प्रतिस्पर्धा :
प्रतिस्पर्धा का अध्ययन समाजशास्त्रियों ने एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में किया है जिसे यह कहा जा सकता है कि यह संघर्ष का एक रूपांतरित स्वरूप है। निःसंदेह प्रतिस्पर्धा को सामाजिक संघर्ष की एक अनवरत प्रक्रिया कही जा सकती है। प्रतिस्पर्धा में एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से परस्पर विरोधी प्रयास देखने को मिलता है। ब्रुम तथा सेल्जेनिक का कहना था कि जब एक सीमित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दो या दो से अधिक व्यक्ति या समूह परस्पर विरोधी तरीकों के द्वारा लक्ष्य प्राप्त करने की कोशिश करते हैं तो प्रतिस्पर्धा की प्रक्रिया तेज होती है।
मैक्स वेबर ने प्रतिस्पर्धा की परिभाषा देते हुए इसे शांतिप्रिय संघर्ष कहा है जिसमें कम संसाधन को प्राप्त करने की कोशिश व्यक्ति करते हैं। जॉर्ज सीमेल ने प्रतिस्पर्धा को अप्रत्यक्ष संघर्ष मानते हुए यह बताया है कि यहाँ पर प्रतिद्वन्दी भी एक दूसरे को मिटाना नहीं चाहते बल्कि एक दूसरे से आगे निकलना चाहते हैं जैसे दौड़ की प्रतियोगिता में एक धावक दूसरे धावक से आगे निकलने की इच्छा रखता है उसे मिटाने की बात कभी नहीं सोचता।
प्रतिस्पर्धा की परिभाषाएं :
मैक्स बेवर के अनुसार – “प्रतिस्पर्धा शांति पूर्ण संघर्ष है।”
गिलिन और गिलिन के अनुसार – “प्रतिस्पर्धा वह सामाजिक प्रक्रिया है जिसमे प्रतिद्वंद्वी व्यक्ति या समूह किसी जनता के समर्थन तथा प्राथमिकता के माध्यम से लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न करते है और उस व्यक्ति या समूह को अपने हितों के समर्थन में अनुरोध करते है न की अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हिंसा या इसके भय का प्रयोग।”
बीसेंज और बीसेन्ज के अनुसार – “दो या अधिक व्यक्तियों के द्वारा समान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किए गए प्रयत्न को प्रतिस्पर्धा कहते है, जिसके सब हिस्सेदार नहीं बन सकते क्योंकि वे समान लक्ष्य सीमित है।”
बोगार्डस के अनुसार – “प्रतिस्पर्धा किसी ऐसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए एक प्रकार की होड़ है जो इतनी मात्रा मे नहीं पायी जाती जिससे की माँग की पूर्ति हो सके।”
फेयरचाइल्ड के अनुसार – “सीमित वस्तुओं के उपयोग या अधिकार के लिए किया जाने वाला प्रयत्न प्रतिस्पर्धा है ।”
ग्रीन के अनुसार – “प्रतिस्पर्धा में दो या अधिक व्यक्ति या समूह समान लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करते है जिसको कोई भी दूसरों के साथ बांटने के लिए न तो तैयार होता है। और न ही इसकी अपेक्षा की जाती है।”
कार्ल मार्क्स ने प्रतिस्पर्धा को कभी एक सार्वभौमिक प्रक्रिया नहीं बताया उन्होंने इसे पूँजीवादी व्यवस्था का आवश्यक पहलू बताया है। मार्क्स ने पूँजीवादी सिद्धान्त का वर्णन करते हुए तीन प्रकार के प्रतिस्पर्धा का विश्लेषण किया है जो निम्न है –
इस प्रकार मार्क्स के द्वारा प्रकट किए गए विचारों में प्रतिस्पर्धा के कारण संघर्ष की स्थिति बनी रहती है जिसमें एक श्रमिक क्रांतिकारी वर्ग चेतना के द्वारा वर्ग संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है जिसके परिणामस्वरूप पूँजीवादी व्यवस्था का विनाश संभव होता है। ऐसा मार्क्स का मानना था।
मैक्स वेबर ने जब प्रतिस्पर्धा को एक शांतिप्रिय संघर्ष बताया तब उन्होंने निम्न दो प्रकार के प्रतिस्पर्धा की चर्चा की है :
- 1. नियोजित प्रतिस्पर्धा
- 2. अनियोजित प्रतिस्पर्धा
1. नियोजित प्रतिस्पर्धा में एक प्रकार का सामाजिक स्तर पर सदस्यों का चयन होता है। इस प्रकार की प्रतिस्पर्धा को किसी पद किसी स्थान के लिए एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है । उदाहरण के लिए शिक्षक बनने के लिए एक प्रकार के चयन की प्रणाली में भाग लेना आवश्यक होता है जो व्यक्ति इस चयन प्रणाली में सफल होते हैं, उन्हें ही शिक्षक के रूप में चुना जाता है। ऐसी ही प्रतिस्पर्धा प्रशासकीय सेवा में स्थान प्राप्त करने के लिए होती है।
2. अनियोजित प्रतिस्पर्धा में स्वाभाविक चयन की प्रक्रिया होती है. इस स्वाभाविक चयन की प्रक्रिया में हिंसात्मक प्रवृत्तियाँ भी देखी जा सकती है जिसके कारण प्रतिद्वन्दियों के बीच लक्ष्य प्राप्ति के लिए एक दूसरे को मिटा देने का भाव भी पैदा हो जाता है। उदाहरण के लिए जब भीड़ में किसी कारण से खलबली मच जाए तो सभी लोग प्रयास करते हैं। अपनी जान बचाकर भागने की और इस प्रक्रिया में कभी-कभी छोटे बच्चे व कमजोर लोग दबकर मर भी जाते हैं। इस प्रकार के उदाहरण हम अकसर देखते हैं जब किसी बिल्डिंग में आग लग जाए तो सभी लोग सुरक्षित स्थान पर पहुँचने के लिए बेतहाशा भागने लगते हैं, इस प्रक्रिया में भी जान-माल की क्षति हो सकती है। समाजशास्त्रियों ने प्रतिस्पर्धा का वर्णन करते हुए जिन विशेषताओं का उल्लेख किया है वह निम्न है :
प्रतिस्पर्धा के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख करते हुए निम्न पाँच प्रकार के क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा देखी जा सकता है :
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि प्रतिस्पर्धा के विभिन्न आयामों के अध्ययन से सामाजिक प्रक्रियाओं के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त होती है। समाजशास्त्रियों ने इसके विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हुए, प्रतिस्पर्धा के स्थायित्व की भी चर्चा की है। इसके स्थायीत्व के साथ-साथ सामाजशास्त्रियों ने इसके विभिन्न स्वरूपों का वर्णन, विभिन्न सामाजों में भी किया है। उदाहरण के लिए यह कहा जा सकता है कि कार्ल मार्क्स ने पूँजीवादी व्यवस्था तथा औद्योगिक व्यवस्थाओं के विस्तार से विश्लेषण किया है। इसके तीसरे स्तर पर प्रतिस्पर्धा के जिस रूप का विश्लेषण सामाजशास्त्रियों ने किया हैं, उसमें प्रतिस्पर्धा की भूमिका एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के व्यवहार को कैसे नियंत्रित करता है. इस संदर्भ में किया है।