# पर्यावरण शिक्षा का उद्देश्य एवं महत्त्व | Paryavaran Shiksha Ka Uddeshya avm Mahatva

पर्यावरण की परिभाषा, उद्देश्य एवं महत्व :

पर्यावरण (Environment) दो शब्दों से मिलकर बना है, परि और आवरण। पर्यावरण में हमारे वातावरण में पाये जाने वाले सभी जीव-जन्तु, मानव इत्यादि आते हैं। इसके साथ ही साथ पर्यावरण में, वायु, जल, भूमि आदि भी सम्मिलित हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि वातावरण में सभी जीवित और अजीवित की क्रियाओं से ही वातावरण का निर्माण होता है।

पर्यावरण में हम सभी पृथ्वी में होने वाली जीवित-अजीवित अवस्थाओं का अध्ययन करते हैं। इसे यदि हम विज्ञान के सम्बन्ध में देखें तो इसे जीव विज्ञान, रसायन-विज्ञान, भौतिक विज्ञान, भूविज्ञान, भूगोल के अध्ययन से पर्यावरण को अच्छे से समझा जा सकता है। पर्यावरण में सूक्ष्म-जीवों के साथ-साथ सजीव-निर्जीव का आपस में अध्ययन अच्छी प्रकार से किया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पर्यावरण में चाहे सूक्ष्म जीव हो, चाहे अजीवित या जीवित हो, का आपस में पर्यावरणीय सम्बन्ध होता है। इन सभी की उपस्थिति कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी तरह आपस में एक-दूसरे को प्रभावित करती रहती है।

यदि हम बारीकी से पर्यावरण का अध्ययन करें तो हम देखते हैं कि पृथ्वी में कोई भी जीव-जन्तु अपना जीवन एकल या विलगित जीवन व्यतीत नहीं कर सकता। कहीं-न-कहीं उसका सम्बन्ध पर्यावरण में रहने वाले अन्य जीवित से कुछ-न-कुछ अवश्य रहेगा।

जीवों पर पर्यावरण का प्रभाव हमेशा पड़ता है। यह प्रभाव उनकी भौतिक क्रियाओं से सम्बन्धित रहता है। चाहे यह प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से हो या परोक्ष रूप से। उदाहरण के लिए, सूर्य के प्रकाश से समझ सकते हैं, पर्यावरण में जितना महत्त्व जीव-जन्तु, जल, वायु एवं मिट्टी का है उतना ही महत्त्व सूर्य के प्रकाश का भी है। हालांकि यह पृथ्वी से काफी दूर है।

पर्यावरण (Environment) के अध्ययन के लिए हम पर्यावरण को दो भागों में विभक्त करते हैं-

  1. जैविक घटक (Biotic Components),
  2. अजैविक घटक (Abiotic Components)।
1. जैविक घटक (Biotic Components)

जैविक घटक में पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी घटक आते हैं-

  1. जीव-जन्तु,
  2. पेड़-पौधे,
  3. सूक्ष्म जीव,
  4. मनुष्य।
2. अजैविक घटक (Abiotic Components)

अजैविक घटक में निम्न घटक आते हैं-

  1. वायु
  2. जल
  3. भूमि
  4. खनिज
  5. ऊर्जा
  6. भौगोलिक संरचना
  7. अग्नि इत्यादि।

पर्यावरण की परिभाषा :

पर्यावरण का इतिहास भी उतना ही पुराना है जितना पुराना मानव का इतिहास, क्योंकि पर्यावरण का ज्ञान मानव द्वारा ही दिया गया।

“प्रकृति में सम्मिलित रूप से जीव-जन्तु, पेड़-पौधों, वायु, जल, मृदा आदि सभी के सम्मिलित रूप को हम पर्यावरण कहते हैं।”

“समस्त भौतिक (Physical) तथा जैविक (Biotic) परिस्थितियों द्वारा जीवों की अनुक्रियाओं को प्रभावित करने वाले वातावरण को ही पर्यावरण कहते हैं।”

“जलमण्डल” (Hydrosphere), स्थलमण्डल (Lithosphere) तथा वायुमण्डल (Atmosphere) को मिलाकर जीवमण्डल (Bio-sphere) कहते हैं। इसी जीवमण्डल को ही कुछ वैज्ञानिक पर्यावरण भी कहते हैं।”

पर्यावरण शिक्षा का उद्देश्य एवं महत्त्व :

पर्यावरण की व्यापक परिभाषा के बाद हमें यह समझना अति आवश्यक हो जाता है कि प्राकृतिक संसाधन हमारे लिए कितने महत्त्व के हैं। इन प्राकृतिक संसाधनों का महत्त्व हम तभी जान सकते हैं जब हम पर्यावरण का अध्ययन करें एवं पर्यावरण को सुरक्षित रखें। यह सुरक्षा का अध्ययन ही हमें मूलतः पर्यावरण का उद्देश्य एवं महत्त्व समझाता है।

पर्यावरण का अध्ययन करते समय हमें प्रकृति के प्रति आकर्षण के साथ-साथ हमारी जिज्ञासु प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है एवं इससे हम पर्यावरण के प्रति अपना एक अनोखा रिश्ता भी बनाते हैं। आज यह बहुत जरूरी हो गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को पर्यावरण की शिक्षा दी जाये। पाठ्यक्रम में पर्यावरण की शिक्षा के शामिल करने का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों को पर्यावरण के महत्त्व को समझाना है। विश्व प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री रॉस के अनुसार, “शिक्षा के नैतिक उद्देश्य पर ध्यान देने वाले अध्यापक पर्यावरण को पूरी तरह भूल जाते हैं।”

पर्यावरण के बिना मनुष्य का व्यक्तित्व अर्थहीन बनकर रह जाता है क्योंकि मनुष्य प्रकृति के ऊपरी अपनी आवश्यकताओं के लिए निर्भर रहता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मनुष्य का प्रकृति से गहरा रिश्ता है। प्रकृति में उनके घटकों का सन्तुलन एवं समन्वय बना रहता है। यदि हम उनमें असन्तुलन का वातावरण बना दें तो निश्चित रूप से उनके घटक संकट में पड़ जाते हैं।

मनुष्य का स्वाभाविक विकास केवल प्राकृतिक वातावरण में सम्भव है। विद्यार्थियों को पर्यावरण शिक्षा देने का मूल मंत्र यही है कि उन्हें प्रकृति में होने वाले सन्तुलन और साथ-ही-साथ असन्तुलन की शिक्षा का भी ज्ञान कराया जाये। जिससे वे अपने जीवन में प्रकृति के साथ-साथ पर्यावरण को अपना एक अंग मानते हुए तथा उसके महत्त्व को समझते हुए पर्यावरण को अपनायें, उसकी सुरक्षा करें और उसका महत्त्व आने वाली पीढ़ी को भी समझायें। पर्यावरण की रक्षा करने से स्वयं की रक्षा, समाज की रक्षा एवं देश की रक्षा होती है।

पर्यावरण शिक्षा क्या है या पर्यावरण की शिक्षा विद्यार्थियों को किस प्रकार दी जाये इसके लिए यह महत्वपूर्ण है कि पर्यावरण के उद्देश्य और महत्त्व को अच्छी तरह समझा जाये। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री बोसिंग के अनुसार, “शिक्षा का कार्य व्यक्ति का पर्यावरण से सामंजस्य स्थापित करना है जिससे व्यक्ति और समाज दोनों को ही फायदा हो सके।”

इसी प्रकार टामसन ने भी पर्यावरण के महत्त्व को समझाते हुए लिखा है कि “पर्यावरण ही शिक्षक है और शिक्षा का कार्य छात्र को उसी पर्यावरण के अनुकूल बनाना है।” प्राचीन काल में भी यदि हम शिक्षा के बारे में देखें तो पाते हैं कि गुरुकुल या आश्रम में प्रकृति के माध्यम से ही शिक्षा दी जाती थी। प्रकृति का वर्णन कहानियों के माध्यम से ‘पंचतंत्र‘ में भी समझाया गया है। घर, समाज सभी पर्यावरण के हिस्से हैं अतः हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि पृथ्वी में कोई भी वस्तु प्रकृति से अलग नहीं है इसलिए प्रकृति सर्वोपरि है।

जब तक हम विद्यार्थियों को सही तरीके और सही दिशा में पर्यावरण का ज्ञान नहीं देंगे तब तक हमारा अध्ययन का उद्देश्य पूरा नहीं होगा। पर्यावरण शिक्षा में हम जैविक और अजैविक घटकों के आपस में सम्बन्धों का अध्ययन करते हैं। पर्यावरण की शिक्षा देते समय विद्यार्थियों में पर्यावरण का ज्ञान और उनमें जागरूकता उत्पन्न हो इस बात का हमें मूलतः ध्यान रखना चाहिए। इसके लिए प्रकृति का अनुसरण और उसमें संवेदनशीलता की भावना विकसित होनी चाहिए। पर्यावरण का व्यावहारिक ज्ञान अतिआवश्यक है।

पर्यावरण शिक्षा का मुख्य आधार प्रकृति का सन्तुलित रूप समझना है। पर्यावरण शिक्षा का यह प्रयास होना चाहिए कि पर्यावरण के ज्ञान को किसी भी विज्ञान की शाखा में न विभक्तकर पर्यावरण को पर्यावरण विज्ञान ही रहने दिया जाये, पर्यावरण किसी विषय सीमा में सिमटकर न रह जाये जिससे किसी भी विषय के क्षेत्र को पर्यावरण विज्ञान अपना विषय लगे और सम्पूर्ण मानव जाति को स्वच्छ एवं स्वस्थ पर्यावरण उपलब्ध हो सके।

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