समाज कार्य अनुसंधान :
समाज कार्य अनुसंधान के अर्थ को स्पष्ट करने के पहले सामाजिक अनुसंधान, समाज कार्य अनुसंधान और समाज विज्ञान अनुसंधान के अन्तरों को स्पष्ट करना आवश्यक होगा। समाज कार्य के साहित्य का अध्ययन करने से पता चलता है कि प्रारम्भ में सामाजिक अनुसंधान शब्दावली प्रयोग में लाई जाती थी। 1922 में मेरी रिचमण्ड (Mary Richmund) ने ‘समाज कार्य इअर बुक‘ में, सामाजिक अनुसंधान, शब्द का प्रयोग किया।
1933 में प्रकाशित समाज कार्य इअर बुक में ‘समाज कार्य अनुसंधान’ शब्दावली का प्रयोग किया गया। काफी लम्बी अवधि तक समाज कार्य अनुसंधान तथा सामाजिक अनुसंधान कार्य दोनों अवधारणाएं बदल-बदल कर प्रयोग में लायी जाती रही। परन्तु अब समाज कार्य अनुसंधान को एक अधिक विस्तृत अवधारणा मान लिया गया है।
ईवान क्लेग (Evan Kleg) के अनुसार, “समाज कार्य में अनुसंधान” तथ ‘सामाजिक अनुसंधान’ प्रायः एक-दूसरे के स्थान पर प्रयोग में लाये गये हैं, तथा दोनों शब्दों का प्रयोग इतने ढिलाई के साथ किया गया है कि उनकी विषय-वस्तु अनिश्चित परिलक्षित हो रही है। अमेरिका में एक् “वर्कशाप आन रिसर्च इन सोशल वर्क” आयोजित की गई जिसमें जनवरी 1948 में कहा गया कि समाज कार्य और सामाजिक अनुसंधान “मौलिक सामाजिक विज्ञानों में से किसी गति की ओर निर्देशित होता है जबकि समाज कार्य में अनुसंधान व्यावसायिक कार्यकर्ताओं एवं समुदाय द्वारा समाज कार्य करते समय अनुभव की जाने वाली समस्याओं से सम्बन्धित हैं।” वर्कशाप प्रतिवेदन में “सामाजिक अनुसंधान” और “समाज विज्ञान अनुसंधान” अवधारणाओं को समानार्थक समझा गया है जो उपयुक्त नहीं है। इस बात को और भी स्पष्ट किया जा सकता है।
१. “अनुसंधान” में अर्थपूर्ण प्रश्नों और समस्याओं का उत्तर या समाधान ढूँढ़ने के लिए वैज्ञानिक प्रणालियों और कार्यविधियों का प्रयोग किया जाता है।
२. सामाजिक अनुसंधान शब्द का अभिप्राय ज्ञान की वृद्धि सुधार अथवा जाँच करने के लिए सामान्यीकरण के उद्देश्य से सामाजिक घटनाओं पर “अनुसंधान” अर्थात् वैज्ञानिक प्रणालियों एवं कार्यविधियों के प्रयोग से है, चाहे वह ज्ञान सिद्धान्त के निर्माण या कला के प्रयोग में सहायता दे। इस प्रकार सामाजिक अनुसन्धान शब्द को अधिक विस्तृत मानना चाहिये, क्योंकि समाज विज्ञान अनुसन्धान और समाज कार्य अनुसन्धान दोनों ही इसमें सम्मिलित हैं।
समाज कार्य अनुसंधान की परिभाषाएं :
समाज कार्य अनुसंधान को विभिन्न विद्वानों ने निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-
१. फ्लेचर (Joan Flatcher) ने समाज कार्य में अनुसंधान को “समाज कार्य के कार्यों एवं प्रणालियों की वैधता की वैज्ञानिक जाँच” कहकर परिभाषित किया है।
२. क्लीन (Klien) के अनुसार, “ज्ञान का संग्रह जो समाज कार्य में चेतन प्रयोग के लिए और अभ्यासकर्ताओं में निपुणता के विकास के लिए उपलब्ध है वह कुछ तो सामाजिक एवं प्राणिशास्त्रीय विज्ञानों से लिया गया है और कुछ कार्य क्रियाओं की वास्तविक सम्पादन से, इस प्रकार किये हुए तथ्यों को जब संगठित एवं नियमबद्ध किया जाता है तो समाज कार्य के विज्ञान का निर्माण होता है। जब यह तथ्य ज्ञात किये जाते हैं तो संकेत एवं ज्ञान इन नियमों द्वारा नियमबद्ध किये जाते हैं और उन्हें सामान्य सिद्धान्तों का रूप दिया जाता है तब समाज कार्य अनुसंधान की उत्पत्ति होती है।”
३. मैक्डोनाल्ड (Mc Donald) के अनुसार, “समाज कार्य अनुसंधान के अन्तर्गत वे प्रश्न सम्मिलित होते हैं जो समाज कार्य सेवाओं के नियोजन या प्रशासन के बीच उठते हैं, जो समाज कार्य तत्वावधानों के अन्तर्गत अन्वेषण के लिए उपयुक्त होते हैं।”
४. फ्रीडलैण्डर (Friedlander) के अनुसार, “समाज कार्य में अनुसंधान समाज कार्य ज्ञान एवं निपुणता की जाँच, सामान्यीकरण और विस्तार करने के लिए समाज कार्य संगठन, कार्य एवं प्रणालियों की वैधता की आलोचनात्मक पूछताछ एवं वैज्ञानिक परीक्षण है।”
इस उपरलिखित विवरण का अध्ययन करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि समाज कार्य अनुसंधान समाज कार्य व्यवसाय द्वारा अपनी क्रिया के दौरान अपनाये गये सहायक ढंगों में से एक ऐसा ढंग है जो अन्य सभी प्राथमिक एवं सहायक ढंगों का प्रभावपूर्णता को बढ़ाने के लिए मान्यताओं से सम्बन्धित ज्ञान को परिकल्पनात्मक ज्ञान में और तत्पश्चात् इसे प्रमाणिक ज्ञान के रूप में निरन्तर परिवर्तित करने का प्रयास करता हैं।
समाज कार्य अनुसंधान की विशेषताएं :
1. समाज कार्य अनुसंधान के द्वारा सेवार्थी की अप्रत्यक्ष रूप से सहायता की जाती है।
2. यह अपने कार्यक्रम के अन्तर्गत वैज्ञानिक ढंगों को उपयोग में लाता है। निम्नलिखित चरण होते हैं-
१. समस्या के क्षेत्र के विषय का चुनाव– किसी भी अनुसंधान का प्रथम चरण समस्या के क्षेत्र के विषय का चुनाव है। अतः समाज कार्य अनुसंधान भी सर्वप्रथम समस्या के क्षेत्र के विषय का चुनाव करता है।
२. समस्या का परिसीमन– समस्या का परिसीमन के अन्तर्गत समाज कार्य अनुसंधान में समस्या की उपयुक्तता एवं सीमांकन किया जाता है।
३. उपलब्ध सामग्री का अध्ययन– उपलब्ध सामग्री के अध्ययन से तात्पर्य पूर्व में हुए अनुसंधानों के बारे में जानकारी प्राप्त करना एवं उनसे प्राप्त निष्कर्षो का होने वाले अनुसंधान में उपयोग करना।
४. उपकल्पना का निर्माण– इसके अन्तर्गत कोई भी अनुसंधानकर्त्ता सर्वप्रथम उपकल्पना का निर्माण करता है जिसमें अनुसंधान करने वाले विषय के बारे में पूर्व ही अनुमान के आधार पर निष्कर्ष के बारे में भविष्यवाणी कर ली जाती है तथा अनुसंधान करने के बाद उपकल्पना सही है तो वह अनुसंधान सही दिशा में किया गया है।
५. उपकरणों का निर्माण– समाज कार्य अनुसंधान हेतु विभिन्न प्रकार के उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।
६. तथ्यों का संकलन– इस चरण में प्राथमिक एवं द्वितीयक तथ्यों का संकलन किया जाता है एवं उनके माध्यम से तथ्यों के बारे में निष्कर्ष निकाला जाता है।
७. तथ्यों का सम्पादन– इस चरण में विभिन्न प्रकार के तथ्यों का सम्पादन किया जाता है। जिसमें उपयुक्त तथ्य तो रख लिये जाते हैं बाकि अनुपयुक्त तथ्य हटा दिये जाते हैं।
८. तथ्यों का वर्गीकरण कर सारणीकरण– सम्पादन के बाद तथ्यों का वर्गीकरण किया जाता है। एवं उनका सारणीकरण कर निष्कर्ष निकाला जाता है।
९. तथ्यों का विश्लेषण एवं विवेचन— इस चरण में वर्गीकरण एवं सारणीकरण के बाद जो निष्कर्ष निकाला जाता है उनका उपयुक्त विश्लेषण एवं विवेचन किया जाता है।
१०. प्रतिवेदन– समाज कार्य अनुसंधान का यह अन्तिम चरण है जिसमें प्राप्त निष्कर्षों का लेखन किया जाता है जो भविष्य में होने वाले अनुसंधानों में सहायता प्रदान करता है।
3. सेवार्थी को अधिक वैज्ञानिक ढंग से सेवा प्रदान करने के लिए नये ढंगों की खोज की जाती है।
4. समाज कार्यकर्त्ता को नवीन ज्ञान, प्रविधि, निपुणता तथा कौशल प्राप्त होता है।
5. नये ज्ञान की खोज की जाती है तथा उपलब्ध ज्ञान को प्रमाणित किया जाता है।
6. समाजिक घटनाओं के कारणों की खोज की जाती है।
7. सामाजिक समस्याओं के कारणों का पता लगाते हुए उनके समाधान के उपाय सुझाए जाते हैं।