मौलिक अधिकार का अर्थ, उद्भव एवं विकास :
मौलिक अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के लिए वे अपरिहार्य अधिकार है जिन्हें लिखित संविधान द्वारा प्रत्याभूत एवं न्यायपालिका द्वारा संरक्षित किया जाता है।
अधिकारों की अवधारणा का आधारभूत लक्षण- सभी प्राणियों के प्रति आदर और धर्म, जाति, लिंग के आधार पर किसी भी प्रकार के भेद-भाव का न होना हैं। व्यक्ति के सुखी जीवन और उसके व्यक्तित्व विकास के लिए ये अधिकार महत्वपूर्ण ही नहीं अति आवश्यक है। साररूप में कहा जा सकता है- “मौलिक अधिकार वे अधिकार है जिन्हें विश्व के किसी भी भाग में रहने वाले प्रत्येक नर और नारी को समान रूप से मिलना चाहिए।”
अधिकारों की अपरिहार्यता के विषय में लॉस्की ने लिखा है-
‘सामाजिक जीवन के वे अधिकार जिनके बगैर कोई भी व्यक्ति श्रेष्ठता प्राप्त नहीं कर सकता…’
मौलिक अधिकारों के अति आवश्यक होने के साथ ही एक जुड़ी अवधारणा है – भेद-भाव का न होना। परन्तु इतिहास में पर्याप्त साक्ष्य मिलते हैं कि अभिजन के व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के दृष्टिकोण और जन साधारण के मौलिक अधिकारों के बीच सतत् संघर्ष रहा है सोच और यथार्थ का अन्तराल समाज में सदैव रहा है, और रहेगा। दूसरे, राज्य के नियन्त्रण और व्यक्ति की स्वतन्त्रता के क्षेत्र और सीमाएं- राजनैतिक दार्शनिकों को सदा से आकर्षित करते रहे हैं। न्यायाधीश एम० सी० छागला ने कहा है- राज्य का प्रमुख कर्तव्य व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास में सहायक होना है, राज्य की सम्पन्नता और शक्ति उसके नागरिकों की सम्पन्नता और शक्ति है”…
“सभी मानव स्वतन्त्र पैदा होते हैं और अधिकारों एवं सम्मान में समान है।…’
मानव अधिकारों की सार्वजनिक घोषणा में अन्तर्निहित ये शब्द स्वतन्त्रता एवं अधिकारों के महत्व को प्रदर्शित करते है।
मौलिक अधिकार सामान्य विधिक अधिकार से इस अर्थ में भिन्न है कि विधिक अधिकार देश की सामान्य विधि द्वारा प्रवर्तित एवं संरक्षित होते है जब कि मौलिक अधिकार राज्य के लिखित संविधान द्वारा प्रत्याभूत होते हैं। दूसरे, सामान्य अधिकार विधायी प्रक्रिया द्वारा परिवर्तित या संशोधित किये जा सकते हैं जबकि मौलिक अधिकार किसी सामान्य प्रक्रिया द्वारा संशोधित न होकर चूंकि संविधान द्वारा प्रदत्त एवं प्रत्याभूत होते है संविधान में विहित एक निश्चित प्रक्रिया द्वारा ही संशोधित हो सकते है।
आधुनिक युग में जिन्हें मानव या मौलिक अधिकार कहा जाता है, परम्परागत रूप में प्राकृतिक अधिकार थे। वे ऐसे नैतिक अधिकार थे जिन्हे प्रत्येक मानव को विवेकशील और तार्किक प्राणी होने के कारण हर समय, हर स्थिति में मिलना ही चाहिए। व्यक्तित्व विकास के लिए एवं अपने जीवन को सुनिश्चित करने हेतु इन अधिकारों का होना आवश्यक है।
आधुनिक लोकतान्त्रिक देशों में संविधान में मौलिक अधिकारों का उल्लेख सुस्थापित तथ्य है। एक अध्ययन के अनुसार 85 प्रतिशत देशों के संविधान किसी न किसी रूप में व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं/अधिकारों, विधिक प्रक्रिया…. आदि से सम्बन्धित उपबन्ध किये हुये हैं।
मौलिक अधिकारों के उद्भव एवं ऐतिहासिक विकास के सम्बन्ध में ब्रिटेन, अमेरिका एवं फ्रान्स जैसे लोकतान्त्रिक देशों की स्थितियाँ भिन्न है यथा-
ब्रिटेन में नागरिक स्वतंत्रताओं / अधिकारों के लिए संघर्ष का एक विस्तृत अतीत है। “1215 का मैग्नाकार्टा – राजा से कुछ अधिकारों को लेने की दिशा में एक महत्तवपूर्ण प्रयास था, पुनः 1628 अधिकार याचना पत्र एवं इसी श्रृंखला में 1688 में रक्तहीन क्रान्ति ने नागरिक स्वतंत्रताओं को विस्तार दिया, 1689 का अधिकार पत्र अधिकारों की दिशा में एक मील का पत्थर है, 1911 एवं 1949 के संसदीय अधिनियम द्वारा लार्ड सभा की शक्तियों में कटौती, लोक सदन की शक्तियों में वृद्धि थी जो अन्ततः लोक शक्ति का परिचायक थी।
अमेरिकी जनता द्वारा ब्रिटिश उपनिवेश से 1776 में की गयी स्वतंत्रता की घोषणा मात्र विद्रोह न होकर अमेरिका में लोकतन्त्र की विजय थी जिसमें नागरिकों के अधिकारों को भी स्थान देकर उन्हें अपृथक्करणीय घोषित किया।
1789 संविधान निर्मित कर एवं प्रथम दस संशोधनों द्वारा मौलिक अधिकारों की स्वीकारोक्ति की गयी। इनमें ‘जीवन’, ‘अभिव्यक्ति’, ‘प्रेस’, ‘सभा’ आदि को संरक्षित किया गया।
इसी प्रकार फ्रान्स में भी 1789 की क्रान्ति द्वारा अधिकारों के महत्व को घोषित किया गया। “स्वतंत्रता समानता एवं भ्रातृत्व” को अपृथक्करणीय अधिकार घोषित किया गया। “फ्रान्स की इस क्रान्ति ने व्यक्तिगत अधिकारों की दिशा में विश्व के सभी लोकतान्त्रिक देशों के समक्ष अधिकारों का एक जीवन्त दर्शन रखा।
सारांशतः पश्चिम के इन लोकतान्त्रिक देशों ने अधिकारों के महत्व को इंगित किया, अधिकारों के विकास को एक निश्चित दिशा दी और नव-लोकतान्त्रिक देशों के संविधान निर्माण हेतु एक मार्ग दर्शक सिद्धान्त निश्चित किया।
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में मानव अधिकारों पर बल दिया गया।’ मानव अधिकारों की सार्वजनिक घोषणा (1948) में स्वीकार किया गया है…।
- “सभी मनुष्य जन्म से स्वतंत्र है और अधिकार तथा मर्यादा में समान है…” (अनु.१)
- “भेदभाव के बगैर अधिकार और स्वतन्त्रताओं की पात्रता…” (अनु.२)
- “जीवन, स्वाधीनता और सुरक्षा का अधिकार …” (अनु.३)
- “संविधान या कानून द्वारा प्राप्त मौलिक अधिकारों के लिए संरक्षण पाने का अधिकार…” (अनु.८)
- “मत और विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता…” (अनु.१९) आदि
भारत में भी स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् संविधान में मौलिक अधिकारों का विषद रूप से उल्लेख किया गया। राष्ट्रीय आंदोलन के समय से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा मौलिक अधिकारों की मांग की जाती रही थी तत्पश्चात संविधान निर्माण के समय मौलिक अधिकारों का समावेश अवश्यम्भावी था जो
आधुनिक लोकतात्रिक विचारों अनुकूल है। साथ ही अधिकारों के उल्लिखित करने का उद्देश्य उन मूल्यों का संरक्षण भी है जो स्वतंत्र समाज के लिए अपरिहार्य है। डा० जय नरायन पाण्डेय के शब्दों में- “संविधान में मौलिक अधिकारों की विधिवत् घोषणा सरकार को इस बात की चेतावनी देती है कि इन अधिकारों का आदर करना उसका परम कर्तव्य है साथ ही सरकार की शक्ति एक निश्चित दिशा में सीमित करना है जिससे सरकार नागरिकों की स्वतंत्रताओं के विरूद्ध अपनी शक्ति का प्रयोग न कर सकें….”
पुनश्च –
“संसदीय शासन प्रणाली में बहुमत के आधार पर सरकार गठित होने के कारण जनता के हितों के विरूद्ध मौलिक अधिकारों का हनन कर सकती है इसीलिए अधिकारों को संविधान में समाविष्ट कर सरकार की शक्ति से परे रखा जाता है जिससे वे बहुमत की शक्ति का दुरूपयोग कर अधिकारों का अतिक्रमण न कर सकें …”।
सारांशतः मौलिक अधिकारों द्वारा नागरिकों के अधिकारों को संरक्षित किया गया है जिससे भारत के नवनिर्माण की प्रक्रिया में सभी सहयोग दे सकें साथ ही इनके उल्लेख से विशेषाधिकारों को समाप्त कर समाज के प्रत्येक वर्ग की समानता सुनिश्चित की गयी है इस प्रकार संविधान में मौलिक अधिकारों को उल्लिखित करने का उद्देश्य “विधि के शासन” की स्थापना करना है।