# मौलिक अधिकारों के संरक्षक (संवैधानिक उपचार) की भूमिका में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रिट/आदेश जारी करने की अधिकारिता

मौलिक अधिकारों के संरक्षक (संवैधानिक उपचार) की भूमिका में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रिट/आदेश जारी करने की अधिकारिता

भारत की संवैधानिक संरचना में सर्वोच्च न्यायालय भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं का संरक्षक है, अधिकारों का अस्तित्व ही उपचारों पर आधारित है भारतीय संविधान, विशेषतः, अधिकारों के प्रवर्तन की संवैधानिक उपचार व्यवस्था उपबंधित करता है।

संविधान के भाग-3 में स्वयं एक मूल अधिकार “संवैधानिक उपचारों का अधिकार” के अन्तर्गत प्रदत्त मूल अधिकारों को प्रवर्तित कराने हेतु सर्वोच्च न्यायालय को रिट एवं आदेश जारी करने की अधिकारिता दी गयी है।

भारत की संवैधानिक व्यवस्था में कोई व्यक्ति न्यायालय में विधायिका, कार्यपालिका अथवा किसी प्रशासनिक क्रिया को सीधे प्रश्नगत कर सकता है निम्न न्यायालयों में सामान्य वाद की विलम्बकारी प्रक्रिया का अनुपालन किए बगैर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मौलिक अधिकारों को प्रवर्तित कराया जा सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय पुनर्विलोकन शक्ति के अन्तर्गत विधायिका द्वारा पारित किसी कानून को यदि वह संविधान के उपबन्धों के विरूद्ध है, अवैध घोषित कर सकता है। इसी तरह अपनी इसी शक्ति के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय न केवल विधायिका द्वारा पारित कानून वरन कार्यपालिका द्वारा किसी भी क्रियान्वयन को असंवैधानिक होने पर या संविधान में प्रत्याभूत मौलिक अधिकारों के विरूद्ध होने पर अवैध घोषित कर सकता है। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या और मौलिक अधिकारों के संरक्षण की सर्वोच्च संस्था है तथा अधिकारों की प्रहरी है।

संविधान का अनुच्छेद 32 सर्वोच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन हेतु अधिकृत करता है’ तथा रिट/आदेश जारी करने की शक्ति प्रदान करता है। ये रिट एवं आदेश हैं –

  1. बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus)
  2. परमादेश (Mandamus)
  3. प्रतिषेध (Prohibition)
  4. अधिकार पृच्छा (Quo-warranto) और
  5. उत्प्रेषण (Certiorari)

सर्वोच्च न्यायालय की मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित शक्ति अत्यन्त व्यापक है। रिट और आदेश जारी करने की शक्ति अनु० 226 के अन्तर्गत उच्च न्यायालयों को भी प्राप्त है, अन्तर केवल इतना है कि उच्च न्यायालय अनु० 226 के अन्तर्गत मौलिक अधिकारों में प्रवर्तन के साथ-साथ ‘अन्य प्रयोजनों’ के लिए भी रिट/आदेशों को जारी कर सकते हैं। मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में उच्च न्यायालय का यह अधिकार इस दृष्टि से समवर्ती है, प्रार्थी अपने अधिकारों और स्वतन्त्रताओं को किसी न्यायालय से प्रवर्तित कराकर प्राप्त कर सकता है। ब्रिटिश न्याय व्यवस्था से ली हुयी ये रिटें अधिकारों और स्वतन्त्रताओं की महानतम संरक्षक रही हैं। संविधान निर्माताओं की इन्हें रखने की बुद्धिमत्ता, उनके सूक्ष्म दृष्टि की परिचायक हैं।

विशेष रूप से, वर्तमान युग में लोक कल्याणकारी राज्य के अन्तर्गत जहाँ शासन के कार्यों का निरन्तर विस्तार होता जा रहा है, एक ऐसी प्रक्रिया आवश्यक थी, जिसके द्वारा शीघ्र एवं सुलभ न्याय मिल सके एवं अधिकारों का संरक्षण हो सके।

1. बंदी प्रत्यक्षीकरण

‘संवैधानिक उपचारों के अधिकार’ के अन्तर्गत उल्लिखित बन्दी प्रत्यक्षीकरण रिट एक ऐसे आदेश के रूप में है, जिसमें उस व्यक्ति को जिसने किसी अन्य व्यक्ति को निरूद्ध किया है, आदेश दिया जाता है कि उसे न्यायालय के समक्ष उपस्थित करे। जिससे व्यक्ति सशरीर न्यायालय के समक्ष उपस्थित हो सके और न्यायालय विधिक औचित्य की परीक्षा कर सके एवं अन्यथा स्थिति होने पर उसे मुक्त कर सके। यह रिट किसी अधिकारी या निजी व्यक्ति को सम्बन्धित हो सकती है और इस दृष्टि से जनता के लिए ‘शक्तिशाली रक्षोपाय’ है। बन्दी प्रत्यक्षीकरण रिट हेतु प्रार्थना उस व्यक्ति द्वारा की जा सकती है जिसके मौलिक अधिकारों का हनन हुआ है अथवा उसके लिए अन्य व्यक्ति, हितैषी या रिश्तेदार भी प्रार्थना कर सकते हैं, किन्तु उन्हें न्यायालय के समक्ष कारण को स्पष्ट करना होगा कि निरूद्ध व्यक्ति इस कारण से प्रार्थना देने में अक्षम है, साथ ही प्रार्थना के समय निरूद्ध किए जाने की परिस्थितियाँ तथा प्रकृति का उल्लेख करते हुए शपथ पत्र भी देना होगा।

बन्दी प्रत्यक्षीकरण रिट, मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए संवैधानिक उपचार के रूप में उपलब्ध है संविधान के अनुसार – “किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतन्त्रता से विधि के अनुसार वंचित किया जायेगा अन्यथा नहीं”

यदि कार्यपालिका ने किसी व्यक्ति को बगैर विधि के प्राधिकार या स्थापित प्रक्रिया के उल्लंघन में गिरफ्तार किया, न्यायालय उक्त याचिका पर ‘बन्दी प्रत्यक्षीकरण’ आदेश जारी कर सकते है। परन्तु बन्दी प्रत्यक्षीकरण रिट जारी नहीं होगी जब –

  • – कोई व्यक्ति आपराधिक मामले में न्यायालय द्वारा निरूद्ध किया गया है अथवा,
  • – परीक्षण न्यायालय ने क्षेत्र के बाहर जाकर निर्णय दिया किन्तु अपील होने पर उसे दोष सिद्ध स्वीकार किया गया अथवा,
  • – किसी अभिलेख न्यायालय या संसद द्वारा अवमानना के लिए कार्यवाही में हस्तक्षेप हेतु प्रार्थना हो ।

2. परमादेश

उपचारों के अन्तर्गत दूसरी रिट परमादेश है –

परमादेश का अर्थ है परम आदेश या आज्ञा अर्थात् इस रिट द्वारा सर्वोच्च न्यायालय किसी व्यक्ति को या लोक सेवक को उसके विधिक या संविधि के अन्तर्गत निर्धारित कर्तव्य को किए जाने की आदेश देती है। ये रिट सरकार एवं निगम के प्राधिकारी को अपने विधिक कर्तव्य के अनुपालन हेतु जिसके लिए वह आबद्धकर है, दी जा सकती है। सरल अर्थों में संबंधित प्रधिकारी के विधि द्वारा निश्चित कर्तव्य सुनिश्चित करने हेतु रिट का प्रयोग होता है, किन्तु वैकल्पिक उपचार होने की स्थिति में न्यायालय परमादेश रिट देने से मना भी कर सकते हैं। अर्थात परमादेश रिट जारी नहीं होगी जब कि –

  • – संबंधित अधिकारी का कर्तव्य उसके विवेक या व्यक्तिगत निर्णय पर आधारित है।
  • – निजी व्यक्ति या निजी संस्थाओं के विरूद्ध परमादेश रिट जारी नहीं होगी कारण कि उन पर लोक कर्तव्य आरोपित नहीं है।
  • – विभिन्न व्यक्तियों के बीच संविदात्मक कर्तव्यों के पालन हेतु भी रिट जारी नहीं होगी।

अतंतः, परमादेश रिट राष्ट्रपति या राज्यपाल के विरूद्ध भी अपने पद की शक्तियों के प्रयोग या कर्तव्यों के पालन हेतु जारी नहीं की जायेगी।

3. प्रतिषेध

तीसरी रिट, ‘प्रतिषेध’ सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालय को संबोधित रिट है जिसके द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को अपने क्षेत्राधिकार से बाहर जाने या प्राकृतिक न्याय के विरूद्ध कार्य करने से रोका जाता है। सरल अर्थों में यह न्यायिक रिट है जिससे अधीनस्थ न्यायालय को, नकारात्मक रूप में क्षेत्र से बाहर जाने पर, रोका जाता है तथा अपने क्षेत्र या सीमाओं में कार्य करने के लिए कहा जाता है। प्रतिषेध की रिट दो स्थितियों में –

  • – क्षेत्राधिकार से बाहर जाने पर या
  • – जहाँ अधिकारिता है ही नहीं, जारी की जाती है।

4. उत्प्रेषण

चौथी रिट, ‘उत्प्रेषण’ का प्रयोग सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों या न्यायिक करने वाले निकायों में चलने वाले वादों को ऊपर भेजने के आदेश देने के लिए किया जाता है इस रिट के जारी करने का आशय अधीनस्थ न्यायालयों एवं निकायों के निर्णयों की जांच करना होता है और दोषपूर्ण पाये जाने पर निर्णय रद्द करना होता है।

उत्प्रेषण रिट ‘न्यायिक’ या ‘अर्द्धन्यायिक’ निकायों के विरूद्ध भी जारी होती है। इन सब के विरूद्ध जारी करने का उद्देश्य अधीनस्थ न्यायालयों या न्यायिक अथवा अर्द्धन्यायिक कार्यों की वैधता सुनिश्चित करना होता है। रिट जारी करने के प्रमुख आधार हैं-

  • – अधिकारिता का अभाव अथवा आधिक्य
  • – प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का उल्लंघन
  • – निर्णय में वैधानिक दोष

प्रतिषेध और उत्प्रेषण की रिट में अधीनस्थ न्यायालयों को अधिकारिता से बाहर जाने से रोकने की समानता होते हुए भी मूलभूत अन्तर यह है कि-

  • – प्रतिषेध रिट प्रारम्भ में ही अधीनस्थ न्यायालय को कार्यवाही रोकने के लिए जारी होती है जबकि उत्प्रेषण रिट बाद में जारी होती है।
  • – प्रतिषेध रिट कार्यवाही को आगे बढ़ाने से रोकने के लिए जारी होती है जबकि उत्प्रेषण निर्णय दे दिये जाने पर या कार्यवाही पूरी हो जाने पर उसे रद्द कर दिये जाने हेतु जारी होती है।
  • – प्रतिषेध रिट का उद्देश्य न्यायिक त्रुटि रोकना है सुधारना नहीं जबकि उत्प्रेषण रिट त्रुटि सुधारने हेतु जारी होती है।

5. अधिकार पृच्छा

संवैधानिक उपचारों के अधिकार के अन्तर्गत एक अन्य रिट ‘अधिकार पृच्छा’ है, अर्थात ‘आपका प्राधिकार क्या है’ ये रिट ऐसे व्यक्ति के विरूद्ध जारी होती है जो किसी लोक पद पर अवैधानिक रूप से आसीन हो गया है दूसरे शब्दों में, न्यायालय सार्वजनिक पद पर किसी व्यक्ति के दावे की वैधता की जांच करता है और उससे यह पूछा जाता है कि “किस प्राधिकार से” पद धारण किए हुए है। अर्थात् यदि व्यक्ति को पद धारण करने का अधिकार नहीं है तो न्यायालय अधिकार पृच्छा रिट द्वारा पद से उक्त व्यक्ति को निष्कासित कर देगा एवं पद रिक्त घोषित कर दिया जायेगा। इस अधिकार पृच्छा रिट हेतु आवश्यक शर्ते है –

  • – पद सार्वजनिक हो अर्थात कानून या संविधान द्वारा सृजित हो,
  • – आसीन व्यक्ति को पद धारण करने का वैध अधिकार न हो।
  • – ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करने में संविधान या कानून का उल्लंघन किया गया हो।’

जब न्यायालय को लगता है कि कोई व्यक्ति ऐसे पद पर नियुक्त हो गया है जिस पर उसका कोई कानूनी हक नहीं है तब न्यायालय ‘अधिकार पृच्छा आदेश’ के द्वारा उसे उस पद पर कार्य करने से रोक देता है।

अधिकार पृच्छा रिट की मांग किसी सार्वजनिक पद पर नियुक्ति की वैधता की चुनौती देते हुए कोई व्यक्ति कर सकता है (भले ही वह व्यक्तिगत रूप से पीड़ित न हो या उसके किसी हित का अतिक्रमण न हुआ हो परन्तु उसे यह सुआधारित करना आवश्यक होगा कि उसे इस पद धारण करने का विधिक अधिकार प्राप्त है) इस अधिकार पृच्छा रिट को वाद के तथ्यों और परिस्थितियों के आंकलन के बाद ही जारी किया जाता है।

मौलिक अधिकारों की अमूर्त घोषणाएं निरर्थक हैं यदि उनके प्रभावी करने के समुचित साधन न हों। भारतीय संविधान निर्माताओं ने मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन हेतु संविधान में विविध उपबन्ध किए यथा –

क) संविधान मूल अधिकारों को कार्यपालिका और विधानमंडल दोनों के विरूद्ध प्रत्याभूत करता है। विधायिका या कार्यपालिका का कोई कार्य जो इन अधिकारों को क्षीण करता है, शून्य होगा, और न्यायालय को भी ये शक्ति दी गयी कि वे उसे शून्य घोषित करें।

ख) न्यायालयों को यह अधिकार भी प्रदान किया गया कि वे मौलिक अधिकारों को प्रत्याभूत करने वाले संविधान के उपबन्धों का उल्लंघन करने वाली विधि को उल्लघंन की मात्रा तक शून्य घोषित करे एवं उन्हें समुचित रूप से प्रवर्तन हेतु रिट / आदेश भी जारी करे।

संविधान निर्माता भारत की निर्धनता अज्ञानता, अशिक्षा या अभाव आदि से अपरिचित थे, जिस कारण मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन हेतु एक निश्चित प्रक्रिया विहित की गयी। रिटों से सम्बन्धित संवैधानिक उपचारों को ‘एक मौलिक अधिकार’ के रूप में उपबन्धित किया, जिसे विधायिका द्वारा निलम्बित समाप्त या वापस भी नहीं किया जा सकता, तात्पर्य संवैधानिक अधिकारों के संरक्षण में सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ अद्वितीय हैं। न्यायालय द्वारा प्रार्थी को उसके अधिकारों के उल्लंघन ये संतुष्ट हो जाने पर समुचित रिलीफ दिलवाना अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी है।

सर्वोच्च न्यायालय की ये रिट आदेश अधिकारिता के प्रयोग कराने का अधिकार उसी व्यक्तिक का है जिसके मौलिक अधिकारों का वस्तुतः अतिक्रमण हुआ हो, दूसरे, अनु० 32 का प्रयोग नागरिकों के मौलिक अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए किया जा सकता है अन्यथा नहीं। तीसरे, प्रार्थी के लिए किसी भी कानून को चुनौती देते समय ‘मौलिक अधिकारों को आघात पहुंचना’ स्थापित करना आवश्यक होगा साथ ही जिस रिट या आदेश से उपचार की प्रार्थना है उसका संबन्ध किसी मूल अधिकार से होना चाहिए। चौथे, मौलिक अधिकार चूंकि राज्य के विरूद्ध प्राप्त है अतः इनके प्रवर्तन हेतु यह आवश्यक होगा कि दूसरा पक्ष राज्य हो।

अन्ततः अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय के उपचार देने की शक्ति विवेक पर निर्भर नहीं है अर्थात् यदि किसी नागरिक के अधिकार का उल्लंघन हुआ तो एक अधिकार के रूप में समुचित उपचार पाने का अधिकारी होगा।

मौलिक अधिकारों का प्रवर्तन अन्य कार्यवाहियों द्वारा भी किया जा सकता था सामान्य विधि के अधीन वाद लाकर, अनु० 226 के अधीन आवेदन कर आदि। किन्तु अनु० 32 के अन्तर्गत मौलिक अधिकारों का प्रवर्तन संवैधानिक उपचार है जिसे संविधान के भाग-3 में मौलिक अधिकार के रूप में प्रगणित किया गया है ।

डा० अम्बेडकर ने ठीक ही कहा था– “यदि मुझसे पूछा जाए की संविधान में कौन सा अनुच्छेद सबसे महत्वपूर्ण है, जिसके बिना यह संविधान शून्य हो जायेगा तो मैं इसके सिवाय किसी दूसरे अनुच्छेद का नाम नहीं लूंगा…..,. अनुच्छेद 32 संविधान के नींव का पत्थर है…… आत्मा है…….. उसका हृदय है।”

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