ओजोन परत क्या है/आशय :
हमारे वायुमण्डल में 15 किमी. से 35 किमी. तक की ऊँचाई पर ओजोन गैसों द्वारा निर्मित एक घना आवरण है जिसे ओजोन परत के नाम से जाना जाता है। ओजोन परत सूर्य के प्रकाश में निहित पराबैंगनी किरणों को अपने में सोख लेती है तथा पृथ्वी पर मानव सहित अन्य जीवधारियों की पराबैंगनी किरणों के दुष्प्रभावों से रक्षा करती है। इसी कारण वैज्ञानिक ओजोन परत को ‘जीवरक्षक छतरी‘ या ‘पृथ्वी का सुरक्षा-कवच‘ भी कहते हैं।
ओजोन परत का क्षय/क्षरण :
ओजोन परत में क्षय होने का सर्वप्रथम पता फॉरमेन नामक ब्रिटिश वैज्ञानिक को मई 1985 में उस समय लगा जब वे ब्रिटिश अन्टार्कटिका दल का नेतृत्व अन्टार्कटिका क्षेत्र में अन्वेषण कर रहे थे। फॉरमेन ने बताया कि अन्टार्कटिका क्षेत्र के ऊपर ओजोन छतरी में एक बड़ा छेद है। साथ ही उन्होंने यह पाया कि बसन्त ऋतु में ओजोन परत का 40 प्रतिशत भाग विलुप्त हो जाने से ओजोन परत पतली हो जाती है। इसके बाद बहुराष्ट्रीय अन्वेषण दल के वैज्ञानिकों के उपग्रहों तथा वायुयानों के माध्यम से यह पता लगाया कि 15 अगस्त 1947 से 7 अक्टूबर 1987 के मध्य अन्टार्कटिका के ऊपर ओजोन परत का सामान्यतया 50 प्रतिशत भाग विलुप्त हो गया तथा कुछ क्षेत्रों से ओजोन परत पूर्णतया विलुप्त हो गई, जिससे नई क्षेत्रों में ओजोन रहित छेद निर्मित हो गये।
उक्त दोनों अन्वेषण प्रतिवेदनों से विश्व के समस्त वैज्ञानिक जगत में हलचल उत्पन्न हो गयी। अन्टार्कटिका के साथ-साथ विश्व के विभन्न भागों में ओजोन स्तर के क्षय सम्बन्धी अन्वेषण किये जाने लगे। नासा ओजोन ट्रेण्ड पैनल (NASA Ozone Trend Panel) ने सन् 1999 में अपनी एक रिपोर्ट में स्पष्ट किया कि ओजोन का क्षय केवल अन्टार्कटिका के ऊपर ही नहीं हो रहा, वरन् ओजोन परत का अधिकांश भाग इस क्षय की चपेट में आ गया है जिससे ओजोन स्तर में सर्वव्यापी अल्पता आती जा रही है।
संयुक्त राज्य अमेरिका की एक अंतरिक्ष एजेन्सी के अनुसार सन् 1991 से 1999 की अवधि में ऊपरी ओजोन परत का छिद्र 15 प्रतिशत और बढ़ गया। सन् 1991 तक ओजोन छिद्र का क्षेत्रफल 2 करोड़ वर्ग किमी. था जो सन् 1999 में बढ़कर 2 करोड़ 30 लाख वर्ग किमी. हो गया, जो संयुक्त राज्य अमेरिका के कुल क्षेत्रफल के लगभग बराबर था।
ओजोन परत के क्षय के कारण व क्षय प्रक्रिया :
ओजोन परत में प्राकृतिक रूप से जितना क्षय होता है उतना ही उसका निर्माण भी हो जाता है, जिससे समताप मण्डल में स्थित ओजोन परत में संतुलन कायम रहता है, लेकिन पिछले लगभग 50 वर्षों में वायुमण्डल में ओजोन विनाशक गैसों की मात्रा इतनी तेजी से बढ़ रही है कि ओजोन परत में विनाश की दर में भी तीव्रता से वृद्धि हुई है। वर्तमान में सभी वैज्ञानिक इस तथ्य के संदर्भ में एकमत हैं कि ओजोन गैसों के क्षयीकरण के लिए मुख्य रूप से हैलोजनित गैसें उत्तरदायी हैं। इन गैसों में क्लोरोफ्लोरो कार्बन, मिथाइल ब्रोमोइड, हैलोजन्स तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड प्रमुख हैं। इनमें से ओजोन का प्रमुख शत्रु क्लोरोफ्लोरो कार्बन (सी.एफ.सी.) है जिसका उपयोग हम बड़ी मात्रा में रेफ्रीजरेटरों, एयर कण्डीशनरों तथा एयरोसोल स्प्रे में करते हैं।
क्लोरोफ्लोरो कार्बन भू-सतह पर मानव के लिये हानिकारक नहीं होती, लेकिन वायुमण्डल में ऊपर उठने पर सूर्य के प्रकाश के प्रभाव से सक्रिय क्लोरीन में टूट जाती है। जब यह ओजोन परत में ओजोन गैस ऑक्सीजन (O2) से क्रिया करती है तो यह ऑक्सीजन (O2) तथा क्लोरीन मोनो-ऑक्साइड में बदल जाती है। इस प्रकार क्लोरोफ्लोरो कार्बन द्वारा निर्मित क्लोरीन सतत् रूप से ओजोन से क्रिया कर ओजोन गैस का भक्षण कर उसका क्षय करती रहती है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन का एक अणु ओजोन के हजारों अणुओं को नष्ट कर देता है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में क्लोरोफ्लोरो कार्बन का उत्पादन 5 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ रहा है। इस दर से 21वीं शताब्दी की समाप्ति पर ओजोन परत का लगभग 20 प्रतिशत भाग विलुप्त हो जाएगा।
ओजोन परत के क्षय का दूसरा प्रमुख कारण विस्तृत स्तर पर किया जा रहा वनोन्मूलन है। वनों का सफाया करने से वायुमण्डल में ऑक्सीजन की मात्रा में निरन्तर कमी हो रही है, जिससे ओजोन निर्माण की दर में भी कमी आती जा रही है। वस्तुः वनोन्मूलन ओजोन गैस का क्षय नहीं करता वरन् इससे ओजोन गैस का निर्माण रुक-सा जाता है।
वर्तमान में अंतरिक्ष में छोड़े जा रहे विभिन्न देशों के उपग्रह भी जब ओजोन परत से होकर गुजरते हैं, तो वे भी ओजोन स्तर से ओजोन के अणुओं का विखण्डन का उसका क्षय करते हैं।
वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में यह पता लगाया गया कि सी.एफ.सी. के बाद मिथाइल ब्रोमाइड नामक रसायन ओजोन परत को सर्वाधिक क्षति पहुँचाता है। मिथाइल ब्रोमाइड का उपयोग मुख्यतया निर्यातक वस्तुओं को लम्बे समय तक सुगन्धित रखने तथा कुछ कृषि फसलों की उत्पादकता को कायम रखने के लिये किया जाता है। वर्तमान में विश्व में लगभग 70 हजार मी.टन मिथाइल ब्रोमाइड का उत्पादन किया जा रहा है तथा इसका सतत् उपयोग ओजोन परत को नष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
ओजोन परत के क्षय से उत्पन्न दुष्परिणाम/प्रभाव :
इसमें सन्देह नहीं कि ओजोन परत सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों को पृथ्वी तक नहीं आने देती। वर्तमान में मानव ने अपने सुरक्षा-कवच ओजोन परत को अपने अविवेकपूर्ण क्रियाकलापों से क्षत-विक्षत कर दिया है। यदि वायुमण्डल में स्थित ओजोन स्तर को पूर्णतया समाप्त कर दिया जाये, तो सूर्य की पराबैगनी किरणें बिना किसी रुकावट पृथ्वी की सतह पर आ जाएँगी, जिससे पादप जगत की प्रकाश संश्लेषण क्रिया अवरुद्ध होने से पेड़-पौधे शीघ्र ही समूल नष्ट हो जाएँगे। पेड़-पौधों के समाप्त होने से वायुमण्डलीय ऑक्सीजन में विश्वव्यापी कमी होने लगेगी जिसके प्रभाव से पृथ्वी से समस्त जैव जगत का शीघ्र ही विनाश हो जाएगा।
ओजोन परत में जिस स्थान पर छेद हो जाता है या जहाँ यह क्षीण हो जाती है, वहाँ से सूर्य की पराबैंगनी किरणें सीधी धरातल पर आ जाती हैं। पराबैंगनी किरणों के प्रभाव से मानव के शरीर की त्वचा तथा आँखों की कोषिकायें क्षतिग्रस्त होने लगती है, जिससे मानव के शरीर में त्वचा केन्सर तथा आँखों की बीमारियाँ होने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के वैज्ञानिकों के अनुसार ओजोन परत के पतला व विलुप्त होते जाने से अगले प्रत्येक दशक में कम से कम 2 लाख व्यक्ति त्वचा केन्सर के शिकार होंगे। इन वैज्ञानिकों का मानना है कि जब ओजोन परत एक प्रतिशत भाग क्षतिग्रस्त होता है, तो त्वचा केन्सर में 2 प्रतिशत की वृद्धि होती है।
कनाडियन मिनिस्ट्री ऑफ इनवायरमेन्ट के अनुसार के यदि ओजोन परत की सुरक्षा के लिये प्रभावी कदम नहीं उठाये गये तो सन् 1990 से 2075 के मध्य जन्में लगभग 80 लाख लोगों को त्वचा-केन्सर का शिकार होना पड़ेगा।
यही नहीं, पराबैंगनी किरण मानव की रोग-प्रतिरोधी क्षमता को भी कमजोर करती हैं जिसके कारण मानव समुदाय में ओजोन स्तर के क्षय से संक्रमणजनित बीमारियाँ व साँस सम्बन्धी बीमारियाँ तेजी से बढ़ेंगी।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने ओजोन परत के अस्तित्व को बचाये रखने तथा उस परत के संरक्षण के लिए विश्वव्यापी जागरूकता उत्पन्न करने की दृष्टि से 16 सितम्बर को विश्व ओजोन दिवस मनाने की घोषणा की है।
ओजोन संरक्षण पर भारतीय कानून :
भारत ने सितम्बर, 1997 में मॉन्ट्रियल समझौते का अनुपालन करते हुए सन् 2000 में ओजोन क्षति पदार्थ कानून (Ozone Depleting Substance Rule) लागू किया। इस कानून के अनुसार 1 जनवरी 2003 के बाद चिकित्सा कार्यों को छोड़कर शेष सभी क्षेत्रों में सी.एफ.सी. गैस का प्रयोग देश में प्रतिबन्धित कर दिया गया। इस कानून के अन्तर्गत ओजोन क्षति पदार्थों का व्यापार करने वाले तथा स्टाकिस्टों के लिये पंजीकरण कराना अनिवार्य कर दिया गया। मॉन्ट्रियल समझौते के अनुसार ओजोन क्षति पदार्थों की प्रति व्यक्ति उपयोग की अधिकतम सीमा 300 ग्राम तथा अनुमन्य है, जबकि भारत में यह मात्रा अभी केवल 3 ग्राम प्रति व्यक्ति ही है।