जुगल किशोर बनाम लेबर कमिश्नर वाद :
जुगल किशोर बनाम लेबर कमिश्नर के इस वाद में बिहार दुकान एवं प्रतिष्ठान अधिनियम की धारा 26 ( 2 ) की वैधता को चुनौती दी गयी थी एवं उक्त अधिनियम को अनु० 19(i)(g) द्वारा प्रत्याभूत स्वतन्त्रता के विरूद्ध माना गया था।
भारत का संविधान ‘स्वतन्त्रता के अधिकार‘ के अन्तर्गत अनु० 19(i)(g) द्वारा सभी नागरिकों को कोई भी वृत्ति, उपजीविका या कारोबार करने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। साथ ही खण्ड ( 2 ) इन स्वन्त्रताओं के प्रयोग पर भारत की प्रभुता और अखण्डता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हित में न्यायालय अवमान, मानहानि या अपराध उद्दीपन के सम्बन्ध में युक्तियुक्त निर्बन्धन की भी व्यवस्था करता है स्वतन्त्रता के इस अधिकार में खण्ड (6) द्वारा राज्य को निम्नलिखित आधारों पर निर्बन्धन लगाने की भी शक्ति प्राप्त है।
- साधारण जनता के हित में
- किसी वृत्ति या व्यापार के लिए आवश्यक कारोबार सम्बन्धी या तकनीकी अर्हत्ताएं निर्धारित कर
- नागरिकों को पूर्णतः या अंशतः किसी व्यापार या कारोबार से अपवर्जन कर
वृत्ति, उपजीविका कारोबार या व्यापार की ये स्वन्त्रताएं आत्यन्तिक नहीं हैं। इस अधिकार पर भी युक्तियुक्त निर्बधन आरोपित किये जा सकते है। इस वाद में अधिनियम की व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में प्रश्न उठाया गया था कि अनु० 19 (i)(g) द्वारा प्राप्त व्यापार एवं कारोबार की स्वतन्त्रता पर ये विधि अनुचित प्रतिबन्ध आरोपित करती है अर्थात युक्तियुक्त निर्बन्धनों की वैधता का प्रश्न था।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस वाद में अभिनिर्धारित किया गया कि – “जनहित में अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं एवं उक्त अधिनियम साधारण जनता के हित में ही युक्तियुक्त निर्बन्धन आरोपित करता है।”
न्यायालय ने प्रतिबन्धों का उल्लेख करते हुए संविधान के अनु० 41 (कुछ दशाओं में काम शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार), अनु० 43 (कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि), अनु० 46 (अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा एवं आर्थिक अभिवृद्धि) जैसे निदेशक तत्वों को संदर्भित करते हुए अपना निर्णय दिया।
इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जुगुल किशोर बनाम लेवर कमिश्नर वाद में भी युक्तियुक्त निर्बन्धन को निदेशक तत्वों के आलोक में ही देखा गया तथा जनता के व्यापक हितों में आरोपित प्रतिबन्धों को वैध ठहराया गया।
ये न्यायिक निर्णय, न्यायालय के इस दृष्टिकोण के परिचायक है कि न्यायालय ने मौलिक रूप से व्यक्तिगत अधिकारों की अपेक्षा सामाजिक अधिकारों की स्थापना को लक्ष्य बनाना प्रारम्भ किया, उन्हें प्राथमिकता दी, तदनुरूप इन सामाजिक अधिकारों की प्राप्ति हेतु व्यक्तिगत अधिकारों पर आरोपित प्रतिबन्धों को वैध ठहरा दिया एवं स्पष्ट करने के लिए निदेशक सिद्धान्तों को आधार बनाया।