# पंचायती राज में आरक्षण की संवैधानिक प्रावधान

अनुसूचित जाति एवं जनजाति के उत्थान के लिए पंचायती राज में आरक्षण की संवैधानिक प्रावधान :

हमारे देश की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पंचायतों का स्थान प्राचीन काल से ही महत्वपूर्ण रहा है। प्राचीन काल में पंचायत लोकतंत्र की धड़कन के रूप में सामाजिक सामुदायिक तथा आर्थिक गतिविधियों का संचालन करती थीं। अंग्रेजों ने भारत में साम्राज्यवादी शिकंजे को कसने के लिए लोकतांत्रिक स्वायत्तशासी संस्थाओं को मृतप्राय करके केन्द्रीय प्रशासनिक प्रणाली को अपनाया जिसमें पंचायतों की सप्तरंगी चमक तेजी से धूमिल होने लगी।

पंचायतें लोकतंत्र की मूल आधार हैं। पंचायतों के माध्यम से ही राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी गाँवों और नगरों में अपनी कल्पना का स्वराज स्थापित करना चाहते थे, वे सत्ता के विकेन्द्रीकरण के प्रबल समर्थक व पक्षधर थे, जिसमें गाँव के प्रत्येक व्यक्ति की सत्ता में भागीदारी हो।

पंचायत राज का पुनरुथान‘ नामक एक लेख में महात्मा गाँधी ने लिखा था ‘ग्राम स्वराज के संबंध में मेरा विचार है कि वह (ग्राम) एक पूरा राज्य हो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने पड़ोसियों से पूर्ण स्वतंत्र होगा, गाँव का संपूर्ण प्रशासन पंचायत के हाथ में होगा। पंचायत के पाँच पंचों का चुनाव प्रति वर्ष गाँव के वयस्क स्त्री पुरुषों द्वारा किया जाएगा। विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका तीनों प्रकार की शक्तियाँ गाँव के पंचायत के पास होगी, प्रत्येक गाँव एक प्रतिनिधि चुनेगा, ये प्रतिनिधि एक प्रकार के निर्वाचक मंडल का निर्वाचन करेंगे।’ परंतु स्वतंत्र भारत का जो संविधान बना उससे पंचायती राज्य व्यवस्था उनकी कल्पना तो न हो सकी पर राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत के रुप में संविधान में व्यवस्था अवश्य की गयी।

गाँवों को इस मार्ग पर ले जाने के लिए ही भारत सरकार ने 2 अक्टूबर 1952 को ग्रामीण विकास के लिए सामुदायिक विकास कार्यक्रम और सन् 1953 में राष्ट्रीय प्रसार कार्यक्रम का शुभारंभ किया। इसके जरिए जनसहयोग से गाँवों के सर्वांगीण विकास का लक्ष्य रखा गया। भारतीय ग्राम पंचायतों में सुधार लाने के उद्देश्य से 1957 में बलवंतराय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गयी। इस समिति ने अपने सुझाव में पंचायती राज का ढांचा त्रिस्तरीय रखे जाने का एवं महिलाओं के लिए दो स्थान तथा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए एक-एक स्थान आरक्षित किए जाने का सुझाव दिया था। बलवंतराय मेहता समिति की सिफारिशों से भारत में पंचायती राज संस्थाओं को विकेंद्रित करने का सिलसिला शुरू हुआ।

इस समिति के अनुशंसा पर ही पंडित नेहरू ने 1959 को नागौर (राजस्थान) में देश की पहली पंचायती राज संस्था का शुभारंभ करते हुए कहा था कि – “नए भारत के संदर्भ में यह सबसे ज्यादा क्रांतिकारी और ऐतिहासिक कदम है।”

भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्व के अनु. 40 में केवल इतना कहा गया है कि राज्य ग्राम पंचायतों के निर्माण के लिए कदम उठाएगा, और इतनी शक्ति और अधिकार प्रदान करेगा जिससे वे (ग्राम पंचायतें) एवं शासन की इकाई के रूप में कार्य कर सके। राज्य सरकार की तरह स्थानीय सरकार जिसमें जिला और इसके अंतर्गत ब्लाक तथा गाँव के विकास को स्वतंत्र स्तर की सरकार का दर्जा नहीं दिया गया। उसके कार्य तथा अधिकार के लिए अलग संघ और राज्य सूची की तरह कोई स्थानीय सूची नहीं बनाई गई। इसके वित्तीय साधनों पर भी कोई खास ध्यान नहीं दिया गया। यहाँ तक कि सत्ता के विकेन्द्रीकरण द्वारा गाँवों के विकास के लिए गठित आयोग भी इस तरह के सुझाव नहीं दे पाए, इन आयोगों तथा समितियों की अनुशंसा भी पंचायत की त्रिस्तरीय (बलवंत राय मेहता समिति, 1957), द्विस्तरीय (अशोक मेहता समिति, 1977) ने की तथा अधिक से अधिक इसे संवैधानिक दर्जा देने का सुझाव, (एम. एम. सिधवी समिति 1986) और बी.एन. गाडगिल के नेतृत्व में गठित कांग्रेस समिति, 1989 ने दिया। इसके अलावा इन पंचायत राज संस्थाओं के नियमित चुनाव और इनमें सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति तथा महिलाओं के लिए आरक्षण की सिफारिश की गई। इनकी सिफारिश के आधार पर संविधान (73 वाँ संशोधन) अधिनियम 1992 बना तथा लागू किया गया ।

73 वें संवैधानिक संशोधन 1992 के द्वारा पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा देकर अनु. 40 में निहित आदर्शों को प्राप्त करने की दिशा की ओर कदम बढ़ाया गया है। यह संशोधन पंचायती राज संस्थाओं के विकास की दिशा में उठाया गया एक ऐतिहासिक कदम है। इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि जो प्रावधान इसे महत्वपूर्ण बनाते हैं, इनमें प्रमुख हैं संबंधित पंचायत के सभी वयस्क मताधिकारियों द्वारा ग्राम सभा का गठन, त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए स्थानों का उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण, प्रत्येक पंचायत का कार्यकाल पाँच वर्ष तथा विघटन की दशा में पुनः निर्वाचन की व्यवस्था, पंचायतों को आर्थिक विकास तथा सामाजिक न्याय की योजनाएँ तैयार करने के लिए अधिकार, पृथक राज्य वित्त आयोग तथा राज्य चुनाव आयोग का गठन होगा ।

अनौपचारिक रूप से यह अधिनियम पंचायती राज को सरकार के तीसरे स्तर के रूप में मान्यता प्रदान करता है। नियमित चुनाव भी इस अधिनियम की महत्वपूर्ण विशेषता है। पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं तथा समाज के शोषित वर्गों के प्रतिनिधित्व को आरक्षण के माध्यम से सुनिश्चित किया गया है। इस प्रकार यह अधिनियम गाँधी जी के ग्राम स्वराज एवं लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की परिकल्पना को बहुत हद तक कार्य रूप में परिणत करता है।

भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों से संबंधित पंचायत में आरक्षणः

प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों का मूल्यानुपात उतना ही होगा, जितना कि उस क्षेत्र के अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के व्यक्तियों की जनसंख्या में अनुपात है। इस तरह से जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व देने की बात कही गई है, और ऐसा आबंटन किसी पंचायत के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों को चक्रानुक्रम में करने की बात कही गई है। इसके अलावा आरक्षित स्थानों की संख्या का एक तिहाई स्थान महिलाओं को देने की बात कही है। इसी प्रकार सामान्य सीटों में भी एक तिहाई सीटों को महिलाओं के लिए दिया गया है, और ऐसे स्थानों का आवंटन किसी पंचायत में विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में चक्रानुक्रम में किये जाने की व्यवस्था की गई है

इसके अलावा इसमें इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि प्रदेश में जितनी संख्या अनुसूचित जाति और जनजातियों की हो, उसी के अनुपात में प्रत्येक स्तर के पंचायतों में इन जातियों के लिए सभापतियों की भी संख्या हो, और यह पदों का आरक्षण चक्रानुक्रम पद्धति में चलता रहेगा। इसमें भी महिलाओं के लिए एक तिहाई पदों की व्यवस्था की गई है। चाहे वह सामान्य सीट हो, या आरक्षित, इसमें सबसे मुख्य बात यह है कि महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिया गया है वह दलित वर्गों के आरक्षण के समाप्त हो जाने के बाद भी जारी रहेगा। इसके अलावा पंचायती राज व्यवस्था में दलित तथा पिछड़े वर्गों के आरक्षण के लिए नियम बनाने में इस अनुच्छेद की कोई बात निवारित नहीं करेगी, इस बात का भी प्रावधान किया गया है।

यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जन-जातियों के लिए स्थानों का आरक्षण जो संविधान के द्वारा किया गया है। वह संविधान के अनुच्छेद 334 में विनिर्दिष्ट अवधि की समाप्ति पर प्रभावी नहीं रहेगा।

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