दंतेवाड़ा की फागुन मंडई :
बस्तर के ऐतिहासिक मेला परंपरा में दंतेवाड़ा की फागुन मंडई का स्थान भी अत्याधिक महत्वपूर्ण है। यह प्रतिवर्ष फागुन मास में सप्तमी शुक्ल पक्ष से शुक्ल चौदस तक मनाया जाता है। यह मेला दंतेवाड़ा की दंतेश्वरी देवी के सम्मान में मनाया जाता है। बस्तर रियासत के काकतीय (चालुक्य) महाराजा पुरूषोत्तम देव (1408-1439 ई.) के समय 1408 ई. में फागुन मंडई की शुरूआत हुई थी। तब से प्रतिवर्ष होली त्यौहार के पूर्व आठ दिनों तक पर्व आयोजित होता चला आया है।
इस मंडई पर्व के प्रथम दिवस पर मांई दंतेश्वरी मंदिर में विधिवत् पूजा-अर्चना के बाद ‘मेंड़का डोबरा’ मैदान में कलश स्थापना की जाती है। सायंकाल के समय देवी दंतेश्वरी और माता मावली की पालकी निकाली जाती है। परंपरानुसार सलामी देने के बाद देवी-देवताओं के समूह के साथ शोभायात्रा नारायण मंदिर की ओर प्रस्थान करता है। इस अवसर पर सेवादार, मांझी-मुखिया, चालकी, तुड़पा, कतियार, पडियार आदि पदाधिकारी भी सम्मिलित होते हैं। नारायण मंदिर में ‘ताड़फलंगा धोनी’ की रस्म पूरी की जाती है। इस विधानांतर्गत ताड़ के पत्तों को दंतेश्वरी सरोवर (माता तराई) में धोकर रख दिया जाता है। पूजा विधान के पश्चात इन्हें होलिका दहन के लिए सुरक्षित रख लिया जाता है। पुनः बाजे-गाजे के साथ पालकी मंदिर में लौट आती है।
फागुन मंडई में सम्मिलित होने हेतु देवी-देवताओं का आगमन व संविलियन का भी अत्याधिक महत्वपूर्ण स्थान है। इसके अंतर्गत दूर-दराज से ग्रामीण देवी-देवताओं के छत्र, ध्वजा, आंगादेवों आदि को लिए हुए पहुंचते हैं। इन दैवीय प्रतिकों के साथ पहुंचे अधिकांश ग्रामिणों को माई दंतेश्वरी मंदिर के पीछे स्थित ‘माई जी की बगिया’ के निकट ठहराया जाता है।
फागुन मंडई पर्व में सर्वप्रमुख व आकर्षक रस्म, शिकार का प्रतीकात्मक प्रदर्शन है। इस पर्व में लम्हामार (खरगोश का शिकार), गंवरमार (जंगली भैंसे का शिकार), कोटरीमार (हिरण का शिकार) आदि में परंपरागत प्रतीकात्मक शिकार रस्म निभाई जाती है। होलिका दहन के दिन ‘आंवलामार’ का आयोजन भी एक विशिष्ट परंपरा है। सेवादार और मंदिर के पुजारी दो भागों में विभाजित होकर एक-दूसरे पर आँवला फल से प्रहार करते है। ऐसा माना जाता है कि जिस पर आँवले का प्रहार होता है वो वर्षभर निरोगी रहते हैं। इसी तरह आरोग्य और मंगल की वर्षा दंतेवाड़ा में देवी-दंतेश्वरी की छत्र-छाया में होती है जब उनके दर्शन व आशीर्वाद प्राप्ति की कामना से वशीभूत श्रद्धालु दूर-दूर से आते हैं।
फागुन मंडई ने नाचा परंपरा को भी संरक्षण प्रदान करते हुए उसका पोषण किया है। इस पर्व के माध्यम से ‘डंडारी नाचा’ को संरक्षण प्राप्त हुआ है। दक्षिण बस्तर में विलुप्तप्राय डंडारी नाचा की परंपरा को चिकपाल-मारडूम के धुरवा जनजाति के लोग कई पीढ़ियों से सहेजे हुए हैं। राजस्थान की डांडिया शैली से मेल खाती डंडारी नाचा की अपनी अलग विशेषता है। खास किस्म की बांसुरी की धुन पर नर्तक लयबद्ध तरीके से थिरकते हैं। डांडिया में साबुत डंडियों का उपयोग होता है, जबकि डंडारी नाचा के लिए खास किस्म के बाँस की खपच्चियाँ काम आती है। बाँस की डंडियों को बाहर की तरफ चीरे लगाए जाते हैं, जिनके टकराने से बांसुरी व ढोल के साथ नई जुगलबंदी तैयार होती है। बांस की खपच्चियों को नर्तक स्थानीय धुरवा बोली में ‘तिमि वेदरी’, बांसुरी को ‘तिरली’ के नाम जानते हैं। तिरली को साध पाना हर किसी के बूते की बात नहीं होती। यही वजह है कि दल में ढोल वादक कलाकारों की संख्या अधिक जबकि इक्के-दुक्के ही तिरली की स्वर लहरियाँ सुना पाते हैं।
नृत्य के दौरान ही मुंह में सीटी दबाए नर्तक का संकेत पाकर, दल फुर्ती से अपनी मुद्रा बदल लेता है। कलाकारों की माने तो छोलिया डंडारा, मकोड झूलनी, सात पडेर, छः पडेर आदि कई धुन बजाई जाती है। सभी की नृत्य मुद्राएँ तय है। डंडारी नाचा में जब महिलाएं भी शामिल हों तो ‘बिरली नाचा’ की मोहक धुन बजने लगती है। दंतेवाड़ा फागुन मंडई की संपूर्ण व्यवस्था टेम्पल कमेटी दंतेवाड़ा द्वारा की जाती है।.