मूल अधिकारों में संशोधन :
मूल अधिकार राज्य के विरूद्ध प्रदत्त है अतः इसके कारण व्यवस्थापिका से मतभेद चलता रहा है। सर्वोच्च न्यायालय इसका निराकरण करने के लिए विभिन्न वाद में समय-समय पर न्याय निर्णय दिए हैं-
शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार
शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार वाद में संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार मान्य किया गया।
गोलकनाथ विरूद्ध पंजाब राज्य
इस मुकदमे के निर्णय में कहा गया कि संसद मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती, क्योंकि अनु. 368 में संविधान संशोधन की संसदीय प्रक्रिया वर्णित है, न कि शक्ति।
24 वाँ संविधान संशोधन
1971 में उपरोक्त निर्णय को अप्रभावी बना दिया गया। प्रावधान किया गया कि संसद को मौलिक अधिकार सहित संविधान के सभी हिस्सों में संशोधन का अधिकार है।
शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार
केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य (1973) में यह निर्णय दिया गया कि संसद संविधान में संशोधन तो कर सकती है पर ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती है, जिससे संविधान का आधारभूत ढांचा नष्ट हो, इस तरह संसद की संशोधन की शक्ति को विधिमान्य ठहराया गया किन्तु इसे नियंत्रित भी कर दिया गया।
42वां संविधान संशोधन (1976)
42वां संविधान संशोधन (1976) द्वारा संसद के संशोधन की शक्ति को न्यायालय की अधिकारिता से बाहर कर दिया गया।
44वां संविधान संशोधन
44वें संशोधन द्वारा सर्वोच्च न्यायालय की संविधान संशोधन की वैधता जांचने की शक्ति स्वीकारी गयी।
मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ
मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ 1980 में कहा गया कि संसद संशोधन के माध्यम से संविधान के मूल ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता. अधिकारों को संविधान का आधारभूत ढांचा माना।