राज्य का उदारवादी दृष्टिकोण :
“एक राजनैतिक सिद्धान्त के रूप में उदारवाद दो पृथक तत्वों का यौगिक है। इनमें से एक लोकतंत्र है और दूसरा व्यक्तिवाद” – डब्ल्यू. एम. मेकगवर्न
राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में उदारवादी विचारधारा का अस्तित्व पिछली चार शताब्दियों से है। यह एक लचीली एवं गतिशील विचारधारा है जिसने समय की आवश्यकता के अनुसार स्वयं को संशोधित एवं परिवर्तित किया है। किन्तु अपने केन्द्रीय विचार को इसने सदैव ही बनाये रखा है कि व्यक्ति साध्य है तथा राज्य एवं अन्य संस्थायें साधन मात्र हैं।
उदारवाद के ऐतिहासिक विकास के आधार पर दो चरण देखे जा सकते हैं। शास्त्रीय (चिरसम्मत) उदारवाद तथा आधुनिक उदारवाद। उदारवाद की इन दोनों श्रेणियों तथा इनसे सम्बन्धित उदारवादी विचारों की व्याख्या निम्नानुसार की जा सकती है –
1. शास्त्रीय ( चिरसम्मत) उदारवाद
प्राचीन उदारवाद को नकारात्मक उदारवाद भी कहते हैं क्योंकि इसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए राज्य की नकारात्मक भूमिका पर बल दिया जाता है। इंग्लैण्ड में प्रारम्भिक स्तर पर उदारवाद का जो रूप सामने आया उसे शास्त्रीय उदारवाद कहा जाता है। यह वैयक्तिक अधिकारों की संवैधानिक सुरक्षा की मांग तक सीमित था। कालान्तर में आर्थिक और राजनीतिक संगठन तथा राजनीतिक कार्यक्रम से संबंधित प्रश्न भी उसकी परिधि में आ गये। अपनी इस अवस्था में उदारवाद धार्मिक स्वतंत्रता, सहिष्णुता, संविधानवाद तथा राजनीतिक अधिकारों की मांग के रूप में सामने आया।
1688 की क्रान्ति इतिहास की सबसे पहली उदारवादी क्रान्ति मानी जाती है। उसने उस शताब्दी की उदारवादी उपलब्धियों को समेकित किया और सुनिश्चित सांविधानिक रूप भी दिया। इस उदारवाद के विकास में जर्मी बेंथम (1748 से 1832) एडमस्मिथ (1723 से 1790) तथा हर्बर्ट स्पेन्सर (1820 से 1903) का विशेष योगदान रहा है। शास्त्रीय उदारवाद, जिसे व्यक्तिवादी उदारवाद या नकारात्मक उदारवाद भी कहा जाता है, की राज्य के संबंध में निम्नांकित धारणाएं है-
१. राज्य का यांत्रिक रूप
उदारवादियों के अनुसार राज्य कृत्रिम व मनुष्य कृत हैं इनकी रचना व्यक्तियों ने अपनी इच्छानुसार अपनी सुविधा के लिए की है, अतः वे आवश्यकतानुसार इसमें संशोधन व परिवर्तन भी कर सकते हैं। राज्य का व्यक्ति से पृथक कोई अस्तित्व नहीं है व्यक्ति का जीवन ही राज्य का जीवन होता है तथा व्यक्ति के कल्याण में ही राज्य का कल्याण निहित होता है।
२. व्यक्ति साध्य, समाज तथा राज्य साधन
उदारवादी व्यक्ति को साध्य तथा समाज और राज्य को साधन मानते हैं। उनके अनसार व्यक्ति का नैतिक और आध्यात्मिक कल्याण तथा उसका विकास सबसे महत्वपूर्ण बात है। अतः किसी भी समुदाय, समाज अथवा राज्य की कोई भी व्यवस्था, परम्परा अथवा कानून ऐसा नहीं हो सकता जिनके नाम पर व्यक्ति का बलिदान किया जा सके क्योंकि ये सब व्यक्ति के लिए होते हैं व्यक्ति इनके लिए नहीं। अतः इन सबकी सार्थकता उसी रूप में हैं जहाँ तक ये व्यक्ति के हितों की पूर्ति में सहायक हों और यदि वे अपना यह उद्देश्य पूरा नहीं करते तो उन्हें नष्ट भी किया जा सकता है अथवा बदला भी जा सकता है।
३. व्यक्ति के अधिकारों के प्राकृतिक रूप की मान्यता
उदारवाद के अनुसार व्यक्ति के अधिकार प्राकृतिक हैं जिनका उल्लंघन करने का अधिकार समाज व राज्य को नहीं है। समाज व राज्य व्यक्ति के अधिकारों के सृष्टा नहीं है, बल्कि उनका निर्माण व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा के लिए किया गया है। व्यक्ति के ये प्राकृतिक अधिकार ही उसे स्वतंत्रता की गारन्टी देते हैं। लॉक के अनुसार, “जीवन, सम्पत्ति व स्वतंत्रता व्यक्ति के मुख्य प्राकृतिक अधिकार हैं जो कि राज्य या समाज द्वारा नहीं दिये गये। अतः राज्य या समाज ना तो इसमें कोई कमी कर सकते हैं और ना ही उन्हें समाप्त कर सकते हैं।”
४. स्वतंत्रता के आदर्श की मान्यता
उदारवाद व्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन निरपेक्ष रूप से करता है। उसकी मान्यता है कि व्यक्ति प्रकृति से ही स्वतंत्र उत्पन्न होता है। अतः स्वतंत्रता उसका जन्म सिद्ध अधिकार है। अतः उसके उपर किसी ऐसी सत्ता का नियंत्रण नहीं होना चाहिए जो मनमाने ढंग से उसकी स्वतंत्रता पर कोई अंकुश लगा सके। उदारवाद जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता का समर्थन करता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता के महान समर्थक हॉबहाउस ने व्यक्ति की नौ प्रकार की स्वतंत्रताओं की चर्चा की है। जैसे (i) नागरिक स्वतंत्रता, (ii) वैयक्तिक (iii) आर्थिक (iv) वित्तीय (v) पारिवारिक (vi) सामाजिक (vii) राजनैतिक (viii) जातीय व राष्ट्रीय तथा (ix) अन्तर्राष्ट्रीय स्वतंत्रता।
५. समानता के आदर्श की मान्यता
व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ उदारवादी व्यक्ति की समानता का भी समर्थन करते हैं। इनके अनुसार व्यक्ति समान प्राकृतिक अधिकार लेकर उत्पन्न होते हैं। अतः इन्हें समान माना जाना चाहिए। हालांकि प्राकृतिक क्षमताओं की दृष्टि से मनुष्यों में भिन्नता होती है, किन्तु राज्य के कानून व शासन की दृष्टि में सभी व्यक्तियों को समान माना जाना चाहिए तथा जाति, धर्म, लिंग अथवा भाषा आदि के आधार पर राज्य की ओर से उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।
६. राज्य के न्यूनतम कार्य
इस दौर में उदारवाद व्यक्ति की स्वतंत्रता और राज्य के कार्य क्षेत्र को एक दूसरे का विरोधी मानता था। अतः अधिकतम स्वतंत्रता के लिए यह आवश्यक माना गया कि राज्य का कार्यक्षेत्र न्यूनतम हो। तदनुसार यह प्रस्तावित किया गया कि राज्य बाह्य आक्रमण से रक्षा, आन्तरिक शांति-व्यवस्था तथा इन दोनों कार्यों के निष्पादन के लिए कर प्रणाली का संचालन करे। इसे अहस्तक्षेप का सिद्धांत कहा जाता है जो उन्मुक्त बाजार और स्वतंत्र व्यापार पर आधारित मुक्त बाजार अर्थ व्यवस्था का समर्थन करता है।
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि शास्त्रीय उदारवाद राज्य को एक कृत्रिम संस्था मानता है, जिसे अपनी सर्वोच्च सत्ता के माध्यम से समाज में शांति एवं व्यवस्था की स्थापना करता है। इससे व्यक्ति की स्वतंत्रता कुछ मर्यादित होती है, लेकिन बदले में व्यक्ति हिंसक संघर्ष और अराजकता से बच जाता है। इस अर्थ में राज्य एक आवश्यक बुराई है।
2. आधुनिक उदारवाद
उन्नीसवी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में शास्त्रीय उदारवाद और उससे जुड़ी चिन्तन परम्परा में निरन्तर परिवर्तन होता गया। इसमें राज्य की नकारात्मक भूमिका के स्थान पर उसके सकारात्मक पक्ष पर बल दिया गया । अतः इसे ‘सकारात्मक उदारवाद भी कहते हैं । इस परिवर्तन में उसका मूलभूत आदर्श “व्यक्ति की स्वतंत्रता” तो वही रहा किन्तु इसकी प्राप्ति के साधन बदल गये। शास्त्रीय उदारवाद की सफलता के परिणामस्वरूप व्यक्ति को वांछित राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त हो गई। अतः वह राज्य के अहस्तक्षेपवादी स्वरूप की माँग तक सीमित न रहा बल्कि उसने ऐसे राजनीतिक और आर्थिक संगठन की माँग की जो व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता दिला सके।
प्रारम्भ में उदारवाद ने मध्यम वर्ग के लिए जिन अधिकारों की माँग की वे उन्हें मिल चुके थे। किन्तु किसान और मजदूर वर्ग अभी भी इससे वंचित थे। इनके लिए आर्थिक स्वतंत्रता तभी संभव थी जब राज्य इस संबंध में कोई ठोस कार्यवाही करता । आधुनिक उदारवाद में व्यक्ति के कल्याण को विशेषत: निर्बल और निर्धन व्यक्ति के कल्याण को उसकी स्वतंत्रता की शर्त माना जाता था। शास्त्रीय उदारवाद के विपरीत आधुनिक उदारवाद यह विश्वास करता है कि व्यक्तियों के परस्पर संबंधो को नियमित और संतुलित करने के लिए राज्य को सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। आगे चलकर यही आधुनिक उदारवाद ‘कल्याणकारी राज्य’ (Welfare State) की अवधारणा के रूप में विकसित हुआ।
आधुनिक उदारवादियों में जॉन स्टुअर्ट मिल (1806-1873), टी. एच. ग्रीन (1836 – 1882), एल. टी. हाबहाउस (1864-1929) एच.जे. लास्की (1893-1950) तथा आर.एम. मैकाईवर (1882-1970) आदि प्रमुख हैं।
आधुनिक उदारवाद, जिसे सकारात्मक उदारवाद भी कहा जाता है, ने राज्य को एक ऐसी वर्गोपरि संस्था के रूप में प्रस्तुत किया, जो विरोधी वर्ग हितों के बीच आंशिक रूप से सामंजस्य स्थापित करती है। अब व्यक्ति की स्वतंत्रता और राज्य सत्ता एक दूसरे के विरोधी नहीं रहते है। बल्कि राज्य अपनी सकारात्मक गतिविधियों द्वारा ऐसी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां निर्मित करता है, जिसमें सभी व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता और दूसरे अधिकारों का उपयोग कर सके।
टी. एच. ग्रीन ने इसे ही ‘बाधाओं को बाधित करना’ कहा है। तदनुसार राज्य केवल शक्ति संरचना नहीं रह जाता, जिसे सार्वजनिक व्यवस्था की स्थापना मात्र करनी है, बल्कि वह सार्वजनिक कल्याण के जरिये स्वतंत्रता को वास्तविक बनाने वाली संस्था बन जाता है। इस क्रम में वह केवल नकारात्मक कार्य ही नहीं, बल्कि निशुल्क एवं अनिवार्य सार्वजनिक शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, श्रम कल्याण आदि सकारात्मक कार्य भी करता है।