चीन में ‘खुला द्वार की नीति’ :
चीन के इतिहास में उसकी लूट-खसोट का जो युग आरम्भ हुआ था उसकी अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना अमेरिका की ‘मुक्त द्वार नीति’ थी। रूस, फ्रांस, ब्रिटेन, जापान एवं इटली ने अफीम युद्धों के पश्चात् जिस प्रकार चीनी खरबूजे का आपस में बँटवारा प्रारम्भ कर दिया था, उसमें अमेरिका ने भाग नहीं लिया था। यह ठीक है कि प्रथम अफीम युद्ध के पश्चात् अमेरिका ने चीन में अनेक सुविधाओं को प्राप्त किया था, परन्तु जिस प्रकार अन्य यूरोपीय देशों ने चीन को रौंदना प्रारम्भ किया था अमेरिका उससे अलग था। वास्तव में उस समय अमेरिका स्पेन से गृह युद्ध में व्यस्त था, परन्तु जैसे ही स्पेन युद्ध में अमेरिका विजयी हुआ तो उसे प्रशान्त महासागर में फिलीपाइन द्वीप समूह प्राप्त हो गये। इधर अमेरिका के औद्योगीकरण ने उसे कच्चे माल की प्राप्ति एवं बाजारों की आवश्यकता को महसूस कराया। अतः चीन में प्रत्यक्ष रूप से भाग न ले पाने के कारण अमेरिका ने अपना प्रभाव स्थापित करने के लिए एक नीति का अनुपालन किया जिसे इतिहास में उन्मुक्त द्वार नीति या मुक्त द्वार की नीति के नाम से भी जाना जाता है।
अमेरिका द्वारा प्रस्तावित उन्मुक्त द्वार नीति के अनुबन्ध :
अपने उक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए अमेरिका ने 6 सितम्बर, 1899 ई. को जर्मनी, रूस, फ्रांस, इंग्लैण्ड, इटली तथा जापान के पास अपनी उन्मुक्त द्वार नीति का प्रस्ताव सहमति हेतु भेजा। इसमें कहा गया कि सभी देश विधिवत् आश्वासन दें तथा अन्य सम्बन्धित देशों से आश्वासन प्रदान करने में सहयोग प्रदान करें कि-
(अ) चीन के बन्दरगाहों में सन्धियों के माध्यम से जो व्यापारिक अधिकार विदेशी राज्यों को प्राप्त हैं, वे यथावत् बने रहेंगे चाहे अब वे बन्दरगाह किसी भी विदेशी राज्य के पट्टे पर हों या उसके प्रभाव क्षेत्र में हों।
(ब) अपने पट्टे पर लिये हुए अथवा प्रभाव क्षेत्र के प्रदेश में जो आयात अथवा निर्यात की सीमा शुल्क दरें निर्धारित हैं उनका समादर किया जाए।
(स) पट्टे पर लिये गये बन्दरगाह में आने वाले विदेशी जहाजों से अपने जहाजों की अपेक्षा कोई देश अधिक बन्दरगाह खर्च नहीं लेगा।
(द) सभी देशों के लिए तटकर की दरें समान होंगी। इस तटकर की वसूली चीनी सरकार करेगी।
(य) अपने क्षेत्र की रेलों पर अन्य विदेशी व्यापारियों के माल पर उससे अधिक किराया नहीं लेगा जो कि वह अपने देश के नागरिकों से लेता है।
खुला द्वार की नीति के उक्त अनुबन्धों से स्पष्ट है कि यह नीति व्यावसायिक स्वार्थ की नीति थी। इसमें कहीं भी चीन की क्षेत्रीय अखण्डता या राजनीतिक स्वतन्त्रता की बात नहीं थी। वास्तव में इस नीति का उद्देश्य केवल इतना था कि अमेरिका को चीन के उन क्षेत्रों में व्यापार की सुविधा प्राप्त हो जाए जो कि अन्य देशों के हित-क्षेत्र बन चुके थे। हित-क्षेत्र बनाने का मूल उद्देश्य रेल पथों को निर्माण करना एवं आर्थिक शोषण का एकाधिकार प्राप्त करना था।
खुला द्वार की नीति इस हित-क्षेत्र के विरोध में थी, परन्तु इसका यह अर्थ निकालना कि इससे चीन को लाभ मिलता, हास्यास्पद है। आर. आर. पामर ने ठीक ही लिखा है, “उन्मुक्त द्वार नीति तो चीनियों के लिए न होकर सभी विदेशियों के लिए चीन के द्वार उन्मुक्त करने की नीति थी।”
अमेरिका का फेंका गया यह दाँव अत्यन्त ठीक निशाने पर लगा। ब्रिटेन ने इसे स्वीकृति दे दी, क्योंकि उसके हित चीन के केवल एक हिस्से तक सीमित नहीं थे। ब्रिटेन ने अनुबन्ध को इस शर्त पर मान लिया कि यदि अन्य देश इसकी स्वीकृति का आश्वासन दें तो उसे यह मान्य होगा। फ्रांस, इटली, जर्मनी एवं जापान ने अमेरिका की नीति का समर्थन किया। केवल रूस ने इसमें अनमना रुख अपनाया, परन्तु उसने जिस भाषा का प्रयोग किया, उससे इस अनुबन्ध की स्वीकृति मान ली गई।
इस प्रकार अमेरिका ने उन्मुक्त द्वार की नीति पर यूरोप की अन्य शक्तियों की सहमति की पक्की मुहर लगाकर चीन में अपने हितों को सुरक्षित कर लिया। चीन के विभाजन का जो दौर एकाएक प्रारम्भ हुआ था। वह कुछ समय के लिए रुक तो गया, परन्तु चीन का आर्थिक शोषण और अधिक द्रुत गति से होने लगा, इस द्रुत गति से होने वाले आर्थिक शोषण ने चीन को पतन के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया था। चीन की जनता के एक वर्ग ने इस स्थिति के लिए मंचू प्रशासन एवं विदेशी शक्तियों के हस्तक्षेप को दोषी माना। अतः चीन में मंचू प्रशासन एवं विदेशी शक्तियों के हस्तक्षेप के विरुद्ध या उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद के विरुद्ध भयंकर प्रतिक्रियाएँ सामने आई।