समाज कार्य अनुसंधान के चरण :
सम्पूर्ण अनुसंधान के कार्यक्रम को 14 प्रमुख चरणों में बांटा जा सकता है। दूसरे शब्दों में, अनुसंधान की सम्पूर्ण प्रक्रिया में क्षेत्र के चुनाव से लेकर अन्तिम प्रतिवेदन तैयार करने पर किसी भी अनुसंधानकर्त्ता को क्रमशः निम्न प्रमुख 14 चरणों से गुजरना पड़ता है-
1. समस्या/ विषय का चयन
अनुसंधानकर्त्ता के लिए आवश्यक है कि वह अपने अनुसंधान की समस्या का चयन करें। समाज कार्य के अनुसंधान की समस्या कोई भी ऐसी समस्या हो सकती है जो व्यक्ति या समाज के मनो-सामाजिक संगठन से सम्बन्धित हो। व्यक्ति और समाज के संगठन से सम्बन्धित समस्या का क्षेत्र और स्वरूप बहुत विशाल हो सकता है।
समाज का निर्माण करने वाली तथा उसकी संरचना पर प्रभाव डालने वाला कोई भी कारक अथवा शक्ति इसमें आ सकता है। वे अनेक परिस्थितियाँ भी समस्या के रूप में चयनित की जा सकती हैं जो व्यक्ति पर किसी न किसी रूप में प्रभाव डालती हों। समाज का निर्माण करने वाली या उसकी संरचना पर प्रभाव डालने वाली कोई शक्ति इसमें सम्मिलित की जा सकती है। वे परिस्थितियाँ भी इसका क्षेत्र हो सकती हैं जो व्यक्ति पर किन्हीं रूपों में प्रभाव डालती हैं। समाज कार्य के अनुसंधान की समस्या का क्षेत्र व्यक्तिगत के अतिरिक्त सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, इत्यादि पहलुओं से सम्बन्धित हो सकता है।
अनुसंधानकर्ता को शुरू में केवल यह नहीं तय करना पड़ता है कि जीवन के विविध पहलुओं में से किस पक्ष का अध्ययन करेगा। यदि अनुसंधान की समस्या सामाजिक समस्या है तो उसे प्रारम्भ से ही तय कर लेना होता है कि वह इसमें अस्पृश्यता, नशाबंदी, भ्रष्टाचार अथवा पारिवारिक विघटन की समस्याओं में से किस सामाजिक समस्या विशेष का अध्ययन करेगा। इसी प्रकार आर्थिक समस्याओं को निश्चित करने में उसे प्रारम्भ में ही माँग पूर्ति की समस्या, मँहगायी भत्ते की समस्या, मजदूरी की समस्या, कार्य करने की दशाओं की समस्या आदि में से किसी एक का चयन कर लेना चाहिए।
इसी प्रकार धार्मिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक समस्याओं से सम्बन्धित अध्ययनों में अनुसंधानकर्त्ता के लिए यह आवश्यक है कि वह उनकी किसी एक विशेष समस्या का चयन कर ले। प्रत्येक अनुसंधानकर्त्ता की रूचि, अनुभव, शिक्षण, प्रशिक्षण साधन आदि भिन्न-भिन्न हुआ करते हैं। यहाँ अनुसंधानकर्त्ता का तात्पर्य किसी व्यक्ति मात्र से ही न होकर उन दोनों प्रकार के राजकीय और गैर-राजकीय संगठनों से है जो अनुसंधान करते या करवाते हैं। अनुसंधानकर्त्ता को अपनी रुचि के अनुसार अनुसंधान की समस्या का चयन और निर्धारण करना चाहिए। ऐसा करने से अनुसंधान के अच्छे परिणाम सामने आते हैं।
2. समस्या और क्षेत्र का परिसीमन
अनुसंधान का दूसरा चरण चुनी गयी समस्या, उसके विषय और क्षेत्र को परिसीमित करना होता है। व्यक्तिगत अथवा सामाजिक पहलुओं से सम्बन्धित कोई समस्या हो प्रायः उस पर अनुसंधान की आवश्यकता इसलिए महसूस होती है क्योंकि समस्या व्यापक होती है। यद्यपि व्यापकता रखने वाली समस्याओं का ही चयन करने पर अनुसंधान की उपादेयता भी व्यापक होती है फिर भी समस्या जितनी अधिक सुपरिभाषित तथा सीमित एवं विशिष्ट होती है, अनुसंधान के उतना ही प्रभावपूर्ण होने की संभावना बढ़ जाती है। समाज कार्य के अध्ययन में क्षेत्र का तात्पर्य यह है कि अनुसंधानकर्त्ता यह निश्चित करता है कि वह किस भौगोलिक दायरे में समस्या का अध्ययन करेगा। यद्यपि मानवीय समस्याओं की प्रकृति सार्वभौमिक हो सकती है परन्तु भौगोलिक भिन्नता से समस्याओं की प्रकृति का बाह्य स्वरूप बदल जाता है। इसलिए अनुसंधान को अधिक उपयोगी एवं सही बनाने के लिए आवश्यक हो जाता है कि भौगोलिक क्षेत्र निश्चित कर लिया जाये। प्रत्येक समाज की अपनी एक भौगोलिक विशेषता होती है और उसके आधार पर अनेक प्रकार की भिन्नतायें उत्पन्न होती हैं।
अतः अनुसंधानकर्ता को अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए समस्या के चुनाव के साथ-साथ यह भी निश्चित कर लेना पड़ता है कि वह समस्या का किस क्षेत्र में अध्ययन करेगा। यदि विस्तृत क्षेत्र को अनुसंधान का क्षेत्र बनाकर अनुसंधान किया जाता है तो अधिक खर्च, मानव प्रयास तथा समय लगने की सम्भावना होती है तथा साथ ही परिवर्तन की आवश्यकता को नियंत्रित और एकरूपता की दशा में बनाये रखना संभव होता है। विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र के अनुसंधानों के लिए या तो अनुसंधान को कई भागों में बाँटकर भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में एक ही समय पर अथवा भिन्न-भिन्न चरणों में अध्ययन किया जाता है या देश के कुछ भूखण्डों का चयन कर लिया जाता है जिसमें एक ही समय पर अथवा विभिन्न चरणों में अनुसंधानकार्य किया जाता है।
3. उपलब्ध सामग्री का प्रारम्भिक अध्ययन
अनुसंधान के तीसरे चरण में अनुसंधानकर्त्ता को समस्या, विषय और क्षेत्र के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए ऐसी प्रत्येक सामग्री का अध्ययन करना लाभकारी होता है जो उससे सम्बन्धित हो और जिसे सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सके। सामग्री के अध्ययन के बाद ही वह अनुसंधान की दिशा, साधनों आदि का ठीक-ठीक निर्धारण कर सकता है। सामग्री के अध्ययन के आधार पर वह विषय और क्षेत्र की प्रकृति को ठीक से समझ पाता है और उसका एक उचित परिसीमन कर सकता है। अध्ययन के बाद ही वह अनुसंधान की रूपरेखा का निर्माण करता है और उसी के अनुसार सम्पूर्ण अनुसंधान प्ररचना को तैयार करता है। बिना अध्ययन के उसे एक तो इन कार्यों को करने में बड़ी कठिनाई होती है, दूसरे वह अपने उद्देश्य एवं कर्त्तव्य से विमुख भी हो सकता है। फलस्वरूप वह इच्छित अनुसंधान नहीं कर पाता है। अनुसंधान के इस चरण में ऐसी प्रत्येक सामग्री का अध्ययन सम्मिलित होता है जो सरलतापूर्वक उपलब्ध हो अथवा कर्त्ता के द्वारा समझा जा सकता हो।
4. उपकल्पना का निर्माण
ये उपकल्पनायें अनुसंधान के प्रारम्भ में की गयी ऐसी कल्पनायें हैं जो अनुसंधान के बाद प्राप्त होने वाले निष्कर्षो के आधार पर स्वीकार अथवा अस्वीकार की जाती है। ये अनुसंधान के बाद स्वीकार, अस्वीकार किए जाने वाले वे कथन हैं जिनकी कल्पना अनुसंधान के पूर्व ही कर ली जाती है। यह अनुसंधान समस्या का अनुसंधान के पहले का संभावित हल है। अनुसंधानकर्त्ता अनुसंधान करने के लिए कुछ ऐसी बातों का निश्चय कर लेता है जो अनुसंधान के बाद भली प्रकार स्पष्ट होती है। इस निश्चय से उसे अपने अनुसंधान की दिशा, उसकी प्ररचना, उसकी प्रविधि और अन्य सहायक बातों का अनुमान लगाने और निर्धारण करने में सुविधा होती है। उपकल्पना की अनुसंधान के दौरान जाँच की जाती है, फिर उसमें सुधार कर अन्तिम सत्य की स्थापना की जाती है।
अन्वेषणात्मक अनुसंधान में उपकल्पना का निर्माण नहीं किया जाता, विवरणात्मक अनुसंधानों में उपकल्पनायें प्रायः बनायी जाती हैं। इन अनुसंधानों की उपकल्पनायें सत्य के काफी पास होती हैं। एक समस्या के कई पूर्व उत्तर होने से अनुसंधान प्ररचना और प्रविधि के निर्माण में सुविधा होती है। परिकल्पना को बनाते समय इस बात का ध्यान रहना चाहिए कि वह स्पष्ट, सरल तथा संक्षिप्त हो तथा उसकी भाषा ऐसी न हो कि उसके कई अर्थ निकलते हों। जो भी बात कही जाये छोटे और सरल वाक्यों में होनी चाहिये।
5. अध्ययन की योजना का निर्माण
अध्ययन की सम्पूर्ण योजना के निर्माण के दौरान प्रासंगिक पुस्तकों की सूची तैयार करके उसके विषय में निर्णय लेने, आवश्यक अनुसंधान उपकरण के बारे में निर्णय, अध्ययन के आंकड़ों के संग्रह की उपयुक्त विधि के विषय में निर्णय लेने, उपयुक्त मापकों के बारे में निर्णय लेने, इत्यादि कार्य किये जाते हैं।
6. सूचना के स्रोतों का निर्धारण
इस स्तर पर यह निर्णय लिया जाता है कि समग्र क्या होगा अर्थात् एक समय विशेष पर (जब आँकड़े एकत्रित किये जायेंगे) एक क्षेत्र विशेष से सम्बंधित किस श्रेणी के उत्तरदाताओं से सूचना एकत्रित की जायेगी। तदुपरान्त यह निश्चित किया जाता है कि सम्पूर्ण समग्र से सूचना एकत्रित की जायेगी अथवा इसके एक अंश विशेष जिसे प्रतिदर्श कहते हैं, से सूचना एकत्रित की जायेगी तथा प्रतिदर्श का चयन किस प्रकार किया जायेगा।
7. उत्तरदाताओं का चयन
इस चरण के अन्तर्गत उत्तरदाताओं का चयन किया जाता है। वास्तव में कोई भी अनुसंधान पूर्ण नहीं हो सकता जब तक उसमें उपयुक्त उत्तरदाताओं का चयन न हो। उत्तरदाताओं के चयन के लिए हम समाज कार्य अनुसंधान में वैज्ञानिक प्रविधि का प्रयोग करते हैं जिसमें समग्र का निर्धारण करते हुए इकाइयों का चयन करते हैं। इकाई से तात्पर्य समाज कार्य अनुसंधान में सबसे छोटा इकाई है जो समाज कार्य अनुसंधान में सभी उत्तरदाताओं की विशेषताओं का मानक धारण किये हुए होता है। वास्तव में उत्तरदाताओं के चयन हेतु विभिन्न प्रकार के सूत्रों का भी उपयोग किया जाता है। उत्तरदाताओं का चयन सबसे प्रमुख स्तर समग्र का कम से कम 10 प्रतिशत उत्तरदाताओं का चयन करना उचित होता है।
8. प्रामाणिक एवं प्रासंगिक अनुसंधान उपकरणों का निर्माण
इस स्तर पर चेकलिस्ट, प्रश्नावली, अनुसूची, साक्षात्कार निदर्शनी, पर्यवेक्षण निदर्शनी, परीक्षण, प्रक्षेपण प्रविधि इत्यादि उपकरणों का अध्ययन आवश्यकतानुसार विकास किया जाता है।
9. तथ्यों /आँकड़ों का संकलन
आवश्यक उपकरणों के निर्माण के पश्चात् इनकी सहायता से अनुसंधान के विभिन्न स्रोतों प्रलेखीय अवस्था क्षेत्रीय से आवश्यक तथ्यों/आँकड़ों को एकत्रित किया जाता है। अध्ययन एवं अभिलेखन पर्यवेक्षण, प्रश्नावली, साक्षात्कार, इत्यादि विधियों का सहारा लेते हुए इच्छित सामग्री का संकलन किया जाता है। पर्यवेक्षण प्रणाली के अन्तर्गत अनुसंधानकर्त्ता स्वयं अनुसंधान क्षेत्र में जाकर तथ्यों का अवलोकन कर संकलन करता है जबकि प्रश्नावली के अन्तर्गत प्रश्नों की एक सूची होती है जो उत्तरदाताओं को भेजकर एवं भरवाकर वापस मंगा ली जाती है। साक्षात्कार के अन्तर्गत अनुसंधानकर्ता स्वयं उत्तरदाताओं से मिलकर एवं अनसे प्रश्न पूछकर तथ्यों का संकलन करता है।
10. संग्रहीत सामग्री का सम्पादन
इस स्तर पर तथ्यों को एकत्रित करते समय या एकत्रित की गयी सूचना का सम्पादन किया जाता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी आवश्यक सूचना वास्तव में एकत्रित कर ली गयी है, तथा एकत्रित की गयी निरर्थक सामग्री को निकाल दिया गया है।
11. वर्गीकरण, संकेतीकरण तथा सारिणीकरण
एकत्रित की गयी सामग्री का अध्ययन करने के पश्चात् इसे विभिन्न श्रेणियों में इस प्रकार विभाजित किया जाता है कि ये श्रेणियाँ एकत्रित की गयी सम्पूर्ण सामग्री को अपने में समाहित करती हो, ये एक-दूसरे से अन्तर्सम्बन्धित किन्तु पृथक् हो ताकि पुनरावृत्ति न हो सके। तदुपरान्त, आवश्यकतानुसार इन श्रेणियों के संकेत भी निर्धारित किए जा सकते हैं ताकि सारिणीकरण के स्तर पर अनावश्यक श्रम तथा समय एवं धन के अपव्यय से बचा जा सके।
इसके बाद सारिणियों का निर्माण इस प्रकार किया जाता है कि ये अध्ययन के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक सिद्ध हो सकें। सारिणियों का निर्माण करते समय इस बात को विशेष रूप से ध्यान में रखा जाना चाहिये कि सारिणियाँ अनावश्यक रूप से जटिल न हो, इनमें स्तम्भों तथा पंक्तियों की संख्या इतनी अधिक न हो कि प्रथम दृश्य इनको देखकर समझ पाना कठिन हो जाए तथा इतनी कम भी न हो कि ऐसा लगे कि श्रेणियों का निर्माण करते हुए सारणी को केवल सारणी बनाने के लिए तैयार किया गया है। स्वतन्त्र चर को स्तम्भों तथा आश्रित चर को पंक्तियों में दिखाया जाना चाहिए।
12. तथ्यों का विश्लेषण तथा निर्वचन
सारणीबद्ध तथ्यों का तार्किक एवं सांख्यिकीय दोनों प्रकार के ढंगों का प्रयोग करते हुये विश्लेषण किया जाता है और विश्लेषण से प्राप्त परिणामों को अन्य अध्ययन से प्राप्त परिणामों के परिवेक्ष्य में प्रस्तुत किया जाता है और सापेक्ष गुणों एवं सीमाओं को उजागर करते हुए निष्कर्ष निकाले जाते हैं।
13. प्रतिवेदन तैयार करना
उपरिलिखित सभी स्तरों पर किये गये कार्यों को अनुसंधान उपभोक्ताओं के समक्ष प्रभावपूर्ण रूप से प्रस्तुत करने हेतु उनकी अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुये प्रतिवेदन तैयार किया जाता है।
14. भावी अनुसंधान हेतु समस्याओं एवं परिकल्पनाओं का सुझाव
इस चरण में समाज कार्य अनुसंधान के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की समस्याओं का उल्लेख किया जाता है जिसके अन्तर्गत अनुसंधान में आयी हुई समस्यायें उल्लिखित होती हैं। वास्तव में समाज कार्य अनुसंधान करने में विभिन्न प्रकार की समस्यायें समाज कार्य अनुसंधानकर्त्ता के सामने उपस्थित होती हैं जिनको कि वह हल करते हुए आगे बढ़ता है। अतः इन समस्याओं का वह अपने प्रतिवेदन में उल्लेख करता है जिससे भविष्य में होने वाले अनुसंधानों की समस्याओं से बचा जा सके। परिकल्पनाओं के बारे में भी सुझाव प्रस्तुत किया जाता है जिससे कि परिकल्पना निर्माण में सहायता प्राप्त हो सके। किसी भी समाज कार्य अनुसंधान का प्रमुख उद्देश्य समाज में व्याप्त समस्याओं का व्यावहारिक निदान प्रस्तुत करना है।
अतः यदि अनुसंधान के अंत में वास्तविक परिकल्पनाओं के निर्माण हेतु सुझाव प्रस्तुत किये जायें तो भविष्य में होने वाले अनुसंधानों की परिकल्पनाओं के निर्माण में सहायता प्राप्त हो सकती है।