आधुनिक काल में विविध सन्दर्भों में व्यवहारिक तौर पर ‘लोक‘ शब्द का प्रयोग अनेक बार होता है। बल्कि यह कहना बिल्कुल समीचीन होगा कि लोक शब्द जन-मानस के लिए रूढ़ हो गया है। लोक शब्द के कुछ शब्द दृष्टव्य है- लोक सभा, लोक कल्याण, लोक मत, लोक हित, लोकार्पण, लोकाचार, लोक तांत्रिक, लोक संस्कृति, लोक गाथा, लोक-नाट्य, लोक-गीत आदि। आधुनिक काल में अध्ययन की दृष्टि से ‘लोक’ शब्द का व्यापक अर्थ हो गया है।
लोक शब्द का अर्थ :
‘लोक‘ शब्द का अंग्रेजी भाषा के फो़क (Folk) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। लोक शब्द का प्रयोग व्यापक और संकुचित दोनों अर्थों में उपलब्ध होते हैं। “संकुचित अर्थ में फो़क शब्द से असंस्कृत और मूढ़ समाज का बोध होता है तथा व्यापक अर्थ में इसका प्रयोग सुसंस्कृत राष्ट्र के सभी लोगों के लिए होता है।” वर्तमान समय में जब हम लोक शब्द का प्रयोग करते हैं, तो जनसमुदाय की ओर संकेत करता है। लेकिन यह शब्द अति प्राचीन है। लोक शब्द की उत्पत्ति के विषय में जानने के लिए प्राचीन साहित्यिक सामग्रियों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है।
“सिद्धान्त कौमुदी में ‘लोक’ शब्द संस्कृत के ‘लोकदर्शने’ धातु में ‘धञ’ प्रत्यय जोड़ने से निष्पन्न हुआ है।” इस धातु का अर्थ ‘देखना’ होता है। लट्लकार के अन्य पुरुष एक वचन में इसका रूप होता है- ‘लोकते’। इस प्रकार लोक शब्द का अर्थ होगा- देखने वाला। अर्थात् वह “समस्त जनसमुदाय जो इस क्रिया को करता है- लोक के अन्तर्गत समाविष्ट है।”
श्रीमद्भागवत गीता, रामचरितमानस, ऋग्वेद आदि ग्रन्थों में ‘लोक’ शब्द का प्रयोग सहजता से प्राप्त होता है। ऋग्वेद भारत के प्राचीनतम् ग्रन्थ माना जाता है। जिसमें ‘लोक’ शब्द जन (People) के रूप में अनेक स्थानों पर प्रयोग किया गया है। ऋग्वेद के ही पुरुष सूक्त में लोक शब्द का प्रयोग ‘स्थान’ तथा जीव शब्द के अर्थ को व्यक्त करने के लिए प्रयोग किया गया है, जैसे-
नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीष्ण्रों द्यौः समवर्तत।
पदभ्यां भूमिद्दिशः श्रोत्तालथा लोकां अकल्पयन् ॥
गोस्वामी तुलसीदास ने लोक शब्द का प्रयोग सार्थक रूप में किया है। “रामचरितमानस में लोक और वेद शब्द का प्रयोग अनेक बार किये हैं।”
लोकहुँ बेद सुसाहिब रीति,
विनय सुनत पहिचानत प्रीति।
गनी गरीब ग्राम नर नागर,
पंडित मूढ़ मलिन उजागर।।
– (रामचरितमानस, बालकाण्ड, पृ.31)
“विनय पत्रिका में भी तुलसीदास ने लोक और वेद का भेदात्मक स्थिति स्पष्ट की है-
“लोक कि वेद बढेरी।”
भगवत गीता में ‘लोक’ शब्द तथा लोक संग्रह शब्द का प्रयोग अनेक स्थानों पर हुआ है।
– (गीता 3/3, 3/22, 3/24)
श्रीकृष्ण ने लोक संग्रह पर बल देते हुए लोकसंग्रह का अर्थ साधारण जनता के आचरण व्यवहार तथा आदर्श से लिया है-
कर्मणैव हि संसि हिमास्थिता जनकारयः।
लोकसंग्रहमेवापि संपष्यन् कर्तुमर्हसि ।।
– (गीता 3/20)
वृहद भारती शब्दकोश में लोक शब्द का अनेक अर्थ है- “1. स्थान विशेष जिसका बोध प्राणी है, जैसे- इहलोक, परलोक, 2. पृथ्वी के ऊपर नीचे के कुछ विशिष्ट कल्पित स्थान, भुवन, 3. संसार, जगत, 4. लोग, जन, 5. सारा समाज, जनता आदि।
लोक समूहवाची शब्द है। वह जनसमुदाय जो प्राचीन परम्परा से जुड़ा हो और पूर्णरूपेण ग्रामीण क्षेत्र से संबंधित हो तथा आधुनिक सभ्यता से दूर अपनी संस्कृति को प्रतिविभक्ति करता है उसे लोक कहा जा सकता है।
लोक (Folk) की परिभाषाएं :
लोक (Folk) शब्द की व्याख्या करते हुए विभिन्न विद्वानों द्वारा निम्न मत प्रकट किये हैं –
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी – “लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है, बल्कि नगरों और ग्रामों में फैली समस्त जनता है। जिनके व्यवहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं है। ये लोग नगर में परिष्कृत, रुचि सम्पन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन के असभ्य होते है और परिष्कृत रूचि वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारिता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएँ आवश्यक होती है उनको उत्पन्न करते हैं।”
डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय के मतानुसार – “आधुनिक सभ्यता से दूर, अपने प्राकृतिक परिवेश में निवास करने वाली, तथाकथित अशिक्षित एवं असंस्कृत जनता को ‘लोक’ कहते है जिनका आचार-विचार एवं जीवन परम्परायुक्त नियमों से नियंत्रित होता है।”
इससे स्पष्टतया ज्ञात होता है, कि जो लोग संस्कृत तथा परिष्कृत लोगों के प्रभाव से बाहर रहते हुए अपनी पुरातन स्थिति से वर्तमान है उन्हें ‘लोक’ की संज्ञा प्राप्त है।
डॉ. श्याम परमार – “आधुनिक साहित्य की नूतन प्रवृत्तियों में ‘लोक’ का प्रयोग गीत, वार्ता, कथा, संगीत, साहित्य आदि से युक्त होकर साधारण जनसमाज जिसमें पूर्व संचित परम्पराएँ, भावनाएँ, विश्वास और आदर्श सुरक्षित है तथा जिसमें भाषा और साहित्यगत सामग्री ही नहीं, अपितु अनेक विषयों के अनगढ़ किन्तु ठोस रत्न छिपे हैं के अर्थ में होता है।”
डॉ. सत्येन्द्र के अनुसार – “लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है, जो अभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य है और जो एक परम्परा के प्रवाह में जीवित रहता है।”
पं. रामनरेश त्रिपाठी ने लोक शब्द का व्यवहार न कर ग्राम शब्द का प्रयोग करते हुए अपनी पुस्तक का नाम ग्राम साहित्य रखा है। उनके मतानुसार “मैंने गीतों का नामकरण ग्राम-गीत शब्द से किया है, क्योंकि गीत तो ग्रामों की संपत्ति है। शहरों में तो ये गेम है, इससे मैं यह उचित समझता हूँ कि ग्रामों का यह यादगार ग्रामशील शब्द से स्थायी हो जाय।
डॉ. हरद्वारीलाल शर्मा के अनुसार – “सच पूछा जाय तो हमारा लोक वहीं है जो हमें देखता है और जिसे हम देखते हैं, जो लोक का मूल अर्थ है। देखना, मात्र जिज्ञासा के लिए नहीं वरन देखना अपना समझकर, अपना मानकर, अपनेपन के भाव के साथ। आँखों में अपनेपन के भाव की झलक देखी जा सकती है, यह झलक मन की भाषा है, जिसका अर्थ है ‘लोक’।”