बोल्शेविक क्रान्ति (Bolshevik Revolution) :
सन् 1917 में हुए रूस की क्रांति को ही बोल्शेविक क्रांति के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि बोल्शेविक नामक राजनीतिक समूह ने इस क्रांति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और क्रांति की दशा एवं दिशा निर्धारित की थी।
बोल्शेविकों ने प्रावदा (Pravada) नामक समाचार-पत्र के माध्यम से अपने विचारों का प्रचार एवं प्रसार शुरू कर दिया था। सम्पूर्ण रूस में बोल्शेविकों का स्वर गूँज रहा था, “युद्ध समाप्त हो, किसानों को खेत मिलें तथा गरीबों को रोटी।” 3 अप्रैल को लेनिन पेट्रोगाड पहुँचा। मई, 1917 को ट्राटस्की अमेरिका से पैट्रोगाड पहुँचा। ट्राटस्की ने जो कि एक अन्य दल का नेता था, बोल्शेविक दल से सहयोग किया। जुलाई में करेन्स्की सरकार ने बोल्शेविकों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया। लेनिन भागकर फिनलैण्ड चला गया, उसने वहीं से बोल्शेविकों को पत्र लिखकर उनका मार्गदर्शन किया। उसने अपनी नीतियों एवं विचारों से उन्हें गुप्त पत्रों द्वारा अवगत कराया।
लेनिन ने 23 अक्टूबर को सशस्त्र क्रान्ति का दिन चुनने का आदेश दिया। सेना ने युद्ध करने से इन्कार कर दिया। मजदूरों ने हड़ताल कर दी। 6 नवम्बर को लाल ने रक्षकों (Red Guards) ने पैट्रोगाड के रेलवे स्टेशनों, टेलीफोन केन्द्रों, सरकारी भवनों में अधिकार कर लिया। ये रेड गार्ड बोल्शेविक दल के स्वयंसेवक थे। इनकी संख्या 25 हजार थी, परन्तु पैट्रोगाड की सेना का सहयोग प्राप्त होने से इनकी शक्ति अत्यधिक बढ़ गई थी। 7 नवम्बर को करेन्स्की रूस छोड़कर भाग गया। बिना रक्त बहाए रूस की राजधानी पर बोल्शेविक दल का अधिकार हो गया। ट्राटस्की ने सोवियत के पैट्रोगाड को जो अपनी रिपोर्ट भेजी थी उसमें कहा था, “लोग कहते थे कि जब बलवा होगा तो क्रान्ति रक्त की नदियों से डूब जायेगी, परन्तु हमने एक भी व्यक्ति की मृत्यु की खबर नहीं सुनी। इतिहास में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं है कि किसी क्रान्ति में इतने लोग सम्मिलित हों और वह रक्तहीन हो।”
8 नवम्बर, 1917 को नई सरकार ने अपना मन्त्रिमण्डल बनाया। इस सरकार का अध्यक्ष लेनिन बना। ट्राटस्की को विदेश मन्त्रालय दिया गया और संविधान सभा के चुनाव की घोषणा की गई जो कि 15 नवम्बर को हुए, परन्तु बोल्शेविक दल को बहुमत न मिल पाने पर लेनिन ने इस सभा को प्रतिक्रियावादी सभा कहा और इसे भंग कर दिया। इस प्रकार रूस में पूर्णतया सर्वहारा वर्ग का अधिनायकतन्त्र स्थापित कर दिया गया। डेरी और जारमेन के शब्दों में, “युद्ध ने अवसर दिया और भाग्य ने लेनिन जैसा नेता पैदा किया। इस नेता की आत्मशक्ति और बुद्धि ने अवसर को परख कर परिस्थिति पर विजय पा ली।”
बोल्शेविक क्रान्ति की सफलता के कारण :
बोल्शेविक क्रान्ति की सफलता के निम्नलिखित कारण थे-
(1) युद्ध का विरोध
1905 से 1917 तक के समय में जारशाही नीतियों में कोई परिवर्तन न देखकर जनता सशंकित हो गई थीं। अब उसका यह विचार बन चुका था कि जारशाही का अन्त करके ही रूसी सन्तुलन को ठीक किया जा सकता है। अतः जैसे-जैसे क्रान्तिकारी भावनाएँ देश में बढ़ती गईं, जारशाही निरंकुश होती चली गई अन्ततः रूस में अस्थायी सरकार की स्थापना हुई, किन्तु अस्थायी सरकार ने भी युद्ध जारी रखने की नीति अपनाई। कैटलबी ने लिखा है, “युद्ध और क्रान्ति दोनों को एक साथ जारी रखने के निष्फल प्रयास के पश्चात् करेन्स्की की नरम दल की सरकार नवम्बर, 1917 में लेनिन और ट्राटस्की के नेतृत्व में बोल्शेविकों द्वारा पलट दी गई। बोल्शेविक पार्टी का यद्यपि अल्पमत था, किन्तु उसकी स्थिति फ्रांस के जैकोबिनों के समान कार्य और निर्णय करने वालों की थी।”
(2) यूरोपीय राष्ट्रों का हस्तक्षेप नहीं
प्रथम विश्व युद्ध जारी होने के कारण यूरोपीय राज्य रूसी क्रान्ति में सशस्त्र हस्तक्षेप न कर सके।
(3) विरोधियों में फूट
विरोधियों की दोषपूर्ण नीति एवं फूट का लाभ बोल्शेविकों ने उठाया।
(4) समय की अनुकूलता
कठिन समय में भी बोल्शेविक गुपचुप अपना प्रचार अभियान चलाते रहे। वे लेनिन के निर्देशों का पालन करते रहे। बोल्शेविकों ने उचित समय में क्रान्ति करके सत्ता पर अधिकार कर सफलता प्राप्त की।
(5) जनता का समर्थन
डेविड थामसन के अनुसार, “लेनिन द्वारा निर्मित बोल्शेविकों का कार्यक्रम चार-सूत्रीय था- (1) कृषकों को भूमि, (2) भूखों को भोजन, (3) सोवियतों को शक्ति, (4) जर्मनी के साथ सन्धि।”
बोल्शेविक क्रान्ति का महत्व :
फ्रांस की 1789 ई. की राज्य क्रान्ति के समान ही रूस की 1917 की रूसी क्रान्ति ने रूस को ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित किया। क्रान्ति का महत्व तब स्वतः और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है जबकि हम देखते हैं कि क्रान्ति के सिद्धातों का अनुकरण हुए रूस आज संसार की प्रमुख महाशक्ति है। रूस की 1917 की क्रान्ति के महत्वपूर्ण परिणाम निम्नलिखित निकले-
(1) रूस की 1917 की क्रांन्ति ने 300 वर्षों से चले आ रहे निरंकुश एवं प्रतिक्रियावादी जार शासन की समाप्ति कर दी।
(2) रूस में सर्वहारा वर्ग की सरकार की स्थापना हुई। इसने रूस में एक नये प्रकार का समाजवादी ढाँचा तैयार किया।
(3) रूस में स्थापित हुई साम्यवादी सरकार ने पूँजीवाद का घोर विरोध किया। फलतः रूस में उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। जमींदारों व पूँजीपतियों को समाप्त कर दिया गया। कृषक वर्ग को उनकी जरूरत के अनुसार भूमि प्रदान की गई। इस प्रकार रूस ने जिस नई आर्थिक नीति का आह्वान किया, उसके सम्बन्ध में वेन्स के शब्दों में कहा जा सकता है, “रूस का वह आर्थिक जीवन एक राज्य समानता, सरकारी पूँजीवाद का एक विलक्षण चित्र था।
(4) रूसी क्रान्ति की महत्वपूर्ण उपलब्धि लेनिन का उदय भी कहा जा सकता है जिसने रूस की भावी नीति को पूर्णतया एक नई दिशा दे दी। आज भी रूस में लेनिन का बड़े आदर के साथ नाम लिया जाता है। अतः क्रान्ति के इसी क्रम में लेनिन की भूमिका का विवेचन करना अप्रासंगिक न होगा।
(5) रूस की क्रांति ने रूस में ही प्रभाव नहीं डाला, अपितु विश्व को भी प्रभावित किया। रूसी क्रान्ति का सबसे प्रथम परिणाम विश्वयुद्ध से रूस का हाथ खींच लेना था, जिसका सीधा सम्बन्ध 3 मार्च, 1918 की ब्रेस्ट विलोवेस्ट की सन्धि के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि इस सन्धि से रूस को अत्यधिक अपमान सहन करना पड़ा, किन्तु युद्ध से अलग होकर वह देश की आर्थिक व्यवस्था एवं पुनर्निमाण की ओर ध्यान दे सका। रूस ने जिस नवीन पद्धति से कार्य किया, जिसे हम आज ‘सामाजवादी सोवियत गणतंत्र संघ‘ के नाम से भी जानते हैं जो कि क्रान्ति की देन है, रूस को आज संसार की महाशक्ति के रूप में स्थान दिया है। रूस का विचार था कि यूरोप में सर्वहारा वर्ग की सरकार स्थापित की जायेगी ।
अतः 1919 में कम्युनिसट इंटरनेशनल स्थापित किया गया। इसी कारण विश्व दो गुटों में बँट गया। एक गुट में पूँजीवादी देश आ गये और दूसरे में साम्यवादी। दूसरे शब्दों में, विश्व पुनः दो गुटों में विभाजित हो गया।