# हीगल के राज्य सम्बन्धी विचार | हीगल के राजनीतिक विचार | Hegal Ke Rajnitik ViChar

हीगल का राज्य विषयक सिद्धान्त :

हीगल रूसो और अन्य संविदावादियों की इस धारणा से सहमत नहीं है कि राज्य एक कृत्रिम संस्था है और इसका उदय किसी सामाजिक समझौते के परिणामस्वरूप हुआ है। इसके विपरीत वह इस सम्बन्ध में यूनानी विचारकों से प्रभावित है। वह अरस्तू की भाँति राज्य को एक स्वाभाविक संगठन मानता है और उसका विचार है कि व्यक्ति का उच्चतम विकास राज्य में ही सम्भव है। हीगल राज्य को व्यक्तियों के एक कोरे समूह के स्थान पर वास्तविक व्यक्तित्व रखने वाली सत्ता एवं विश्वात्मा की अभिव्यक्ति मानता है।

राज्य की उत्पत्ति :

हीगल ने द्वन्द्वात्मक पद्धति के आधार पर राज्य की उत्पत्ति की प्रक्रिया का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। उसने लिखा है कि इसका निर्माण दो प्रकार के तत्त्वों से होता है। एक ओर तो विश्वात्मा अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती हुई इसके विकास में सहयोग देती है तथा दूसरी ओर मनुष्य अपने को पूर्ण बनाने का प्रयत्न करते हुए इसका निर्माण करते हैं। उसका विचार है कि मानवीय जीवन का सार स्वतन्त्रता है और स्वतन्त्रता की चेतना की प्रगति ही विश्व का इतिहास है। स्वतन्त्रता की प्राप्ति हेतु अब तक जो मानवीय संगठन बनाये गये हैं, उनमें सर्वप्रथम था – परिवार। यह मनुष्य की ऐन्द्रिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता और सुरक्षा प्रदान करता है।

परिवार, जो कि पारस्परिक प्रेम के दृढ़ बन्धनों का परिणाम है। वेपर (Wayper) के शब्दों में, “हीगल के राज्य सम्बन्धी विश्लेषण का प्रारम्भिक बिन्दु है।” परिवार मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बहुत छोटा सिद्ध होता है, इसलिए प्रतिवाद के रूप में ‘नागरिक समाज’ का उदय होता है। परिवार के विपरीत यह ऐसे स्वाधीन मनुष्यों का समूह होता है, जो केवल स्वहित के धागे से बँधे होते हैं। परिवार (वाद) और नागरिक समाज (प्रतिवाद) की पारस्परिक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप एक समवाद का जन्म होता है, जो कि परिवार और समाज दोनों के सर्वोत्तम तत्त्वों को सुरक्षित रखता है और वह समवाद ‘राज्य‘ ही है। इस प्रकार द्वन्द्वात्मक विकास की चरमसीमा राज्य और विकासवादी प्रक्रिया में राज्य से उच्चतर व अधिक पूर्ण कोई नहीं है। हीगल के अनुसार, “इतिहास में राज्य ही व्यक्ति है और आत्मकथा में जो स्थान व्यक्ति का होता है, इतिहास में वही स्थान राज्य का है।”

राज्य साध्य और व्यक्ति साधन :

हीगल के अनुसार राज्य एक सम्पूर्ण इकाई एवं प्राकृतिक सावयव है और व्यक्ति उसके अंग या अवयव मात्र हैं। जिस प्रकार सम्पूर्ण अपने अंगों से बड़ा और अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, वैसे ही राज्य व्यक्तियों से बड़ा और महत्त्वपूर्ण है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति साधन मात्र है। हीगल व्यक्तिवादियों और उपयोगितावादियों के इस सिद्धान्त को अस्वीकार करता है कि व्यक्ति का सुख और स्वतन्त्रता ही जीवन का वास्तविक उद्देश्य है और राज्य इसी उद्देश्य को पूरा करने का एक कृत्रिम साधन है।

हीगल के अनुसार राज्य परम सत्य और वास्तविकता है, इसलिए वही साध्य है और व्यक्ति साधन मात्र है। हीगल ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘इतिहास के दर्शन’ (Philosophy of Histroy) में लिखा है, “मनुष्य का सारा मूल्य और महत्त्व उसकी समूची आध्यात्मिक सत्ता केवल राज्य में ही सम्भव है।” इस विषय पर हीगल की धारणा को प्रो. मैक्गवर्न ने इस प्रकार व्यक्त किया है, “पुराने उदारवादी इस बात पर जोर देते थे कि राज्य स्वयं साध्य नहीं है बल्कि एक साधन मात्र है और साध्य है जनता की भलाई और कल्याण। इसके विपरीत, हीगल ने यह घोषित किया कि राज्य एक साध्य है और व्यक्ति एक साध्य के लिए साधन मात्र है- वह साध्य है उस राज्य का एक ऐश्वर्य, जिसके कि वह घटक हों।”

राज्य एक स्थायी संस्था है, जो अपने नैतिक गुणों के कारण व्यक्तियों के भाग्य की सच्ची निर्णायिका है। हीगल के अनुसार राज्य एक स्थिर नहीं वरन् विकसित संस्था है जो अपने विकास के प्रत्येक चरण में मानव की विवेकशीलता के स्तर को प्रकट करती है। हीगल के ही शब्दों में, “राज्य निरंकुश, सर्वशक्तिमान और अभ्रान्त (कभी गलत न करने वाला) है। राज्य तो पृथ्वी पर परमेश्वर का अवतारणा है। वह पृथ्वी पर अस्तित्वमान एक दैवीय विचार है।”

राज्य तथा स्वाधीनता :

हीगल के सम्मुख जर्मनी के एकीकरण और पुनरुत्थान की समस्या थी और प्रारम्भ से ही हीगल का विचार था कि उग्र व्यक्तिवाद जर्मन चरित्र का एक प्रमुख दोष है। अतः वह इस उग्र व्यक्तिवाद पर अंकुश लगाने की दिशा में प्रेरित हुआ।

हीगल के अनुसार स्वतन्त्रता मनुष्य का सबसे विशेष गुण और मानवत्व का सार है। उसके अनुसार व्यक्ति का हित राज्य का विरोध करने में नहीं वरन् पूर्ण रूप से राज्य की आज्ञा का पालन करने में है। राज्य का स्वयं व्यक्तिकी आत्मा का ही व्यापक रूप है। अतः राज्य और व्यक्ति में कोई विरोध नहीं हो सकता और व्यक्ति की स्वतन्त्रता राज्य की आज्ञापालन में ही निहित है। हीगल के मतानुसार, “एक पूर्ण राज्य वस्तुतः वास्तविक स्वतन्त्रता का प्रतिरूप होता है और राज्य के अतिरिक्त अन्य कोई भी वस्तु स्वतन्त्रता को वास्तविक रूप प्रदान नहीं कर सकती।”

राज्य और स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में हीगल की उपर्युक्त धारणा से यह स्पष्ट है कि राज्य के विरुद्ध व्यक्ति के कोई अधिकार नहीं हो सकते। हीगल राज्य को एक नैतिक संस्था होने के नाते अधिकारों का जन्मदाता भी मानता है। हीगल के राज्य का अपना पृथक् व्यक्तित्व और निश्चित लक्ष्य है और व्यक्ति का एकमात्र अधिकार तथा कर्त्तव्य राज्य को उसकी प्राप्ति में सहायता देना, अर्थात् प्रत्येक स्थिति में उसकी. इच्छानुसार कार्य करना है। हीगल के अनुसार व्यक्ति और राज्य का सम्बन्ध जीवात्मा और विश्वात्मा का है। राज्य में विश्वात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति होती है और चूँकि जीवात्मा का परम उद्देश्य ही विश्वात्मा में लीन हो जाना है। अतः व्यक्ति की स्थिति राज्य की पूर्ण अधीनता की है। व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध कोई अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते हैं।

हीगल राज्य को सर्वोच्च मानने के साथ उसे सर्वथा सही और विवेकपूर्ण सामान्य इच्छा का प्रतीक भी मानता है। इस कारण उसकी इच्छा अर्थात् उसके आदेशों का पालन करना व्यक्ति का परम कर्त्तव्य है। अतः उसकी इच्छा का विरोध कभी न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। इसलिए हीगल नागरिकों को राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार प्रदान नहीं करता, वरन् इस प्रकार की किसी भी स्थिति का निषेध करते हुए उसके एक घृणित कर्म घोषित करता है।

इतिहासकार सेबाइन हीगल के इन विचारों के सम्बन्ध में लिखते हैं, “हीगल का मस्तिष्क जर्मनी के एकीकरण के प्रश्न से चिन्तित था, अतः उसने व्यक्ति को राज्य में विलीन करते समय कुछ भी हिचकिचाहट नहीं दिखायी। वह राज्य की वेदी पर व्यक्ति का बलिदान कर देता है।”

राज्य और नैतिकता :

हीगल के अनुसार राज्य नैतिक दृष्टि से भी पूर्ण निरंकुश है। वह स्वयं नैतिकता का संस्थापक होने के कारण उस पर नैतिकता के किन्हीं नियमों को लागू नहीं किया जा सकता है। अपने ‘आचारशास्त्र’ (Ethics) नामक ग्रन्थ में हीगल लिखता है, “राज्य स्वनिश्चित निरपेक्ष बुद्धि है जो कि अच्छे-बुरे और नीचता तथा छल-कपट के किसी अमूर्त नियम को नहीं मानता।”

हीगल का यह विचार समस्त राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में अभूतपूर्व है। हीगल के पूर्व किसी भी दार्शनिक राज्य की नैतिक निरंकुशता का प्रतिपादन नहीं किया था और वे मानते थे कि राज्य को प्राकृतिक या नैतिक कानून के उल्लंघन का अधिकार नहीं हो सकता। हीगल की विचारधारा के नितान्त विपरीत उन्होंने तो यह बात मानी थी कि प्राकृतिक विधि, नैतिक मान्यताएँ या अन्तःकरण के आदेश पर राज्य का विरोध कर सकता है। किन्तु हीगल प्राकृतिक विधि, सामान्य नैतिक मान्यताएँ या अन्तःकरण इनमें से किसी को भी स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार, ये तो नैतिकता की ‘आत्मनिष्ठ’ (Subjective) धाराएँ हैं, जो समय और स्थान के अनुसार बदलती रहती हैं। नैतिकता की कोई ‘वस्तुगत’ (Objective) कसौटी होनी चाहिए और राज्य के कानून ही वे कसौटी हैं। अतः राज्य नैतिकता से उच्च है और नैतिकता राज्य के कानूनों के पालन में ही निहित है।

राज्य तथा समाज :

हीगल की राज्य सम्बन्धी विचारधारा की एक अन्य विशेषता यह है कि वह राज्य को समाज से भी उच्च तथा श्रेष्ठ मानता है। हीगल के द्वारा द्वन्द्वात्मक पद्धति के आधार पर राज्य की उत्पत्ति का वर्णन करने के लिए जो विचार-क्रम अपनाया गया है उसके ‘अन्तर्गत परिवार ‘वाद‘, नागरिक समाज ‘प्रतिवाद‘ और राज्य ‘समवाद’ है। इस प्रकार समाज सार्वभौम आत्मा के विकास में राज्य से पहले की अवस्था है और उसका आधार स्वार्थ तथा प्रतियोगिता है, लेकिन राज्य सार्वभौम आत्मा के विकास की सर्वोच्च अवस्था है और इस दृष्टि से समाज की तुलना में उच्च है।

इसका अभिप्राय यह है कि राज्य सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहलू को अपनी इच्छानुसार निर्धारित और नियमित कर सकता है। हीगल की इसी धारणा के कारण उसके दर्शन को सर्वाधिकारवादी कहा जाता है।

अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में राज्य की स्थिति (युद्ध सम्बन्धी विचार) :

हीगल राष्ट्रीय राज्य का न केवल प्रशंसक, वरन् उपासक था और उसकी धारणा थी कि राष्ट्रीय राज्य का आधारभूत विचार संघर्ष है, जो दैवी इच्छा के अनुरूप है। राष्ट्रीय राज्य दूसरे राज्यों के साथ संघर्ष के इस मार्ग को अपनाकर ही अपनी पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अन्तर्राष्ट्रीयता में उसका बिल्कुल विश्वास नहीं था और युद्ध को वह मानव-जाति की अनिवार्य आवश्यकता मानता था। वेपर के अनुसार, वह मानता है कि, “शान्ति मनुष्य के चरित्र को भ्रष्ट करने वाली और स्थायी शान्ति पूर्णतया भ्रष्ट करने वाली होती है।” वह लिखता है कि, “युद्ध मानव के स्वार्थी अहं का नाश करता है और इस प्रकार मानव-जाति को पतन के मार्ग से बचाकर उसमें क्रियाशीलता का संचार करता है। जिस प्रकार समुद्र में शान्ति के समय उत्पन्न होने वाली गन्दगी प्रबल तूफान से नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार मानव समाज की गन्दगी तथा भ्रष्टाचार की शुद्धि युद्ध से हो जाती है।”

उसके अनुसार युद्ध में व्यक्ति और राज्य का सर्वोत्कृष्ट रूप प्रकट होता है और इससे गृह युद्ध की सम्भावना समाप्त हो जाती है। युद्ध के पक्ष में एक विचित्र तर्क वह यह भी देता है कि एक समय पर केवल एक ही राज्य में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो सकती है और परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्तिकिस राज्य में है, इसका ज्ञान युद्ध के परिणाम से ही हो पाता है। युद्ध में विजयी राज्य को ही विश्वात्मा का पूर्ण स्वरूप कहा जा सकता है।

उग्र राष्ट्रवादी होने के कारण हीगल अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा व्यवस्था का समर्थक नहीं था। अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों को यह केवल कुछ परम्पराएँ मात्र मानता है, जिसे मानना या न मानना सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य की अपनी इच्छा पर निर्भर करता है और उसका विचार है कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध और सामान्य नैतिक नियमों का निर्णय तो ‘विश्व इतिहास के अन्तिम न्यायालय’ में ही हो सकेगा।

इस प्रकार हीगल एक ऐसे सर्वाधिकारवादी राज्य का उपासक है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति स्वातन्त्र्य, मानवीय अधिकार और अन्तर्राष्ट्रीय कानून को कोई स्थान प्राप्त नहीं है।

हीगल के राज्य की विशेषताएँ :

उपर्युक्त विवेचना के आधार पर हीगल की राज्य सम्बन्धी धारणा की प्रमुख बातें निम्नलिखित प्रकार बतायी जा सकती हैं-

  1. राज्य मानवीय जीवन की सर्वोच्च संस्था है, स्वयं समाज या अन्य कोई संस्था राज्य के समकक्ष नहीं हो सकती है।
  2. व्यक्ति एक एकाकी इकाई नहीं है, वरन् वह जिस समाज में रहता है, उसका एक अविभाज्य अंग है।
  3. राज्य स्वयं एक साध्य है और व्यक्तिराज्य के विकास का एक साधन मात्र है।
  4. राज्य स्वयं व्यक्ति की आत्मा का ही एक व्यापक रूप है और व्यक्ति की स्वतन्त्रता राज्य की आज्ञापालन करने में ही निहित है।
  5. राज्य अपने नागरिकों की सामाजिक नैतिकता को स्वयं में समेटे उसका प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन राज्य स्वयं नैतिकता से ऊपर है।
  6. राज्य अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए स्वतन्त्र है और उस पर अन्तर्राष्ट्रीय कानून या अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता का कोई भी प्रतिबन्ध नहीं हो सकता है।
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