परिवार :
ऑगबर्न और निम्कॉफ के अनुसार – “जब हम परिवार की कल्पना करते हैं तो हम इसे बच्चों सहित पति पत्नी के स्थाई संबंध को चित्रित करते हैं।”
परिवार के प्रमुख कार्य :
परिवार के कुछ ऐसे प्रमुख कार्य है जिसे परिवार जैसे संगठन के द्वारा ही पूरा किया जा सकता है और इन क्रियाओं को निष्पादित करने में आज भी किसी संरचनात्मक विकल्प की बात नहीं सोची जा सकती है। किगरले डेविस ने परिवार के निम्न सामाजिक कार्यों की व्याख्या की है-
1. संतानोत्पत्ति (Reproduction)
परिवार ही एक ऐसा सार्वभौमिक समूह है जहाँ विवाह के सरंचनात्मक संबंध के द्वारा यौन इच्छा की पूर्ति के साथ-साथ संतानोत्पत्ति का वैधानिक प्रावधान है। कोई भी ऐसी मर्यादित संस्था नहीं है जहां परिवार के दायरे के बाहर संतानोत्पत्ति की क्रिया को सामाजिक तौर से वैध करार कर सके। इस रूप में परिवार की भूमिका अद्वितीय है। इसका मुकाबला या विकल्प संभव नहीं।
2. भरण-पोषण (Maintenance)
परिवार का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य बच्चों का भरण-पोषण, उनकी देख-भाल से है। परिवार में न केवल बच्चों का जन्म होता है वरन वह परिवार में ही बड़ा होता है और बड़े होने से पहले उसका बचपन परिवार में स्थायी रूप से गुजरता है जहाँ परिवार के सदस्य उसके माता-पिता की पूरी जिम्मेवारी अर्थात् उसके परवरिश की जिम्मेवारी उन्हीं पर होती है। परिवार में ही रहकर बोलना सीखता है, चलना-फिरना सीखता है। परिवार के सदस्यों के बीच ही रहकर वह परिवार के नियमों को भी सीखता है। अतः शारीरिक क्रियाओं के साथ-साथ नातेदारी के पूरे संबंध मर्यादा की पहचान परिवार में ही रहकर होती है।
3. स्थापन (Placement)
परिवार अपने सदस्यों को विशेष स्थिति भी प्रदान करता है। समाज में परिवार की एक निश्चित स्थिति होती हैं जिसे परिवार के सदस्य उस समाज में जुड़े होने के कारण मेहनत और लगन से काम करते हुए परिवार के लिए बनाते हैं। परिवार की अर्जित की हुई यह प्रख्याति समाज में वह स्थान, परिवार के सदस्यों की एक खास पहचान बन जाती है इस प्रकार परिवार में न सिर्फ बच्चों की परवरिश व सुरक्षा होती है। बल्कि उन्हें उस परिवार की जी सांस्कृतिक धरोहर है वह भी सहज रूप से मिल जाता है जिसके कारण वह परिवार की प्रतिष्ठा तथा उसके गौरव परंपरा और कुल की मर्यादा का निर्वाह करता है।
4. समाजीकरण (Socialization)
परिवार को समाज की पाठशाला व स्कूल कहा जाता है। एक प्राथमिक स्कूल के रूप में भी परिवार के सदस्यों को जन्म से ही समाज के प्रतिमानों को सीखने का सुनहरा अवसर मिल जाता है। परिवार में अन्य सदस्यों की भांति वह परिवार के संस्कारों को आत्मसात करते हुए परिवार के साथ-साथ समाज के रीति-रिवाजों को भी परिवार में ही रहकर सीख पाता है। इस प्रकार परिवार को एक पूरे संगठन के रूप में देखा जाता है जिसके सरंचनात्मक भूमिका तथा निर्धारित नियम परिवार के सदस्यों के लिए एक शिक्षा का केंद्र बन जाते है।
उपर्युक्त कार्यों के विश्लेषण के यह स्पष्ट हो जाता है कि परिवार का योगदान उसके यौन संबंधी इच्छाओं की पूर्ति, मनोवैज्ञानिक सुरक्षा, सामाजिक प्रेम आदि हैं। सबसे प्रमुख बात जो परिवार जैसे संगठन के साथ जुड़ी है वह है व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास और व्यक्तित्व के विकास के साथ ही उसके सामाजिक कार्य इस रूप से यह कहा जा सकता है कि एक समाज से दूसरे समाज में यद्यपि परिवार के इन कार्यों को करने में विविधता देखी जा सकती है परंतु उन विविधाताओं के बावजूद भी परिवार जैसे संगठन का एक सार्वभौमिक स्वरूप परिभाषित होता है।
आधुनिक परिवार की चुनौती :
आधुनिक परिवार की चुनौती, भविष्य व समस्या के बारे में जब चर्चा होती है तो परिवार के भूमिका पर प्रश्न उठाया जाता है। आज हमारे आधुनिक जीवन तथा परिवार को प्रभावित करने वाले कई कारक तत्वों की विवेचना की जाती है –
1. औद्योगिकरण (Industralization)
2. शहरीकरण (Urbanistion)
3. सामाजिक गतिशीलता (Social Mobility)
4. महिला शिक्षा व चेतना (Women’s education & Consciousness)
5. वैधानिक बदलाव (Legislative change)
उपर्युक्त लिखे गये कारक तत्वों के कारण आज परिवार का स्वरूप बदल रहा है। पहले के अपेक्षा संगठन में जितना स्थायित्व बना था आज उतना स्थायित्व नहीं पाया जाता है। परिवार का स्वरूप भी आधुनिक परिवेश में बदलकर वैवाहिक परिवार (Conjugal family) तथा अविवाहित बच्चों तक सीमित हो गया है। पश्चिम देशों में परिवार की स्थिति एक संक्रमण के दौर से गुजर रही है। टूटते संबंधों के कारण न केवल परिवार के स्थायित्व स्वरूप को ठेस पहुंची है। वरन संबंधों के अस्थायी आधार के कारण अब वैवाहिक संबंध बनाकर परिवार की निरंतरता बनाये रखने का प्रचलन भी कम हुआ है। आज विवाह योग्य कई पुरुष और महिला काम के तनाव के कारण परिवार जैसे संगठन से जुड़ना नहीं चाहते। उसके कारण तलाक की दर में वृद्धि हुई हैं और अविवाहित लोगों की संख्या भी बढ़ी है।
भारतीय समाज में संयुक्त परिवार की परंपरा काफी पुरानी है। जब लोगों की संख्या कम थी, लोग अधिकांशतः कृषि से जुड़े थे सभी परिवार के सदस्य अपने काम के लिए परिवार के सदस्यों पर ही निर्भर करते थे। ऐसे में परिवार के स्थायी स्वरूप को बनाये रखना ज्यादा आसान था। अब आर्थिक स्थिति में काफी बदलाव आया है। जनसंख्या के वृद्धि, समुदाय की सोच तथा जमीन के बँटवारे के साथ संचार के फैलाव और शहरीकरण की प्रक्रिया ने सामाजिक गतिशीलता बढ़ा दी है। इन सब का सम्मिलित रूप से प्रभाव परिवार के ढांचे, कार्य और नियमों पर पड़ा है आजादी के बाद की 1951 की जनगणना के बाद पाया गया कि परिवार के सदस्य अब एक दूसरे से संयुक्त नहीं महसूस करते परंपरागत रीति-रिवाज तथा संयुक्त परिवार से अलग होकर बसने की बात ज्यादा लोकप्रिय और व्यावहारिक होती जा रहा है।
यद्यपि संयुक्त परिवार के विघटनात्मक स्वरूप को लेकर 1950 तथा 1960 के दशक में समाजशास्त्रियों में एकमत इस बात पर था कि वे सभी मानते थे कि संयुक्त परिवार के स्वरूप में बेशक बदलाव आया हो परंतु भावनात्मक आधार पर उसके संयुक्त प्रवत्ति में ज्यादा अंतर नहीं आया है। आई0पी0 देसाई ने बोबे का उदाहरण देते हुए बताया कि अगर हाऊसहोल्ड को आधार बनाकर व्याख्या किया जाये तो 40 फीसदी लोग मध्यम परिवार (Medium household ) में रहना पसंद करते हैं तथा 40 फीसदी ही बड़े घरों (Long household) में रहना चाहते हैं और छोटे घर Nuclear Household) में रहने वाले लोगों की संख्या 20 फीसदी बतायी थी दूसरी महत्वपूर्ण बात इस संदर्भ में यह कहीं गयी कि जिन शहरी घरों को आज अलग बताया जा रहा है वास्तव में उनकी संख्या 20वीं फीसदी है। तीसरी महत्वपूर्ण बात जिसकी तरफ इशारा किया गया वह यह था कि बाहरी स्थितियों के कारण जो परिवर्तन आ रहे हैं उनमें एक साथ रहना, पूजा, खाना और संपत्ति के अब संयुक्त परिवार को जोड़ने के आधार नहीं रहे। इस प्रकार उन विद्वानों ने यह स्वीकार किया कि संयुक्त परिवार की स्थिति में अब बदलाव आ रहा है। के०एम० कपाड़िया ने भी यह माना कि तीन प्रमुख आधार पर उनके उत्तरदाताओं का मानना था कि संयुक्त परिवार का अभी भी संयुक्त रूप बना हुआ है जो निम्न है-
1. आर्थिक जिम्मेवारी का सामूहिक निर्वाह
2. परिवार सामाजिक सुरक्षा का एकमात्र सरंचनात्मक आधार
3. परिवार अभी भी इच्छित गुणों के बनाये रखने का एकमात्र स्त्रोत
आज जब हम आजादी के पाँच दशक के ऊपर होने के बाद संयुक्त परिवार के ढांचे, क्रियाओं और स्वरूप के बारे में विचार करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि संयुक्त परिवार का वर्तमान स्वरूप पहले के अपेक्षा काफी दबाव में आया है और जो परिवार का स्वरूप ज्यादा व्यवहारिक तथा लोकप्रिय है वह है एकल परिवार भारत तथा अन्य देशों में भी इस एकल परिवार के ऊपर जो निरंतर दबाव की स्थिति बनी है उसकी चर्चा विस्तार से की जाती है।