“एक राजनैतिक सिद्धान्त के रूप में उदारवाद दो पृथक तत्वों का यौगिक है। इनमें से एक लोकतंत्र है और दूसरा व्यक्तिवाद।” – डब्ल्यू.एम. मेकगवर्न
राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में उदारवादी विचारधारा का अस्तित्व पिछली चार शताब्दियों से है। यह एक लचीली एवं गतिशील विचारधारा है जिसने समय की आवश्यकतानुसार स्वयं को संशोधित एवं परिवर्तित किया है। किन्तु अपने केन्द्रीय विचार को इसने सदैव ही बनाये रखा है कि व्यक्ति साध्य है तथा राज्य एवं अन्य संस्थायें साधन मात्र हैं।
उदारवाद की आलोचना :
उदारवार के विरूद्ध कही जाने वाली बातों को निम्नानुसार समझा जा सकता है –
१. राज्य एक आवश्यक बुराई नहीं है
उदारवादी राज्य को आवश्यक बुराई मानते हैं किन्तु यह धारणा भ्रामक है राज्य का निर्माण मानव जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ है। अतः उसका आदर्श मानव कल्याण में वृद्धि करना है। राज्य के बिना एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।
२. राज्य स्वतंत्रता को नष्ट नहीं करता
उदारवादियों की यह धारणा भी अनुचित है कि राज्य के कार्य क्षेत्र में किया गया विस्तार व्यक्ति की स्वतंत्रता को नष्ट करने वाला होगा। जबकि वास्तविकता यह है कि राज्य द्वारा बनाये गये कानूनों से व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा होती है उनका हनन नहीं होता।
३. खुली प्रतियोगिता दुर्बल वर्ग के लिए हानिप्रद
कुछ उदारवादी खुली प्रतियोगिता में विश्वास करते हैं तथा ‘बलशाली ही जीवित रहें’ (Survival of the Fittest) के सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। ये स्थिति समाज के निर्बल वर्गों के लिए हानिकारक होगी। साथ ही आर्थिक क्षेत्र में भी खुली प्रतियोगिता सामाजिक दृष्टि से लाभदायक नहीं है।
४. पूंजीवादी वर्ग का दर्शन
उदारवाद पूंजीवादी वर्ग का दर्शन है। ये पूँजीवादी व्यवस्था को बनाये रखना चाहता है। यह राज्य को आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार भी केवल पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए देता है।
५. सामाजिक परिवर्तन का गलत सिद्धान्त
उदारवाद की मान्यता है कि क्रमिक विकास द्वारा सामाजिक परिवर्तन लाना संभव है। जबकि वास्तविकता यह है कि वर्ग विभाजित समाज में परिवर्तन वर्ग संघर्ष तथा क्रान्ति द्वारा ही होता है, साथ ही उदारवाद आर्थिक सुधारों के द्वारा आर्थिक समानता स्थापित किया जाना संभव मानता है जबकि बिना निजी सम्पत्ति को समाप्त किये आर्थिक समानता संभव नहीं।