# मेनका गांधी बनाम भारत संघ वाद

मेनका गांधी बनाम भारत संघ वाद :

मौलिक अधिकारों की श्रेष्ठता के साथ नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त को विकसित करने के क्षेत्र में ‘मेनका गांधी बनाम भारत संघ‘ वाद प्रमुख है। विधि और प्रक्रिया दोनों को उचित और युक्तियुक्त रखने के संदर्भ में भी संवैधानिक विधि में यह वाद प्रमुख स्थान रखता है ।

मौलिक अधिकार हेतु इस वाद में कहा गया कि – “यह वैदिक काल से ही भारतीय लोगों के मूल्यों का प्रतिनिधित्व करतें हैं, इनका उद्देश्य व्यक्ति के सम्मान की रक्षा है तथा ये ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं जिसमें व्यक्ति सम्पूर्णतः व्यक्तित्व का विकास कर सके”

मौलिक अधिकारों की विस्तृत निर्वचन की अवधारणा को सुस्थापित करते हुए कहा गया कि – “भाग-3 के अन्तर्गत प्रदत्त मौलिक अधिकार सुभिन्न एवं अनन्य अधिकार नहीं है वरन् संविधान में सुस्थापित लक्ष्य के अन्तर्गत हैं… इन्हें एक दूसरे से पृथक कर, नहीं देखा जा सकता, भले ही उन्हें अलग-अलग अनुच्छेदों में उल्लिखित किया गया हो, परन्तु ये मूलतः मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए आवश्यक है।… मौलिक अधिकारों के निर्वचन के समय इन सभी पर विचार करना चाहिए।”

समता के अधिकार‘ एवं ‘राज्य के मनमाने पन के विरूद्ध संरक्षण‘ के विषय पर इस वाद में न्यायमूर्ति भगवती का कथन था- “समानता एक गत्यात्मक अवधारणा है, जिसके अनेक रूप और आयाम हैं इन्हे परम्परागत और सिद्धान्तवाद की सीमाओं में बाँधा नहीं जा सकता। अनु० 14 राज्य की कार्यवाहियों में मनमाने पन को वर्जित कर, समान व्यवहार को सुनिश्चित करता है।”

पुनश्च,

“युक्ति युक्तता का सिद्धान्त जो विधिक और दार्शनिक रूप से समानता का आवश्यक तत्व है अनु. 14 में सर्वदा विद्यमान रहता है।”

स्वतंत्रता के अधिकार को भी एक नया आयाम और विस्तार ‘मेनका गांधी वाद‘ से मिला संविधान के अनुच्छेद 19 के अन्तर्गत प्रदत्त स्वतन्त्रताओं में ‘वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता‘ प्रमुख है जिसे न्यायालय की दृष्टि में, भौगोलिक सीमाओं में बाँधा नहीं जा सकता। दूसरे शब्दों में इस अधिकार का प्रयोग किसी भी नागरिक द्वारा भारत की सीमा के अन्दर ही किया जाना आवश्यक नहीं वरन अन्य किसी देश की भूमि पर भी इसका प्रयोग किया जा सकता है।

(अभिव्यक्ति का अर्थ है कि – “किसी व्यक्ति से विचारों का आदान प्रदान करना चाहें वह विश्व के किसी भी भाग में निवास करता हो।”)

विधिक रूप में, इस विस्तार को मेनका गांधी बनाम भारत संघ के वाद में मेनका गांधी के विदेश जाने के पासपोर्ट को लौटाने के आदेश दिए जाने पर न्यायालय द्वारा दिया गया। न्यायालय में उक्त आदेश की विधिमान्यता को चुनौती दी गयी थी, वादी द्वारा याचिका में कहा गया कि – “यदि पासपोर्ट जैसा कि आदेशित किया गया है लौटा दिया जाता है तो ‘एक पत्रकार के रूप में’ विदेश में अपने भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग नहीं किया जा सकता….. जो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन है…”

परन्तु इस अधिकार को प्रदान करने पर या इस अर्थ में विदेश भ्रमण का अधिकार भी अनु० 19 के अन्तर्गत मौलिक अधिकार का स्वरूप ले लेगा, जिसे न्यायालय ने अस्वीकृति करते हुए अभिनिर्धारित किया कि – “विदेश भ्रमण का अधिकार अनु० 19 के अन्तर्गत मौलिक अधिकार नहीं हैं, परन्तु, अनु० 19 के अन्तर्गत प्रदत्त स्वतन्त्रताओं का प्रयोग भारत में नहीं विदेश में भी किया जा सकता है…।”

न्यायालय द्वारा इस प्रस्थापना के पश्चात् (मेनका गांधी वाद से) स्वतन्त्रता के अधिकार को क्षेत्रिक विस्तार मिला अर्थात् ‘भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकार‘ को, नागरिक भारत में ही नहीं भारत के बाहर भी प्रयोग करने की स्वतन्त्रता रखता है।

संविधान के प्रत्याभूत मौलिक अधिकारों में ‘अनु० 21 के अन्तर्गत’ “प्राण और दैहिक स्वतन्त्रता का संरक्षण” दिया गया है, प्राण एवं दैहिक स्वतन्त्रता सभी अधिकारों में श्रेष्ठ है एवं विधायिका तथा कार्यपालिका दोनों के विरूद्ध संरक्षण प्रदान करता है। संवैधानिक व्यवस्थानुसार – “किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वाधीनता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया से ही वंचित किया जायेगा अन्यथा नहीं”

सरल अर्थों में कार्यपालिका के कृत्य या विधायिका की किसी विधि द्वारा किसी व्यक्ति को प्राण और दैहिक स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जा सकता। विधायिका द्वारा पारित विधि उचित युक्तियुक्त एवं निश्चित प्रक्रिया के पालन तथा नैसर्गिक सिद्धान्तों के अनुरूप होनी चाहिए।

मेनका गांधी बनाम भारत संघ वाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णीत स्थिति से अनु० 21 को भी एक नया आयाम मिला, नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त के अनुरूप क्षेत्र को विस्तृत किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस वाद में अनु० 21 का निवर्चन करते हुए अभिनिर्धारित किया कि- “अनुच्छेद 21 में विहित व्यक्तिगत स्वतन्त्रता व्यापक महत्व की है, जिसमें अनेक अधिकार समाहित हैं, जिनसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता बनती है तथा कुछ को पृथक अधिकार की स्थिति में देखा जा सकता है…।”

“प्राण का अधिकार मात्र भौतिक अस्तित्व तक सीमित नहीं, बल्कि इसमें मानव गरिमा को बनाए रखते हुए, जीने का अधिकार भी हैं…।”

न्यायालय को निर्वचन द्वारा मौलिक अधिकारों को व्यापक अर्थ में देखना है। वादी मेनका गांधी के पासपोर्ट लौटाने सम्बन्धी वाद में अन्य आधारों के साथ-साथ अनु० 21 के अन्तर्गत अतिक्रमण का आधार भी उल्लिखित था, जो आदेश, मनमाने पन एवं अयुक्तियुक्त प्रक्रिया द्वारा अधिकारों का हनन करता था।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस वाद में अभिनिर्धारित किया कि- “अनु० 21 में प्रयुक्त प्रक्रिया स्पष्ट उचित और युक्तियुक्त होनी चाहिए, किसी व्यक्ति को मौलिक अधिकारों से वंचित करने वाली प्रक्रिया युक्तियुक्त एवं नैसर्गिक सिद्धान्तों के अनुपालन में हो.. नैसर्गिक न्याय का सिद्धान्त विधि को मानवतावादी दृष्टि प्रदान कर न्यायपूर्ण बनाता है।”

अतः, उक्त वाद, में किसी व्यक्ति के पासपोर्ट वापस लेने से पूर्व सुनवाई का अवसर देना नैसर्गिक न्याय है। प्रार्थी से पासपोर्ट वापस मांगने एवं सुनवाई के अवसर भी न देना न्यायोचित नहीं, पासपोर्ट अधिनियम सम्बन्धित प्रधिकारी को अनियन्त्रित एवं मनमानी शक्ति प्रदान नहीं करता, अर्थात् प्रत्येक स्थिति में नैसर्गिक न्याय का पालन होना चाहिए।

पुनः, इसी वाद में, न्यायालय ने अधिकारों का क्षेत्र विस्तार एक अन्य दृष्टि से भी किया। न्यायालय की दृष्टि में यदि किसी अधिकार का उल्लेख किसी अनुच्छेद में स्पष्टतया हो, तभी मौलिक अधिकार कहलायेगा ऐसा आवश्यक नहीं, यदि कोई अधिकार किसी अन्य अधिकार के प्रयोग के लिए आवश्यक है, तो भले ही संविधान में उसका उल्लेख न हो, मौलिक अधिकार होगा।

सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार – अनु० 21 के दो पहलू हैं नकारात्मक और सकारात्मक। अनु० 21 शब्दशः नकारात्मक प्रतीत होता है किन्तु इसके निश्चयात्मक और सकारात्मक पहलू भी हैं। ‘मेनका गांधी वाद’ में अनु० 21 के विविध निर्वचन से निम्न अधिकारों की वृद्धि हुई।

  1. एकान्तता का अधिकार
  2. विदेश भ्रमण का अधिकार
  3. मानव गरिमा के साथ जीविकोपार्जन का अधिकार
  4. स्वास्थ्य का अधिकार
  5. शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार
  6. निःशुल्क विधिक सहायता प्राप्त करने का अधिकार
  7. शीघ्र परीक्षण का अधिकार
  8. चिकित्सा सहायता पाने का अधिकार
  9. आश्रय का अधिकार आदि।

नैसर्गिक न्याय के इस नए विकसित आयाम से अनु० 21 अत्यन्त विशद और विस्तृत हो गया, ‘जीने के अधिकार’ को मानव गरिमा के साथ जोड़ा गया, ‘मेनका गांधी बनाम भारत संघ‘ के वाद में ही सर्वोच्च न्यायालय ने ए० के० गोपालन वाद में दिये गये पूर्व निर्णय को उलटते हुए अभिनिर्धारित किया कि – “… विधि और प्रक्रिया दोनों ही उचित और युक्तियुक्त होनी चाहिए। प्रक्रिया सम्यक है या नहीं, इसके लिए आवश्यक है कि वह नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त के अनुरूप हो अन्यथा अविधिमान्य होगी।”

मेनका गांधी वाद में प्रशासनिक प्रक्रिया की अधिकारों के सम्बन्ध में युक्तियुक्तता पर दिये गये विनिश्चय से, अमेरिका और भारत की स्थितियों में विशेष अन्तर नहीं रह गया। अमेरिकन संविधान में ‘विधि की उचित प्रक्रिया’ एवं भारतीय संविधान में वर्णित ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया‘ समान प्रतीत होते हैं।

मेनका गांधी बनाम भारत संघ के इस वाद में एक अन्य स्थिति अनु० 21 अनु० 19 एवं अनु० 14 का अन्तः सम्बन्ध स्थापित होना था। इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि – “अनु० 21 के अन्तर्गत पारित विधि की वैधता अनु० 19 एवं 14 के साथ है। अर्थात प्राण और दैहिक स्वतन्त्रता से वंचित करने वाले विधि को मात्र अनु० 21 के अधीन विहित शर्तो का ही नहीं, वरन अनु० 19 एवं 14 के अधीन युक्तियुक्तता की कसौटी का भी पालन करना चाहिए। विधि की युक्तियुक्तता, अनु० 14 का मूल आधार है।”

मौलिक अधिकार की श्रेष्ठता इस वाद में दिये गये विनिश्चय के इस पक्ष से भी स्पष्ट होती है कि एक ओर जहाँ, अनु० 21 के अन्तर्गत पारित विधि को अनु० 19 और अनु० 14 के साथ सम्बन्धित कर विधि और प्रक्रिया की युक्तियुक्तता देखी जाएगी। वहीं अनु० 22, जो बंदीकरण एवं निरोध के विरोध संवैधानिक संरक्षण प्रदान करता है भी अनु० 21 का पूरक है। सरल शब्दों में, अनुच्छेद 21 जहां दैहिक स्वतन्त्रता से वंचित किए जाने हेतु ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ का उल्लेख करता है, वहीं अनु० 22 प्रक्रियात्मक शर्तों का उल्लेख करता है जिन्हें विधायिका द्वारा विहित प्रक्रिया में होना आवश्यक है। अर्थात-

अनु० 22 स्वयं में पूर्ण नहीं है, किसी भी व्यक्ति को दैहिक स्वतन्त्रता से वंचित करने हेतु अनु० 22 में विहित प्रक्रियात्मक शर्तों का पालन अनिवार्यतः होना चाहिए। ‘मेनका गांधी वाद‘ में ही यह अभिनिर्धारित किया गया कि- “अनु० 22 के अधीन पारित विधियों को अनु० 21 में विहित युक्ति युक्त और उचित प्रक्रिया के अनुरूप होना चाहिए।”

संवैधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत व्यक्ति को निरूद्ध (बन्दी) किया जाना दण्डात्मक (सामान्य विधि के अधीन) और निवारक (निरोध विधि के अधीन) हो सकता है।

मेनका गांधी के इस वाद में मौलिक अधिकारों के इन दोनों पक्षों पर न्यायालय ने अपना विनिश्चय दिया – अनु० 22 अपराध के विषय में निरूद्ध व्यक्ति को यह अधिकार प्रदान करता है कि उसे –

  • गिरफ्तारी के कारणों को यथाशीघ्र बताया जाए। साथ ही
  • कानूनी परामर्श और बचाव करने का अधिकार मिले तथा
  • 24 घंटे के अन्दर मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किये जाने का अधिकार।

इन संरक्षणों का उल्लघंन गिरफ्तारी को असंवैधानिक बना देता है। मेनका गांधी वाद में दिये गयें निर्णय के पश्चात न्यायालय की यह विधिक बाध्यता हो गयी है कि वह साधारण विधि के अधीन भी गिरफ्तार व्यक्ति को कानूनी या विधि परामर्श सहायता प्रदान करें। इसी वाद के पश्चात् अनु० 22 (5) का निर्वचन उदार और अर्थपूर्ण किया जाना चाहिए। यथा-

“किसी व्यक्ति के अधिकारों पर यथा सम्भव कम निर्बन्धन लगाये जायें तथा निरूद्ध किये जाने के आदेश पारित किये जाने की पर्याप्त आधार सामग्री हो, जिसे निरोध आदेश दिये जाने के साथ ही दे दिया जाना चाहिए, और विलेख अथवा आधार संसूचित किये जाने के बाद दिया जाता है तो निरूद्ध व्यक्ति अपना अभ्यावेदन प्रभावी रूप से देने से वंचित हो जाता है इससे उसका निरोध ही अवैध हो जाता है।”

मेनका गांधी बनाम भारत संघ‘ वाद ‘नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त’ एवं ‘मौलिक अधिकारों की श्रेष्ठता’ से सम्बन्धित है, बन्दी प्रत्यक्षीकरण वाद के पश्चात् व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के क्षेत्र में संवैधानिक महत्व का यह वाद है। सारांशतः यह वाद मौलिक अधिकारों के विस्तृत निर्वाचन, नये आयामों को विकसित करने की दिशा में प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण वाद है।

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