# सामाजिक अनुसंधान की क्रियाविधि (Samajik Anusandhan ki KriyaVidhi)

सामाजिक अनुसंधान की क्रियाविधि :

सामाजिक अनुसंधान की क्रियाविधि को हम शोध प्रारूप या अनुसंधान प्रारूप के रूप में विश्लेषित करते है जिसमें शोध के सभी महत्वपूर्ण क्रियाविधि का वर्णन होता है। शोध प्रारूप तथ्य संकलन तथा विश्लेषण की एक व्यवस्था है जो शोध के उद्देश्यों को कम पैसे की लागत में पूरा कर लेता है। एफ. एन. कर्लिंजर ने अपने पुस्तक “Foundation of Behavioural Research” में शोध प्रारूप को परिभाषित करते हुए कहा है कि यह शोध की योजना, संरचना तथा व्यूह रचना है जो शोध के प्रश्नों का उत्तर ढूंढता है तथा चरों को नियंत्रित करता है।

शोध की योजना से तात्पर्य शोध प्रक्रिया में किए गए सभी कार्य शोधक अर्थात् उपकल्पना के निर्माण से तथ्यों के सामान्यीकरण तक की प्रत्येक क्रियाविधि। संरचना से अभिप्राय है शोध परियोजना का मॉडल बनाना तथा व्यूह रचना से अभिप्राय है शोध की तकनीकी तथा पद्धतियों का चुनाव करना जो तथ्यों के संकलन में सहायक हो। चरों को नियंत्रित करने के लिए सामान्यतः निम्नविधि का उपयोग किया जाता है।

१. चरों को अत्यधिक व्यवस्थित करके

२. बाह्य चरों के प्रभाव को कम करके अथवा समाप्त करके

३. चरों के त्रुटि को उत्पन्न करके।

# एक अच्छे शोध प्रारूप के लिए यह आवश्यक है कि-

१. समस्या की प्रकृति तथा क्षेत्र स्पष्टत: वर्णित हो

२. यदि किसी उपकल्पना का परीक्षण करना हो तो स्पष्ट अंकित हो

३. आवश्यक चरों की खोज की जा सके

४. यह इस प्रकार संरचित हो कि आंतरिक तथा बाह्य वैधता की शर्तों को पूरा कर सके

५. तथ्यों के संकलन की विधि का उल्लेख हो

६. समग्र का उल्लेख हो

७. प्रतिचयन की पद्धति तथा उसके प्रकार का वर्णन हो

८. समय तथा खर्च का अनुमान हो

९. सामान्यीकरण की विधि का उल्लेख हो।

# शोध प्रारूप मुख्यतः चार प्रकार का होता है-

  1. अन्वेषणात्मक अथवा गवेषणात्मक शोध प्रारूप
  2. वर्णनात्मक शोध प्रारूप
  3. प्रयोगात्मक शोध प्रारूप
  4. कार्यान्तर तथ्य शोध प्रारूप

1. अन्वेषणात्मक शोध प्रारूप :

इस शोध प्रारूप का उपयोग किसी भी समस्या, स्थिति, अथवा समुदाय जिसके बारे में अधिक जानकारी नहीं हो उससे घनिष्ठता स्थापित करने तथा अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करने हेतु किया जाता है। यह विचारों तथा अंतर्दृष्टि के निर्माण में सहायक होता है जो समस्या का निर्माण, उपकल्पना की रचना, तथा अर्थपूर्ण सारगर्भित शोध की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह अवधारणाओं के स्पष्टीकरण में, महत्वपूर्ण चरों को ढूंढ़ने में तथा भविष्य के शोध के लिए पूर्वपीठिका का कार्य करने में सहायक होता है। यह इतना लचीला होता है कि इसमें अनेकों संभावनाएं छुपी होती है। यह मुख्यतः असंरचित, अनियंत्रित होता है। इस प्रकार के शोध प्रारूप में कल्पना का निर्माण तथ्य संकलन के पश्चात होता है। गवेषणात्मक शोध प्रारूप में तथ्यों के संकलन में निम्न वस्तुओं की सहायता ली जाती है।

१. साहित्यों का सर्वेक्षण

इसमें संबंधित सामाजिक विज्ञान के साहित्यों का सर्वेक्षण तथा अन्य महत्वपूर्ण सर्वेक्षण किये जाते हैं जैसे- दुर्खीम ने अपने श्रमविभाजन के अध्ययन में “हिब्रू तोरह” तथा “प्राचीन रोम की बारह सारिणी” का अध्ययन किया। देवेंद्र ठाकूर ने अपने ‘पटना में राजनैतिक विकास में नौकरशाही की भूमिका’ के अध्ययन में राजनैतिक विकास तथा उससे संबंधित अनेक सिद्धांतों का सर्वेक्षण किया।

२. अनुभवों का सर्वेक्षण

समस्याओं की अंतर्दृष्टि तथा चरों के मध्य संबंध स्थापित करने के लिए अनुभवी लोगों से मिलना

३. अंतर्दृष्टि निर्माण करने वाले प्रेरकों का विश्लेषण

फ्रायड के सैद्धांतिक अंतर्दृष्टि उनके मरीजों के अध्ययन से प्रेरित होते थे। इसी प्रकार आर. डी. लैंग, डेविड कूपर आदि के अध्ययन भी उनके मरीजों के विश्लेषण पर आधारित थे।

स्टॉफर के अमेरिकन सैनिकों का अध्ययन, रेडक्लिफ ब्राउन के अंडमान द्वीप का अध्ययन, जहौदा या स्लीट्ज के विभिन्न धार्मिक तथा सामाजिक समूहों के मध्य संबंधों का अध्ययन, मैलिनोस्की के ब्रियाण्ड का अध्ययन आदि इसी प्रकार के अध्ययन थे।

2. वर्णनात्मक शोध प्रारूप :

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि शोध प्रारूप का उपयोग किसी व्यक्ति, समुदाय, समाज घटना आदि के वर्णन के लिए होता है। इस प्रारूप के माध्यम से अधिक से अधिक विश्वसनीयता प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। संरचना के आधार पर वर्णनात्मक शोध प्रारूप दो प्रकार के हो सकते हैं।

१. गुणात्मक

संस्कृति, सामाजिक सांस्कृतिक तत्व, परिवर्तन की प्रक्रिया, प्रथा, परंपरा, सामाजिक संगठन की संरचना इत्यादि से संबंधित अध्ययन गुणात्मक श्रेणी के होते हैं। सामान्यतः इसकी प्रकृति पूर्णता की होती है। मारग्रेट मीड के विभिन्न संस्कृतियों में बच्चे पालने का अध्ययन, लिड के मिडिल टाउन का अध्ययन, विलियम ह्वाइटे के स्ट्रीट कार्नर सोसाइटी का अध्ययन आदि गुणात्मक श्रेणी के उत्कृष्ट उदाहरण है।

२. परिमाणात्मक

सामान्यतः नियंत्रित तथा संरचित पद्धति जैसे अनुसूची, प्रश्नावली, नियंत्रित साक्षात्कार, आदि के माध्यम से परिमाणात्मक शोध पूरे किए जाते हैं। इसमें

अ. व्यक्ति, समूह तथा समुदाय की विशेषता का वर्णन- आयु, लिंग, जाति, आय, व्यवसाय, राष्ट्रीयता, धर्म आदि के वितरण से संबंधित अध्ययन।

ब. सुविधाओं का वर्णन- जीवन शैली, बिजली की खपत, मनोरंजन की सुविधा, स्कूल, कमरा आदि से संबंधित अध्ययन

स. आदतों का वर्णन- फिल्म देखने की आदत, पढ़ने की आदत, नशा करने की आदत इत्यादि

द. लोगों की प्रवृतियों का अध्ययन।

समाज में कुछ इस प्रकार के विशिष्ट सामाजिक समस्याएं होती है जिनका अध्ययन सिर्फ वर्णनात्मक प्रारूप से ही संभव है। अधिकतर विकास की योजना तथा कल्याणकारी कार्यक्रमों का संबंध वृहत् जनसंख्या तथा क्षेत्र से होता जिसके सफलता पूर्वक क्रियान्वयन हेतु जनमानस की प्रतिक्रिया जानना आवश्यक होता है जो इस शोध प्रारूप से सफलता पूर्वक किए जाते हैं। यह नियंत्रण तथा सटिक पूर्वानुमान लगाने में सहायक होता है। यह प्रयोगात्मक स्वरूप के अध्ययन की पृष्ठभूमि प्रदान करता है। व्यावहारिक क्रियान्वयन में भी इस प्रारूप का उपयोग अत्यंत लाभदायक होता है।

3. प्रयोगात्मक शोध प्रारूप :

प्रयोग से तात्पर्य शोध के उन अंशों से है जिसमें चरों को समायोजित किया जाता है तथा उसका प्रभाव दूसरे चरों पर देखा जाता है। अर्थात प्रयोग ज्ञान प्राप्त करने का वह साधन है जिसमें नियंत्रित स्थिति में अवलोकन तथा अध्ययन किया जाता है। यहां कारण तथा परिणाम का विश्लेषण आश्रित चरों के आधार पर किया जाता है। फेस्टिंजर के अनुसार प्रायोगिक विधि का मूल तत्व यह है कि नियंत्रित दशाओं में स्वतंत्र चर में परिवर्तन करके उनका प्रभाव आश्रित चरों पर निरीक्षण किया जाय सभी आरंभिक समाजशास्त्रियों ने जैसे स्पेंसर, दुर्खीम आदि ने भी वैज्ञानिक अध्ययन के लिए विभिन्न परिवर्तनशील चरों के मध्य कारणात्मक संबंध स्थापित करने के महत्व को स्वीकार किया। यह वैज्ञानिक अध्ययन की प्राथमिक शर्त है। इस प्रारूप का उद्देश्य अत्यधिक संरचनात्मक प्रकृति के कारणात्मक उपकल्पना का परीक्षण करना है। जिससे प्राकृतिक विज्ञानों के समान किसी घटना की पुनरावृति की जा सके। परीक्षणात्मक या प्रयोगात्मक शोध प्रारूप को निम्न चरणों में विभाजित किया जाता है।

  • नियंत्रण तथा परीक्षणात्मक समूह का निर्माण
  • पूर्व परीक्षण
  • परीक्षणात्मक समूह का परीक्षणात्मक चरों पर प्रकाशीकरण (चरों का आरोपन)
  • पश्चात परीक्षण

परीक्षण के संख्या के आधार पर इसे दो भागों में बांटा जा सकता है।

१. केवल पश्चात परीक्षण

एक परीक्षणात्मक समूह तथा एक नियंत्रित समूह होता है। दोनों ही समूह को आकस्मिकरण या मिलान की प्रक्रिया द्वारा समान बना लिया जाता है इसके पश्चात परीक्षणात्मक समूह में परीक्षणात्मक चर को आरोपित किया जाता है। कुछ निश्चित अंतराल के पश्चात इसे मापा जाता है तथा उसे नियंत्रित समूह (जिस पर परीक्षणात्मक चर आरोपित नहीं किए गए) से तुलना की जाती है। यदि परीक्षणात्मक समूह में कोई परिवर्तन पाया जाता है तो इसे परीक्षणात्मक चर का प्रभाव कहेंगे।

२. पूर्व पश्चात परीक्षण

जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि इस शोध प्रारूप में चर आरोपित करने के पहले तथा चर आरोपित करने के बाद में दो बार परीक्षण किया जाता है। इसमें मुख्य चरण निम्न है-

A. परीक्षणात्मक समूह तथा नियंत्रण समूह का निर्माण किया जाता है

B. उसके पश्चात यह परीक्षण किया जाता है कि दोनों समूह समान है या नहीं

C. इसके बाद चर आरोपित किया जाता है

D. कुछ समय पश्चात चर के प्रभाव का मूल्यांकन किया जाता है। जिसके लिए पुनः परीक्षण किया जाता है।

प्रायः पूर्व पश्चात परीक्षण में एक ही समूह का निर्माण किया जाता है उसे परीक्षणात्मक चर के प्रयोग के पहले परीक्षण किया जाता है तथा उसके बाद परीक्षणात्मक चर का प्रयोग किया जाता है तथा फिर से उसका परीक्षण किया जाता है। पूर्व तथा पश्चात परीक्षण में तुलना की जाती है तथा पाया गया अंतर ही परीक्षणात्मक चर का प्रभाव होता है। वार्कर, डेंबो तथा लेविन ने 1941 में सिर्फ एक परीक्षणात्मक समूह का प्रयोग करके बच्चों के खेल में उसके तनाव का विश्लेषण किया।

राबर्ट बेल्स तथा एडवर्ड शिल्स का छोटे समूहों पर अंतःक्रिया की प्रक्रिया का अध्ययन, हाथर्न एलेक्ट्रिक प्लांट का अध्ययन, हार्टमैन का समाजवाद के संबंध में तार्किकता एवं भावात्मक अपील का अध्ययन, एस. सी. डाड के सिरिया में जीबरीमाली ग्राम का अध्ययन आदि प्रयोगात्मक शोध प्रारूप के उत्कृष्ट उदाहरण है।

4. कार्यान्तर तथ्य शोध प्रारूप :

इसका प्रयोग सर्वप्रथम चेंपिन ने अपनी पुस्तक ‘एक्सपेरिमेंटल डिजाइन इन सोशियोलॉजीकल रिसर्च’ में किया। इसका तात्पर्य है परीक्षण जो पहले हो चुका है। इस शोध में स्वतंत्र चर का अध्ययन किया जाता है जो पहले ही घटित हो चुका है। इसमें अनुसंधान कर्ता आश्रित चरों की स्थिति का अवलोकन करता है तथा स्वतंत्र चर के प्रभाव का आश्रित चर पर विश्लेषण करता है। जहां अतीत से संबंधित तथ्यों या ऐसी घटनाओं का जिनकी पुनरावृति शोध कर्ता नहीं कर सकता है अथवा जिन चरों पर शोधकर्ता का नियंत्रण नहीं होता है कार्यान्तर तथ्य शोध प्रारूप का उपयोग होता है। जैसे- सामाजिक आंदोलन तथा उसके कारण गंदी बस्ती तथा बाल अपराध का संबंध, धुम्रपान तथा कैंसर इत्यादि से संबंधित घटनाओं का अध्ययन कार्यान्तर शोध प्रारूप से किया जाता है।

शोध प्रक्रिया की संरचना करना

शोध समस्या को परिभाषित करना

शोध विषय पर प्रकाशित सामग्री की समीक्षा करना

अध्ययन के व्यापक दायरे और इकाई को तय करना

प्राक्कल्पना का सूत्रीकरण और परिवर्तियों को बताना

शोध विधियों व तकनीकों का चयन

शोध का मानकीकरण

मार्गदर्शी अध्ययन सांख्यिकी व अन्य विधियों का प्रयोग

शोध सामग्री इकटठा करना

सामग्री का विश्लेषण करना

व्याख्या करना और रिपोर्ट लिखना

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