीवी के शब्दों में, “शिक्षा में निश्चित तथा सीमित साधनों द्वारा सामाजिक और संस्थागत उद्देश्य के साथ-साथ समाज के कल्याण, प्रगति और सुधार में रुचि का पल्लवित होना पाया जाता है।”
3. शिक्षा द्वारा सामाजिक नियन्त्रण
शिक्षा समाज पर नियन्त्रण रखती है अर्थात् समाज में फैली बुराइयों, अन्धविश्वासों तथा रूढ़ियों को समाप्त करने में शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वर्तमान भारतीय समाज जातीयता, साम्प्रदायिकता तथा प्रान्तीयता से बुरी तरह ग्रसित है। यदि शिक्षा का प्रयोग प्रभावशाली साधन के रूप में किया जाय तो भारतीय समाज के इन दोषों का सरलता से विनाश किया जा सकता है। इस प्रकार शिक्षा समाज पर नियन्त्रण रखती है।
4. शिक्षा बालक का समाजीकरण करती है
विद्यालय में बालक सामाजिक, सांस्कृतिक आदर्शों तथा मान्यताओं की शिक्षा ग्रहण करता है। वह अन्य छात्रों के सम्पर्क में आता है। जिससे उसमें सामाजिकता का विकास होता है। विद्यालय में होने वाली विभिन्न सामाजिक क्रियाओं में भाग लेकर भी बालक का समाजीकरण होता है। वर्तमान भारतीय समाज में वांछित या उपयोगी परिवर्तन के लिये शिक्षा के निम्नलिखित कर्तव्य हैं-
समाज में शिक्षा के कर्तव्य :
1. समाज की संस्कृति का संरक्षण
प्रत्येक समाज की अपनी सभ्यता व संस्कृति होती है । संस्कृति से हमारा तात्पर्य भाषा, साहित्य कला तथा धार्मिक परम्पराओं से हैं। शिक्षा का प्रमुख कार्य समाज की इस मूल्यवान संस्कृति का संरक्षण करना होना चाहिए।
2. समाज की संस्कृति का पोषण
शिक्षा का कार्य केवल संस्कृति का संरक्षण करना मात्र ही न हो वरन् उसका पोषण करना भी हो। शिक्षा की इस प्रकार व्यवस्था की जाय जिससे कि समाज की संस्कृति का निरन्तर विकास होता रहे।
3. समाज की बदलती परिस्थितियों और समस्याओं का समाधान
शिक्षा समाज के विकास में उस समय ही अपना योग प्रदान कर सकती है जबकि वह उसकी बदलती हुई स्थिति व आवश्यकताओं को ठीक प्रकार से पहचान कर उसकी आवश्यकताओं और समस्याओं को ठीक प्रकार से समझ सके तथा उनके अनुकूल साधन जुटा सकें। शिक्षा को सामाजिक समस्याओं के हल करने में योग देना चाहिए।
4. सृजनात्मक शक्तियों का विकास
शिक्षा की समुचित व्यवस्था द्वारा छात्रों की रचनात्मक और सृजनात्मक प्रवृत्तियों का उचित विकास करना चाहिए। छात्रों की रचनात्मक और सृजनात्मक प्रवृत्तियों का विकास करने से ही समाज का भी उचित दिशा में विकास हो सकता है।
5. परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल पाठ्यक्रम का निर्माण
शिक्षा का पाठ्यक्रम बदलती परिस्थितियों के अनुकूल पाठ्यक्रम का निर्धारण करे। अन्य शब्दों में, पाठ्यक्रम का लचीला होना आवश्यक है। यदि पाठ्यक्रम समाज की आवश्यकताओं के अनुसार नहीं बदलता तो वह छात्रों और समाज दोनों के लिए व्यर्थ हो जाता है।
6. सामाजिकता का विकास
शिक्षा का अन्य प्रमुख कार्य छात्र के सामाजीकरण में अपना योगदान प्रदान करना होना चाहिए। विद्यालय में उन क्रियाओं और गतिविधियों को स्थान दिया जाय जिनसे छात्रों में सामाजिकता का विकास होता है। साथ ही पाठ्यक्रम में उन विषयों को महत्त्व व स्थान देना आवश्यक है जिसकी समाज को विशेष आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त छात्रों को विद्यालय से बाहर ले जाकर विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के अवसर दिये जायें।