राज्य के कार्यों का फासीवादी सिद्धांत :
राज्य के फासीवादी कार्यों का संबंध उस विशिष्ट विचारधारा से है जिसका उदय इटली (Italy) में हुआ था। फासीवाद इटैलियन भाषा के “फैसियो” शब्द से निकला है जिसका अर्थ होता है- लकड़ियों का बँधा हुआ बोझ। प्राचीन काल में रोम के राज्य चिन्ह फैसियो अर्थात लकड़ियों का बंधा हुआ बोझ व एक कुल्हाड़ी होता था। लकड़ियों का बंधा हुआ बोझ राष्ट्रीय एकता व कुल्हाड़ी राजकीय शक्ति का प्रतीक मानी जाती थी। मुसोलिनी के नेतृत्व में इटालियन फासीवाद ने इसी चिन्ह का प्रयोग किया तथा वर्ग संघर्ष पर आधारित साम्यवादी समाज व्यवस्था के स्थान पर राजकीय नियंत्रण के अन्तर्गत राष्ट्रीय एकता पर आधारित फासीवादी समाज व्यवस्था को अपना ध्येय माना।
फासीवाद का उदय इटली में प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के उपरांत हुआ था। प्रथम विश्व युद्ध में इटली ने ब्रिटेन तथा फ्रांस के साथ भाग लिया था। प्रथम विश्व युद्ध में यद्यपि मित्र राष्ट्रों ब्रिटेन तथा फ्रांस की विजय हुई थी परन्तु विजय के उपरांत मिले लाभों का लाभांश उचित ढंग से इटली को न प्राप्त हो सका था। इटली में विद्यमान तत्कालीन लोकतांत्रिक शासन की वह ऐसी विफलता थी जिसके कारण वहां की जनता लोकतंत्र का विरोध करने लगी तथा वह ऐसे नेतृत्व की तलाश करने लगी जो इटली का खोया हुआ सम्मान वापस दिला सके। ऐसे समय में इटली में मुसोलिनी का उदय हुआ जिसने अपने फासावादी विचारों के सहारे इटली का शासन सत्ता पर समाधिकार स्थापित कर लिया।
फासीवाद की व्याख्या एवं प्रमुख विशेषताएं :
फासीवाद विचारधारा किसी व्यवस्था विशेष में विश्वास नहीं करती है। इसका जन्म क्रियात्मक आवश्यकता के कारण हुआ तथा यह विचारधारा व्यावहारिक कार्य योजना के सहारे ही आगे बढ़ सकी थी। स्वयं मुसोलिनी का मानना था कि “फांसीवाद का संबंध किसी ऐसी नीति के समर्थन से नहीं है जिस पर विवरण सहित पहले से विचार किया गया हो।” वास्तव में यह विचारधारा राजनीति के उद्देश्य विशेष को प्राप्त करने का साधन मात्र मानती है। यह सिद्धान्तों की नैतिकता में विश्वास भी नहीं करती। यही कारण है कि इस विचारधारा को सत्तावादी राजनीति का सिद्धान्त भी कहा जा सकता है। इस दृष्टि से फासीवाद कुछ निश्चित मान्यताओं पर आधारित धारणा मानी जाती है जो इस प्रकार है-
1. व्यक्तिवाद का विरोध
मुसोलिनी का कहना था कि “सब राज्य के अन्तर्गत है कोई भी राज्य के बाहर नहीं है और न ही कोई राज्य के विरोध में है।” अतः यह स्पष्ट है कि फासीवादी विचारधारा एकांकी व्यक्ति व व्यक्तिवाद का विरोधी है। फासीवाद, सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राज्य में विश्वास करता है तथा नैतिक एवं कानूनी सभी क्षेत्रों में व्यक्ति को राज्य के अधीन मानता है। उसकी मान्यता है कि मनुष्य केवल राज्य की इच्छा को अपनी इच्छा मानकर फल फूल सकता है तथा अपनी संस्कृति एवं सभ्यता का विकास करा सकता है। अतः मनुष्य को अपने हितों का राज्य के हितों के समक्ष बलिदान कर देना चाहिए।
2. लोकतंत्र का विरोध
फासीवाद लोकतंत्र को मूर्खतापूर्ण, भ्रष्ट, धीमी, काल्पनिक तथा अव्यवहारिक प्रणाली मानते हैं। फासीवादियों के अनुसार यद्यपि लोकतांत्रिक शासन में शासन-शक्ति राजाओं अथवा कुलीनवर्ग के हाथों में न रहकर जनता के प्रतिनिधियों के हाथ में रहती है। परन्तु व्यवहार में वह शिक्षित तथा चालाक व्यक्तियों के हाथ में रहती है तथा आम जनता को मात्र मत देने का अधिकार मिला होता है। लोकतंत्र से मात्र पूंजीवाद को फलने फूलने का अवसर प्राप्त होता है। आवश्यकता इस बात की है कि लोकतंत्र को समाप्त करके ऐसी व्यवस्था की स्थापना की जाये जिसमें अमीर-गरीब का भेद भुलाकर सभी को एक समाज का अंग माना जाये तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के स्थान पर सभी को समान रूप से उन्नति का अवसर प्राप्त हो।
3. बुद्धिवाद का विरोध
फासीवादी बुद्धि व तर्क के स्थान पर निष्ठा एवं विश्वास का समर्थन करते हैं। केवल बुद्धिवाद व तर्क के आधार पर मनुष्य सुखमय जीवन बिता सकता है। अपने जीवन को पूर्णतया सुखमय बनाने के लिए उसे जीवन के कुछ ऐसे आदर्शों को मानना पड़ सकता है जो साधारणतया तर्क की कसौटी पर खरे न उतरते हो। व्यक्ति के सामने सर्वोपरि लक्ष्य राष्ट्रहित की साधना है और उसे किसी भी प्रकार के तर्क पर परे जाकर मानना चाहिये।
4. समाजवाद का विरोध
फासीवादियों का मार्क्स द्वारा प्रतिपादित वर्ग संघर्ष तथा समाजवाद में विश्वास न था। उनका कहना था कि समाज में संघर्ष के स्थान पर परस्पर सहयोग होना चाहिये क्योंकि यदि समाज में श्रमिक वर्ग संघर्ष के स्थान पर सहयोग से रहेंगे तो इसमें सम्पूर्ण राष्ट्र की भलाई होगी तथा राष्ट्र की भलाई में ही समाज के सभी वर्गों का कल्याण निहित है। ब्रिटेन तथा फ्रांस के किसानों एवं मजदूरों का उदाहरण हमारे सामने है जो हमें यह बताता है कि बिना समाजवाद के भी श्रमिकों एवं कृषकों की दशा अच्छी हो सकती है।
अतः फासीवादियों का विश्वास है कि यदि सब लोग परस्पर मिलकर राष्ट्र की उन्नति में जुटे रहें तो कल्याण हो सकेगा। इसके अतिरिक्त फासीवादी यह भी नहीं मानते कि मनुष्य का सुख दुख केवल पैसे पर निर्भर है। उसका मत था कि समाज की केवल आर्थिक उन्नति से मनुष्य की सर्वतोन्मुखी उन्नति नहीं हो सकती। वास्तव में फासीवाद पारस्परिक सहयोग के आधार पर राजकीय नियंत्रण में सम्पूर्ण राष्ट्र की सर्वतोन्तुखी उन्नति में विश्वास करता है।
5. शान्ति एवं अन्तर्राष्ट्रीयता का विरोध
फासीवादी विश्व शान्ति का विरोध करते हैं। मुसोलिनी ने तो यहां तक कहा था कि जो लोग विश्व शांति की बात करते हैं वे कायर है। विश्व शांति कभी संभव नहीं है। विरोधियों का दमन युद्ध के द्वारा ही किया जा सकता है। यही कारण है कि वे अन्तर्राष्ट्रीयता का भी विरोध करते हैं। उनका मानना है कि प्रत्येक राज्य को अपने अपने कर्तव्यों का पालन व अपने अपने हितों की साधना करनी चाहिये, चाहे इसके लिये अन्य किसी राज्य के हितों का बलिदान भले ही क्यों न करना पड़े।
फासीवादी राज्य के कार्य :
जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है कि फासीवाद राज्य के अन्तर्गत राज्य को साध्य माना जाता है तथा व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह राज्य के लिए अपने हितों का बलिदान कर दे। इस प्रकार राज्य का व्यक्ति के ऊपर प्रभुत्व के साथ साथ वर्चस्व स्थापित हो जाता है। राज्य की शक्तियां इतनी बढ़ जाती है कि वह मानव जीवन के समस्त पक्षों को नियंत्रित एवं निर्देशित करने की स्थिति में आ जाता है। ऐसे में यह सोचना स्वाभाविक है कि राज्य अपने कार्यों का सम्पादन किस प्रकार करेगा। वास्तव में राज्य व्यक्ति के हितों की अपेक्षा राष्ट्र के व्यापक एवं दूरगामी हितों को ध्यान में रखकर अपने कार्य सम्पन्न करता है। इस दृष्टि से राज्य के कार्य इस प्रकार हैं-
1. निगम निर्मित राज्य के सिद्धान्त का समर्थन
फासीवादियों के अनुसार राज्य भिन्न-भिन्न व्यक्तियों का समुदाय न होकर अनेक ऐसे निगमों से मिलकर बना है जिन्हें हम सामाजिक व राजनीतिक जीवन की विविध इकाइयां मान सकते हैं। यही कारण है कि फासीवादी विभिन्न व्यवसाय वालों का पृथक पृथक संगठन निर्माण करा देने में विश्वास करते हैं जिससे सभी संगठन अपने से संबंधित राष्ट्रीय पहल को उन्नत बनाने में लगे तथा राष्ट्र की स्वाभाविक उन्नति हो सके। परन्तु बहुसमुदायवादियों की भांति वे इन समुदायों को अधिकतम स्वतंत्रता देने के पक्षपाती नहीं हैं, वे इन्हें पूर्णतया राज्य के अधीन रखने के पक्षधर है जिससे कि सभी निगम राज्य को उन्नत बनाने के लिये प्रयत्नशील रहे।
2. नेतृत्व की भूमिका
“राज्य की सुचारू भूमिका के लिए नेतृत्व का महत्वपूर्ण योगदान होता है।’’ फासीवादियों के अनुसार संख्या की अपेक्षा गुण की महत्ता अधिक है। वास्तव में जनता की वास्तविक इच्छा क्या है, इसका निर्णय वास्तविक बहुमत द्वारा ही नहीं होता, अपितु उसके मतानुसार उसकी अभिव्यक्ति प्रायः जनता के किसी सर्वमान्य नेता द्वारा ही होती है। उनका कहना है कि जनता की वास्तविक इच्छा क्या है, उसकी अभिव्यक्ति प्रायः जनता के किसी सर्वमान्य नेता द्वारा ही होती है। वही जनता की वास्तविक आवाज को पहचानता है तथा राष्ट्र की आत्मा का सही प्रतिनिधित्व कर सकता है। अतएव राष्ट्रहित में समस्त निर्णय लेने का अधिकार है।
3. संगठन की महत्ता
फासीवाद एक ऐसी शासन व्यवस्था का समर्थन करते हैं जिसका सार किसी बहुसंख्यक परन्तु दृढ़ शक्तिशाली दल के नेतृत्व में अधिनायकीय ढंग से शासन चलाना हैं। उनका मत है कि एक बार यह प्रकट हो जाने पर यह प्रकटीकरण केवल सार्वजनिक मतदान द्वारा ही होना आवश्यक नहीं है कि जनता किस पार्टी तथा किस नेता द्वारा शासन चाहती है उस पार्टी व नेता को अगला कार्यक्रम पूरा करने का पूरा अवसर प्राप्त होना चाहिये। इसी उद्देश्य से मुसोलिनी ने इटली में सन 1923 से यह कानून स्वीकृत कराया था कि निर्वाचन से सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाली पार्टी को इटली की संसद में दो तिहाई स्थान मिलना चाहिये जिससे कि वह बिना किसी बाधा के अपना शासन चला सके।
4. जनता को कर्तव्य बोध का आभास कराना
फासीवादी लोकतंत्र में विश्वास नहीं करते तथा उन कमियों का उपचार करने का प्रयास करते हैं जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में पाई जाती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में दलबंदी बढ़ती है तथा राजनीतिक दल बहुमत प्राप्त करके उसका प्रयोग सार्वजनिक हित साधन की दृष्टि से नहीं वरन दलीय हित साधन की दृष्टि से करता है। आर्थिक क्षेत्र में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में वर्ग संघर्ष से बढ़ावा मिलता है। वास्तव में लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी कमी जनता को कर्तव्य बोध का आभास न होना है। फासावादी व्यवस्था में लोकतांत्रिक के इस दोष को दूर किया जाता है। एक सर्वमान्य नेता के नेतृत्व में जनता को कर्तव्य बोध का आभास कराया जाता है। जिससे कि जनता अपने को राष्ट्रहित में समर्पित कर सके।
5. मिश्रित अर्थव्यवस्थ पर बल
फासीवादी एक ऐसी अर्थव्यवस्था का प्रतिपादन करते हैं जो तो पूर्णतया यद्भाव्यम पर आधारित है और न की समाजवादी मान्यताओं पर। वे न तो ये स्वीकार करते हैं कि सम्पूर्ण आर्थिक व्यवस्था का संचालन राज्य द्वारा हो और न ही उसे पूर्णतया राज्य हस्तक्षेप से मुक्त रखना पसंद करते हैं। उनकी मान्यता है कि केवल बड़े व्यवसाय राज्य द्वारा चलाये जाये शेष सभी व्यवसायों पर उसका केवल नियंत्रण हो । वास्तव में फासीवादियों की सोच है कि देश की अर्थव्यवस्था का स्वरूप ऐसा हो कि समाज के सभी वर्ग राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए पारस्परिक सहयोग से आर्थिक गतिविधियों में अपना योगदान दे।
6. सामान्यवाद व युद्ध का समर्थन
फासीवादियों की मान्यता है कि प्रत्येक राज्य को अपने साम्राज्य के विस्तार करने का पूर्ण अधिकार है। अतएव राज्य अन्य राज्यों के विरूद्ध युद्ध छोड़कर अपने हितों की साधना कर सकता है। राज्य के विस्तारवादी नीति ही राज्य को महान बनाता है तथा जनता में संकल्प, साहस एवं देशभक्ति की भावना का समर्थन करती है।
फासीवादी राज्य की आलोचनाएं :
फासीवादी मूलतः एक सिद्धान्त न होकर एक व्यावहारिक कार्य योजना है जिसका उदय एक विशिष्ट समय में इटली में हुआ था। इसके द्वारा राष्ट्रवाद को नया आयाम मिला परन्तु इसके बावजूद इसकी आलोचना निम्न कारणों से की जाती है –
1. निगम निर्मित राज्य का सिद्धान्त असमंजसपूर्ण
फासीवादी राज्य को विभिन्न निगमों से मिलकर बनी संस्था मानते हैं जो सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन की विविध इकाइयों के रूप में जानी जाती है। यहां एक ओर फासीवादियों का लक्ष्य है कि विभिन्न व्यवसाय वाले इसके माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर अपने हितों की वृद्धि कर सकेंगे परन्तु दूसरी ओर वे इन निगमों को स्वतंत्रता एवं अधिकार देने के पक्ष में भी नहीं हैं तथा इन्हें पूर्णतया राज्य के अधीन ही रखना चाहते हैं। अब यहां प्रश्न उठता हैं कि राज्य में उपस्थित हर समुदाय का अंतिम लक्ष्य राष्ट्र के प्रति समर्पित होना है तो ऐसे अवस्था में अलग अलग निगमों के निर्माण का नया औचित्य क्या है? क्या उन्हें स्वीकृत राष्ट्रीय समूह के अन्तर्गत संगठित नहीं किया जा सकता।
2. तानाशाही का समर्थन अनुचित
फासीवादी एक दृढ़ शक्तिशाली राजनीतिक दल के नेतृत्व में तानाशाही का समर्थन करते हैं तथा इस बात पर बल देते हैं कि एक बार जनता का मत प्रकट हो जाने के उपरांत यह तय हो जाना चाहिये कि जनता किस राजनीतिक दल और नेता को चाहती है, उस राजनीतिक दल एवं नेता को पूर्ण अवसर प्राप्त होना चाहिये। इसी आधार पर मुसोलिनी ने इटली (Italy) के शासन तंत्र पर कब्जा किया था। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कोई भी धूर्त व्यक्ति जनता की भावनाओं को भड़काकर शासन तंत्र पर कब्जा कर सकता है। ये अवस्था राष्ट्र एवं जनता दोनों लिए घातक सिद्ध होती है तथा ऐसे तानाशाह का अन्ततः पतन दुखदायी होता है। हाल के वर्षों में इराक में सद्दाम हुसैन तथा मित्र में होशनी मुबारक का पतन इसका ज्वलंत उदाहरण है।
3. लोकतात्रिक मान्यताओं का विरोध
फासीवादी लोकतंत्र की आधारभूत मान्यताओं स्वतंत्रता, समानता, भाई-चारे का विरोध करता है तथा व्यक्ति को राज्य के प्रति समर्पण करने को विवश कर देता है। व्यक्ति के लिए यही आवश्यक समझा जाता है कि वह एक व्यक्ति अथवा एक दल के आदेशों का पालन करें। ऐसी व्यवस्था में व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास करने में असमर्थ रहता है तथा व्यक्ति के साथ साथ राज्य का विकास भी अवरूद्ध हो जाता है।
4. समाजवाद का नारा भ्रमपूर्ण
फासीवाद राष्ट्रीय हित के नाम पर जनता का एकीकरण करके समाजवाद का नारा अवश्य देते हैं परन्तु एक ओर जहां वे श्रमिकों की स्वतंत्रता समाप्त कर देते हैं वहीं दूसरी ओर ऐसी अर्थव्यवस्था का समर्थन करते हैं जो न तो पूर्ण उदारवादी है तथा न ही पूर्ण समाजवादी। उनकी मान्यता है कि बड़े व्यवसाय राज्य द्वारा संचालित हो तथा शेष के ऊपर राज्य का केवल नियंत्रण बना रहे। यह अवस्था अत्यन्त खतरनाक है जो एक ओर पूंजीवाद को सशक्त करती है, दूसरी ओर मजदूर वर्ग के शोषण और अन्याय का मार्ग प्रशस्त करती हैं। ऐसे राज्य में समाजवाद का नारा अत्यन्त भ्रमपूर्ण हो जाता है तथा आम जनता धोखाधड़ी का शिकार हो जाती है।
5. साम्राज्यवाद एवं युद्ध का समर्थन
फासीवादी साम्राज्यवाद का समर्थन करता है कि उसका प्रभुत्व क्षेत्र बढ़े। यही कारण है कि फासीवादी युद्ध का समर्थन करते हैं तथा शांति का विरोध करते हैं। वे शक्ति की राजनीति का भी समर्थन करते हैं जिससे साम्राज्यवादी भावना आन्तरिक एवं बाह्य दोनों रूप से सशक्त रहे। यह अवस्था राज्यों तथा विश्व राजनीति दोनों के लिए घातक है। इटली (Italy) में फासीवाद तथा जर्मनी में नाजीवाद के उदय ने न केवल द्वितीय विश्व युद्ध का मार्ग प्रशस्त किया बल्कि इटली और जर्मन को इस उस युद्ध में तबाही का सामना करना पड़ा। द्वितीय विश्व युद्ध के ही परिणामस्वरूप ही जर्मनी में हिटलर तथा इटली में मुसोलिनी का पतन हुआ।
# अन्ततः यह कहा जा सकता है कि उन परिस्थितियों में जिनमें उनका उदय इटली एवं जर्मनी में हुआ, फासीवाद की कोई भी उपयोगिता रही हो, उसे समाज की स्थायी व्यवस्था के रूप में नहीं स्वीकार किया जा सकता। वास्तव में यह वह सिद्धान्त है कि जो आन्तरिक क्षेत्र में शक्ति व राजकीय बर्बरता का तथा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में युद्ध एवं विनाश का समर्थन करता है। अतः सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन के स्थायी दर्शन के रूप में इसे कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता।