पारिस्थितिक अनुक्रमण :
यदि हम किसी स्थान या जगह का समय-समय पर सूक्ष्मता या गहराई से अध्ययन करें तो हमें ज्ञात होगा कि वहाँ की वनस्पति के संगठन में परिवर्तन होता रहता है। कुछ नई जातियाँ दिखाई देती हैं और कुछ जातियाँ लुप्त हो जाती हैं। इस तरह वनस्पतियों का संगठन दूसरे वनस्पतियों के संगठन में बदल जाता है।
प्रत्येक जैविक समुदाय का अपना विकास होता रहता है। एक ही स्थान पर हो रहे एक दिशीय परिवर्तनों या दीर्घकालीन एक दिशीय समुदाय के परिवर्तन को ही ‘पारिस्थितिक अनुक्रमण‘ (Ecological succession) कहते हैं।
काउल्स (1900), क्लीमेट्स (1918) ने अपने-अपने तरीके से ‘पारिस्थितिक अनुक्रमण‘ को परिभाषित किया परन्तु सर्वप्रथम अनुक्रमण को स्वीडन के ‘हुल्ट’ (1885) ने बताया। अनुक्रमण समुदाय, विकास की क्रमिक क्रिया है जिसमें समय के अनुसार जातियाँ की रचनायें भी परिवर्तित होती रहती हैं।
अनुक्रमण (succession) को निम्न प्रकार में विभक्त किया जा सकता है-
- ओटोजनिक अनुक्रमण (Autogenic succession)
- एलोजनिक अनुक्रमण (Allogenic succession)
- विचलित अनुक्रमण (Deflected succession)
- अभिप्रेरित अनुक्रमण (Induced succession)
- आटोट्राफिक अनुक्रमण (Autotrophic succession)
- हेटरोट्राफिक अनुक्रमण (Heterotrphic succession)
- प्राथमिक अनुक्रमण (Primary succession)
- द्वितीयक अनुक्रमण (Secondary succession)।
अनुक्रमण के लक्षण :
- यह एक सुव्यवस्थित प्रक्रिया है।
- यह अन्त में चरम समुदाय (Climax community) पर पहुँचती है।
- यह वातावरण (Atmosphere) पर निर्भर रहती है।
- समान मौसम में समान समुदायों की उत्पत्ति करती है।
- अन्त में स्थायी समुदाय को बनाती है।
- यह एक जैविक प्रक्रिया है।
- यह एक दिशीय (unidirectional) प्रक्रिया है।
अनुक्रमण के कारक :
- प्रवास (Migration),
- आस्थापन (Ecesis),
- नग्नीकरण (Nudation),
- समूहन (Aggregation),
- आगमन (Invasion),
- मृदा अपरदन (Soil erosion),
- जमाव (Deposition),
- जलवायवीय क्रियायें (Climatic process),
- जैविक कारक (Biotic factors)।
अनुक्रमण के प्रकार :
अनुक्रमण का प्रकार उस स्थान से सम्बन्धित रहता है जहाँ से वह प्रारम्भ होता है। जैसे जहाँ पानी अधिक हो तो उसे जलक्रमक (hydrosere) कहते हैं। जहाँ पानी की कमी हो उसे मरुक्रम (xerosere) कहते हैं।
पारिस्थितिकी अनुक्रमण के सिद्धान्त :
(1) अनुक्रमण के द्वारा पौधों तथा जन्तुओं की किस्मों में निरन्तर परिवर्तन होता जाता है। प्रारम्भ में जो जातियाँ प्रमुख होती हैं, वे चरमावस्था में गौण अथवा विलुप्त हो जाती हैं।
(2) अनुक्रमण के दौरान जैव पुंज तथा जैव पदार्थों की खड़ी फसल में वृद्धि होती जाती है।
(3) जैवीय संरचना में परिवर्तन तथा उनकी मात्रा में वृद्धि के कारण जीवों की जातियाँ (Species) में परिवर्तन होता जाता है।
(4) अनुक्रमण की प्रगति के अनुसार जातियों में विविधता बढ़ती जाती है। विशेषकर परपोषी जीवों में अधिक विविधता आती है।
(5) अनुक्रमण की प्रगति के साथ जीव समुदाय के शुद्ध उत्पादन में कमी हो जाती है अर्थात् कुल जीव समुदाय से उत्पन्न जैव पुंज की मात्रा घट जाती है। जीव समुदाय अधिक ऊर्जा का उपभोग करता है।
(6) समुदाय में जीवों पर प्राकृतिक चयन (Natural Selection) का प्रभाव बढ़ता जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि जैसे-जैसे पारितन्त्र स्थिर सन्तुलन की ओर अग्रसर होता है प्राणियों की संख्या घटती जाती है। जो जीव बदली हुई पारिस्थितिकी से अनुकूलन नहीं कर पाते वे नष्ट हो जाते हैं।
(7) साम्यावस्था (Steady State) में पारितन्त्र में प्रति इकाई ऊर्जा के उपभोग से अधिकतम जैव पुंज का पोषण होता है।
(8) सामान्य जलवायु वाले निवास (Habitat) में चरमावस्था में सभी पूर्ववर्ती से समाहित हो जाते हैं। जैव संरचना, स्पीशीज, समूह एवं उत्पादकता में स्थायित्व आ जाता है । इस स्थिति में सभी जातियाँ पुनरुत्पादन करती हैं।
(9) तब किसी नई स्पीशीज के समुदाय में प्रविष्ट होने के प्रमाण नहीं मिलते।
यदि मनुष्य पारितन्त्र से अपने भोजन या अन्य जैविक पदार्थों की पूर्ति चाहता है तो उसके लिए चरम अवस्था के पूर्व की दशाएँ अधिक उपयोगी हैं। चरमावस्था आने पर शुद्ध उत्पादन शून्य हो जाता है।