राजनीतिक व्यवस्था व समाज में अंतः संबन्ध (Rajnitik Vyavstha Aur Samaj)

राजनीतिक व्यवस्था व समाज में अंतः संबन्ध :

मनुष्य के जीवन की पहली पाठशाला समाज ही है। यहीं वह अच्छे-बुरे का ज्ञान प्राप्त करता है, जीवन जीने के तौर-तरीके सीखता है, और सामाजिकता का अर्थ समझता है। जैसा कि महान दार्शनिक अरस्तु ने कहा है, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और समाज में रहना उसकी मूलभूत आवश्यकता है। जब से इस सृष्टि का आरंभ हुआ है और मनुष्य का जन्म हुआ है, उसी समय से समाज का निर्माण भी हुआ है। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि समाज मनुष्यों या समूहों के बीच पाए जाने वाले पारस्परिक संबंधों और व्यवस्थाओं का एक ताना-बाना है। मैकाइवर और पेज ने भी ठीक ही कहा है कि “समाज सामाजिक संबंधों का एक जाल है।”

प्रत्येक समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए कुछ नियमों, कानूनों और व्यवस्थाओं की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार एक गाड़ी को चलाने के लिए उसके पहियों का सही होना आवश्यक है, उसी प्रकार एक समाज को चलाने के लिए सामाजिक व्यवस्थाओं का महत्वपूर्ण योगदान होता है। समाज को और देश को वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार ढालने के लिए, सामाजिक व्यवस्था के साथ-साथ राजनीतिक व्यवस्था भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। हर समाज में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्थाएं अपना विशेष महत्व रखती हैं। इन सभी परिस्थितियों का जन्म समाज में ही होता है। समाज में व्यवस्था बनाए रखने और सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए नए विचारों का आना ज़रूरी है, और यह सामाजिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन राजनीतिक व्यवस्था का ही एक हिस्सा है। इस प्रकार, राजनीतिक व्यवस्था भी समाज का एक अभिन्न अंग है। दोनों के बीच एक गहरा संबंध होता है। विभिन्न विद्वानों ने इन दोनों के संबंधों को अपने-अपने दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया है। ये दोनों व्यवस्थाएं एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं और एक स्वस्थ और प्रगतिशील समाज के निर्माण में सहायक होती हैं।

कैटलिन का मानना है कि राजनीति संगठित समाज का अध्ययन है, इसलिए समाज और राजनीतिक व्यवस्थाएं आपस में गहराई से जुड़ी हुई हैं। उन्हें अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। कैटलिन ने समाज और राजनीतिक व्यवस्थाओं की अवधारणाओं के बीच मौजूद गहरे संबंधों को स्पष्ट किया है। कई विद्वानों ने राजनीतिक गतिविधियों और प्रक्रियाओं को बेहतर ढंग से समझने के लिए समाजशास्त्रीय सिद्धांतों का अध्ययन किया और उनका उपयोग किया। ये सिद्धांत न केवल सामाजिक व्यवस्था से जुड़े थे, बल्कि राजनीतिक व्यवस्था पर भी उनका प्रभाव था। इन विद्वानों ने यह दिखाया कि राजनीतिक और सामाजिक पहलू एक-दूसरे से कितने निकटता से जुड़े हुए हैं।

नॉर्मन डी. पामर और फिलिप्स का मानना है कि सामाजिक रुझानों का राजनीतिक व्यवस्थाओं पर गहरा असर होता है। इसके विपरीत, रजनी कोठारी और रुडोल्फ का कहना है कि राजनीतिक व्यवस्थाओं ने सामाजिक रुझानों को ज़्यादा प्रभावित किया है। राजनीतिक व्यवस्था और समाज के आपसी रिश्तों पर विचार करते समय, यह ज़रूरी है कि हम सामाजिक संरचना और व्यवस्था के सभी तत्वों और मूल्यों पर राजनीतिक व्यवस्था के पारस्परिक प्रभावों को ध्यान में रखें। रजनी कोठारी की किताब, ‘Caste in Indian Politics‘ में भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका का विस्तृत विश्लेषण है। उनका मत है कि भारत की जनता जाति के आधार पर संगठित है। इसलिए, अनचाहे भी, राजनीति को जाति व्यवस्था का उपयोग करना पड़ता है।

राजनीतिक व्यवस्था, असल में सामाजिक परिस्थितियों का ही परिणाम होती है। हर समाज और देश की अपनी अलग सामाजिक परिस्थितियाँ होती हैं, और इन्हीं परिस्थितियों के आधार पर अलग-अलग राजनीतिक व्यवस्थाएं जन्म लेती हैं। यह भी सत्य है कि राजनीतिक व्यवस्थाएं सामाजिक व्यवस्थाओं को प्रभावित करती हैं। यानि, राजनीति समाज को आकार देती है, और समाज राजनीति को। ऊपर दिए गए तथ्यों से यह स्पष्ट है कि राजनीतिक व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था, दोनों एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। इन दोनों के बीच एक मजबूत सहसंबंध है, जो एक-दूसरे को लगातार प्रभावित करता रहता है। एक के बिना दूसरे की कल्पना करना मुश्किल है।

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