नारायणपुर का मावली मेला :
बस्तर क्षेत्र के प्रसिद्ध मेला-मड़ईयों में नारायणपुर का मावली मेला विख्यात है। यह मेला सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होने के साथ ही प्राचीन भी है। किवदंतियों के अनुसार यह मेला आज से 800 वर्ष पूर्व से आयोजित हो रहा है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से नारायणपुर के मावली मेले का प्रारंभ काकतीय (चालुक्य) राजाओं द्वारा प्रारंभ कराया जान पड़ता है। सन् 1313 ई. में प्रतापरूद्र का अनुज अन्नमदेव वारंगल छोड़कर बीजापुर होते हुए बारसूर आ पहुंचा था। उसने अंतिम नागवंशी नरेश हरिशचंद्र देव को पराजित कर वैशाख शुक्ल 8, दिन बुधवार, सन् 1313 ई. में सिंहासनारूढ़ होकर अपनी राजधानी दंतेवाड़ा में स्थानांतरित की। अन्नमदेव ने बारसूर से देवी दंतेश्वरी की मूर्ति लाकर दंतेवाड़ा में स्थापित की साथ ही शंखिनी-डंकिनी नदियों के संगम पर देवी का मंदिर निर्मित करवाया था। यह मंदिर आज भी शाक्त भक्तों की आस्था का प्रमुख केन्द्र है। इसी क्रम में कुल देवी के प्रति असीम श्रृद्धा से प्रेरित होकर राजा ने बस्तर के कई बड़े गाँवों जैसे छोटेडोंगर, नारायणपुर, परतापपुर, परलकोट आदि में माँ मावली देवी (दंतेश्वरी देवी का एक रूप) का मंदिर बनवाया व मूर्ति स्थापित की। प्रत्येक मंदिर में पुजारी नियुक्त कर वार्षिक मेला आयोजित करने की प्रथा प्रारंभ की गई। इसी समय से नारायणपुर में मावली देवी का मेला भरता आ रहा है।
क्षेत्र के लोग पूरी आस्था से परिपूरित अपने देवी-देवता व अंगादेवों के साथ मेला पर्व में अपनी सहभागिता निभाते हैं। मेले के दिन मावली मंदिर में सर्वप्रथम ‘कोकड़ीकरिन देवी’ का आंगा कोकोड़ी से आता है। दोपहर दो बजे शीतला मंदिर से शीतला देवी व सोनकुंवर देवता आते हैं, तत्पश्चात मावली देवी सफेद ध्वजों के साथ सभी उपस्थित देवी -देवताओं व अंगादेवों के साथ बुधवारी बाजार पहुंचते हैं। इसके पश्चात मावली देवी का निमंत्रण लेकर सोनकुंवर देवता नगाड़ा के साथ गढ़िया मंदिर पहुंचते हैं। तत्पश्चात पाँच पांडव व पांचाली सती सिरहाओं से चढ़नी कर बुधवारी बाजार पहुंचते हैं। जिस सिरहा पर भंवरदेवता (साकरसाव) आरूढ़ होता है वह दोनों पैरों में लोहे की बेड़ी लगाए बगैर खड़ा नहीं रह सकता।
सभी देवी-देवता मावली मंदिर में भेंट-मिलाप कर मावली देवी के दोनों श्वेत ध्वज, सती देवी व सोनकुँवर देवता की अगुवानी में लगभग तीन बजे जूलूस के रूप में मेला परिक्रमा हेतु बुधवारी बाजार से प्रस्थान करते हैं। मेले की दो परिक्रमा के बाद मेला स्थल के पूजा स्थान (अड़मावली) में कुछ देर रूककर नाच-गाना करने के बाद एक उलटी परिक्रमा कर बुधवारी बाजार आ जाते हैं। यहीं पर देवी-देवताओं को श्रीफल इत्यादि देकर ससम्मान बिदाई दी जाती है। बिदाई कार्यक्रमोपरांत देवी-देवता अपने गंतव्य की ओर चले जाते हैं। मेला के पूर्व रात्रि में 12 बजे से 4 बजे तक गढ़िया बाबा के पुजारी द्वारा मेला स्थल में विशेष पूजा सम्पन्न की जाती है।
मावली मेला प्रारंभ होने के तीन दिन पूर्व गढ़िया बाबा के मंदिर में रात को पूजा-अर्चना, नया ‘सिरहा चढ़ाना रस्म’ चलता है। प्रथम रात्रि को ही ‘देव उतारना’ पूजा सम्पन्न होती है। इसी दिन मावली मेला व शीतला माता मेला के लिए काजल बनाया जाता है। काजल बनाए जाने की विधि बहुत ही गोपनीय है जिसे सार्वजनिक नहीं किया जाता। इस काजल को श्रृद्धालु बहुत पवित्र मानते हैं, मेला परिक्रमा दो बार हो जाने के उपरांत अड़मावली पूजा स्थल में इस काजल को मस्तक पर लगाने की होड़ मच जाती है।
इस दिवस की संध्या में सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन, मावली मंडई के हृदय स्थल के मुख्य मंच पर होता है जो तीन दिवस तक प्रत्येक संध्या को सम्पन्न कराया जाता है। सांस्कृतिक कार्यक्रम में राज्य स्तरीय कलाकारों के साथ-साथ दूसरे प्रदेशों से आए कलाकार भी अपनी प्रस्तुति देते हैं। बस्तर अंचल सहित स्थानीय लोक-कलाकारों के साथ-साथ अन्य लोक नर्तक दलों की आकर्षक प्रस्तुति बस्तर की सांस्कृतिक वैभवता का प्रदर्शन करती है। स्थानीय नर्तक दलों द्वारा इस मेला उत्सव में पारंपरिक नृत्यों यथा ककसाड़, हुल्की, मांदरी, गौर, गेड़ी आदि का प्रदर्शन किया जाता है।
परंपरा-संस्कृति के साथ आधुनिकता का मिश्रण इस मेले की विशिष्टता है। यहाँ पर जहाँ अबुझमाड़ के आदिवासी युवक सिर पर पगड़ी में मोर पंख की कलगी, कंघा लगाकर अलग नजर आते हैं, वहीं अबुझमाड़िया युवतियॉं अपने करीने से सजाए जूड़े और साज-श्रृंगार के जरिए पृथक पहचान रखती है। देशी-विदेशी सैलानी यहाँ की परम्परा-संस्कृति को निकट से जानने व समझने के लिए मावली मेले में अपनी सहभागिता दर्शाते आए हैं।