कुटीर उद्योग के विनाश/पतन के कारण :
भारत में उन्नीसवीं शताब्दी में महान् आर्थिक परिवर्तन हुए। इस शताब्दी में चाय, जूट व सूती वस्त्र आदि उद्योगों को विकसित करने का प्रयत्न किया गया, किन्तु यह विकास नगण्य मात्र था। अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक ही भारत के अपने मूल उद्योग पूर्ण रूप से समाप्त हो चुके थे। हस्तशिल्प एवं कुटीर उद्योग के पतन निम्नांकित कारणों से हुआ-
1. ब्रिटिश औद्योगिक नीति
ब्रिटिश शासकों ने अपनी औद्योगिक क्रान्ति को सफल बनाने के लिए भारतीय उद्योगों के हितों को बलि चढ़ा दी। अतः वे भारत को कच्चे माल का उत्पादन तथा निर्मित माल के लिए बाजार बनाने पर तुल गये। अतः भारतीय वस्तुओं के ब्रिटेन में आयात पर ऊँचे आयात कर व दण्ड की व्यवस्था की, जबकि दूसरी ओर स्वतन्त्र व्यापार नीतियों द्वारा ब्रिटिश उद्योगों के निर्मित माल भारत में खपाने के प्रयास प्रबल किये। यही नहीं, प्रारम्भ में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारतीय विदेशी व्यापार का एकाधिकार दिया तथा बाद में ब्रिटिश पूँजीपतियों को भारत में फैक्टरियाँ स्थापित करने की छूट प्रदान की। यह छूट इसलिए प्रदान की गई कि भारतीय उद्योगों को प्रतिस्पर्धा में मटियामेट कर सके। ब्रिटिश शासन की औद्योगिक नीति हमेशा भारतीय व्यापार को हानि पहुँचाने की रही।
2. देशी राजाओं तथा नवाबों का पतन
प्राचीन उद्योगों को राजाओं तथा नवाबों का संरक्षण प्राप्त था। वे कलापूर्ण वस्तुओं के शौकीन थे। कुशल कारीगरों को उनके यहाँ वे आश्रय प्राप्त होता था। राजाओं तथा नवाबों की समाप्ति से इन उद्योगों को संरक्षण मिलना समाप्त हो गया। फलस्वरूप कारीगरों के लिए जीविकोपार्जन कठिन हो गया।
3. पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव
अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों की रुचि और स्वभाव में परिवर्तन हुआ। उन्होंने विदेशी वस्तुओं का उपयोग अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल समझा। विदेशी वस्तुओं का उपयोग करने में वे गौरव अनुभव करने लगे। इस प्रकार भारतीय वस्तुओं की माँग घटने लगी तथा कुटीर एवं लघु उद्योगों का पतन प्रारम्भ हो गया।
4. मशीन द्वारा निर्मित माल से प्रतिस्पर्धा
आर. सी. दत्त के अनुसार, “यूरोप के बिजली करघे के आविष्कार ने भारतीय उद्योगों के ह्रास में पूर्णाहुति दे दी।” भारतीय उद्योगों का विदेशी उद्योगों से स्पर्धा करना सम्भव नहीं था, क्योंकि विदेशी उद्योग वैज्ञानिक मशीन, बड़े पैमाने के उत्पादन एवं अन्य साधनों से पूर्ण थे। अतः इंग्लैण्ड से सस्ती-सस्ती वस्तुएँ अधिक मात्रा में भारत आने लगी जिसकी स्पर्धा में भारतीय उद्योग न टिक सके।
5. आधुनिक परिवहन का विकास
यातायात के आधुनिक साधनों के कारण विदेशी माल के लिए बढ़ी हुई माँग की पूर्ति करना सम्भव हो सका। अतः भारतीय उद्योगों के पतन में यातायात के आधुनिक साधनों ने भी योग दिया।
6. भारतीय कारीगरों पर प्रतिबन्ध
अंग्रेजी उद्योगपतियों के हितों की सुरक्षा के लिए भारतीय कारीगरों पर प्रतिबन्ध एवं नियन्त्रण रखा गया। अच्छी कलापूर्ण वस्तुओं के निर्माण को हर प्रकार से बन्द करने का प्रयत्न किया गया। समस्त प्रकार के भारतीय उद्योगों को इंग्लैण्ड के उद्योगों पर आश्रित करने की नीति अपनाई गई। उनका मन्तव्य यह था कि भारतीय इंग्लैण्ड के करघों और कारखानों की पूर्ति के लिए कच्चे माल का ही उत्पादन करें। इस नीति का अनुसरण बड़ी दृढ़ता से किया गया और इसका घातक परिणाम हुआ।
7. भारतीय शिल्पियों को नष्ट करने की ब्रिटिश नीति
अंग्रेजी शासकों ने भारतीय शिल्पियों को नष्ट करने की नीति अपनाई। कारीगरों को ईस्ट इण्डिया कम्पनी में काम करने के लिए बाध्य किया गया। अच्छे कारीगरों के अंगूठे कटवा दिये गये, ताकि वे स्वयं अपना काम न कर सकें।
8. ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा ब्रिटिश संसद की नीति
भारतीय माल पर ऊँची दर से कर लगाये गये। सन् 1700 से 1854 तक इंग्लैण्ड में भारतीय चीजों का उपयोग करना गैर कानूनी था। इधर भारत में विदेशी माल के आयात को प्रोत्साहन दिया गया। यह नीति भारतीय उद्योगों के लिए घातक सिद्ध हुई तथा वे नष्ट होने लगे।
9. वाणिज्य अधिकारियों को प्रदत्त व्यापक अधिकार
वाणिज्य अधिकारियों व गाँवों और भारतीय जुलाहों के सम्बन्ध में कानून द्वारा व्यापक अधिकार दे दिये गये। ऐसे तरीके अपनाये गये जिनके द्वारा भारतीय कारीगर ऐसी वस्तुओं का निर्माण न कर सकें जो इंग्लैण्ड की वस्तुओं को प्रतियोगिता में मात दे सकें।
10. भारतीय कारीगरों का रूढ़िवादी दृष्टिकोण व दूरदर्शिता का अभाव
भारतीय स्वदेशी उद्योग के पतन का मुख्य कारण यह था कि कारीगरों ने समय व परिस्थितियों के अनुकूल अपने को नहीं ढाला। उन्होंने उत्पादन की तकनीकी में परिवर्तन नहीं किया और दूरदर्शिता के अभाव में वे रूढ़िवादी उत्पादन पद्धति में ही लीन रहे। उनमें औद्योगिक प्रशिक्षण व मशीनों के प्रयोग की प्रवृत्तियाँ न रहीं, जिससे स्वाभाविक रूप से भारतीय उद्योगों का पतन होना प्रारम्भ हुआ।
समीक्षा :
उपर्युक्त कारणों से कुटीर उद्योग का विनाश शुरू हुआ और अन्त में यह लगभग पूरी तरह समाप्त हो गया। आज ये प्राचीन काल के अवशेष, कौतूहल के विषय और अजायबघरों की वस्तु भर रह गए हैं, अब इनकी याद भर बाकी है। पुराने कारीगरों के वे वंशज जिन्हें रोजगार का कोई दूसरा रास्ता नहीं मिला, जो पुराना रोजगार अपनाए रहे और किसी तरह अपना अस्तित्व बनाए रहे, अभी भी छोटे-छोटे पूँजीपतियों द्वारा चलाए गए कारखानों में बड़ी बुरी हालातों में काम करते हैं।
भारतीय कुटीर उद्योगों के पतन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर विनाशकारी प्रभाव हुआ। इसने भारतीय अर्थव्यवस्था के सन्तुलन को बिगाड़ दिया, क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि तथा घरेलू निर्यात वस्तुओं के सामंजस्य पर ही आधारित थी। साथ ही कुटीर उद्योगों के पतन से कृषि पर बोझ बढ़ा, क्योंकि इन उद्योगों में लगे कारीगरों के सामने पेट भरने का केवल एक ही रास्ता बचा था, कृषि को अपनाना। कृषि पर बढ़ता हुआ यह दबाव ब्रिटिश शासन के दौरान भारत की घोर गरीबी का एक मुख्य कारण था।
भारतीय कुटीर उद्योगों की तबाही उन शहरों की तबाही के रूप में सामने आई जो अपनी विनिर्मित वस्तुओं के लिए प्रसिद्ध थे। ढाका, सूरत, मुर्शिदाबाद और कई अन्य घनी आबादी वाले समृद्ध औद्योगिक केन्द्र जन-शून्य हो गये। ब्रिटिश शासनकाल में कुटीर उद्योगों के विनाश और पतन का यही इतिहास है। एक जमाने में ये उद्योग भारत के लिए गौरव के विषय थे, किन्तु ये राजनीतिक, ऐतिहासिक और आर्थिक शक्तियों का दबाव नहीं सह सके और इनका दुःखद अन्त हो गया।