प्रायः प्राकृतिक वैज्ञानिकों की यह मान्यता होती है कि ‘वैज्ञानिक पद्धति’ सामाजिक घटनाओं या मानव-समाज के अध्ययन के लिए प्रयुक्त नहीं हो सकती है। उनकी इस धारणा का सीधा अर्थ है कि समाजशास्त्र, जो कि मानव समाज और उसमें घटित होने वाली घटनाओं का अध्ययन करता है, अपनी विषय-सामग्री के अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग नहीं कर सकता, क्योंकि सामाजिक घटनाओं की अनोखी प्रकृति इस दिशा में एक बहुत बड़ी रुकावट है। सामाजिक घटनाओं में पायी जाने वाली जटिलता, परिवर्तनशीलता, व्यक्तिनिष्ठता आदि ऐसी बाधाएँ हैं, जिनको पार करना वैज्ञानिक पद्धति के लिए असम्भव है। इस प्रकार के कथन आंशिक रूप से सत्य हो सकते हैं, लेकिन पूर्णतः नहीं।
अब हम सामाजिक घटनाओं की प्रकृति की विशेषताओं के साथ-साथ यह भी देखेंगे कि उसमें वैज्ञानिक पद्धतियों का उपयोग हो सकता है या नहीं या फिर कठिनाइयाँ क्या हैं ?
सामाजिक घटनाओं की प्रकृति और वैज्ञानिक पद्धतियों का उपयोग :
विद्वानों का ऐसा मानना है कि सामाजिक घटनाओं का विवेचन दार्शनिक आधार पर हो सकता है, वैज्ञानिक आधार पर नहीं। कारण स्पष्ट है कि सामाजिक घटनाओं की प्रकृति ही ऐसी है इसलिए आवश्यक हो जाता है कि हम इसकी प्रकृति को समझें-
1. सामाजिक घटनाओं की जटिलता
प्रथम कारण, जिसके आधार पर यह कहा जाता है कि सामाजिक घटनाओं का वैज्ञानिक विवेचन नहीं किया जा सकता, वह है इसकी जटिल प्रकृति। सामाजिक प्रघटनाएँ इतनी अधिक तथा विविध कारणों से प्रभावित होती है कि किसी एक कारण के प्रभाव का पता लगाना अत्यन्त मुश्किल होता है। दूसरे शब्दों में, यदि हम यह जानना चाहें कि किस कारक का किस सम्बन्ध में क्या और कैसे प्रभाव पड़ता है, तो यह हमारे लिए बहुत दुरूह हो जाता है। इस प्रकार की जटिलता के कारण सामाजिक अनुसन्धानकर्ता को वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करने में विभिन्न प्रकार की कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं। वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि उपर्युक्त कारण (जटिलता) के कारण इसमें वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग नहीं हो सकता।
आपत्ति निराधार :
यह सत्य है कि सामाजिक घटना की प्रकृति अत्यन्त जटिल है, लेकिन मात्र जटिलता के कारण ही इसमें वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग नहीं हो सकता, यह कहना गलत है। इस जटिलता में भी सत्य की खोज की जा सकती है जैसा कि लुण्डबर्ग ने लिखा है कि- “किसी भी परिस्थिति या घटना का व्यवहार जटिल है जब तक कि हम उसे समझते नहीं है। जटिलता सदैव किसी दिये हुए व्यवहार की हमारी समझ और दक्षता के लिए सापेक्षिक है। जटिलता निरपेक्ष अथवा वैषयिक रूप में परिभाषित करने योग्य नहीं होती। दूसरे शब्दों में, मानव समाज की जटिलता अधिकतर हमारी उसकी अज्ञानता का कार्य है।”
इस प्रकार लुण्डबर्ग के कथनानुसार कहा जा सकता है किसी वस्तु या घटना के बारे में जटिलता तभी तक है, जब तक कि हमें उसके बारे में समुचित ज्ञान नहीं है। यह सही है कि जब तक किसी वस्तु के बारे में समुचित ज्ञान नहीं है, तब तक वह वस्तु हमारी समझ से परे है, लेकिन जैसे-जैसे हमें उस वस्तु के विषय में जानकारी होती जाती है, वैसे-वैसे वह कम जटिल होती जाती है। इस प्रकार जटिलता सापेक्षिक होती है। इस प्रकार यह आपत्ति कि सामाजिक घटना जटिलता लिए होती है, निराधार है।
2. सामाजिक घटनाओं की व्यव अमूर्तता
लुण्डबर्ग ने लिखा है कि “भौतिक तथ्यों को हम अपनी इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं, जबकि सामाजिक प्रघटनाओं को उन्हें प्रकट करने वाले शब्दों के प्रतीक से ही, जैसे-परम्परा, रीति-रिवाज, मूल्य तथा प्रथाएँ आदि; इन सामाजिक प्रघटनाओं को हम देख नहीं सकते, क्योंकि ये अमूर्त होती है। दूसरा ये व्यक्ति प्रधान हो जाती है कि प्रत्येक व्यक्ति उनका अलग-अलग अर्थ लगाता है। अधिकांशतया विभिन्न सामाजिक घटनाओं का दर्शन लोग अपने-अपने दृष्टिकोण से करते हैं और यही कारण है कि उनमें एकरूपता का पर्याप्त अभाव पाया जाता है। इस कारण से भी सामाजिक प्रघटना वैज्ञानिक पद्धति के अनुपयुक्त होती है, क्योंकि वैज्ञानिक पद्धति की आवश्यक शर्त है, वैषयिकता।”
आपत्ति निराधार :
उपर्युक्त आपत्ति आंशिक रूप से सत्य है, लेकिन सामाजिक घटना का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है तथा सभी अन्तरंग वस्तुओं को वैषयिक रूप से मापना सम्भव बनाया जा रहा है। अर्थात् सामाजिक घटना को मापने एवं उनका भौतिक घटनाओं की ही तरह अध्ययन करने का प्रयास हमारे समाज वैज्ञानिक कर रहे हैं। प्रथा, परम्परा, मूल्य, धारणा आदि का प्रमाणीकरण भी किया जा रहा है, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि सभी लोग इन सामाजिक प्रघटनाओं का समान अर्थों में ही प्रयोग करने लगे हैं।
3. सामाजिक घटनाओं की गुणात्मकता
इस बात का उल्लेख प्रायः किया जाता रहा है कि भौतिक घटनाएँ गणनात्मक व सामाजिक प्रघटनाएँ गुणात्मक होती है। घटनाओं की युगात्मक प्रकृति इसमें वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा है। प्रेमी-प्रेमिका के सम्बन्ध, पति-पत्नी के सम्बन्ध आदि को मापा नहीं जा सकता। इस प्रकार किसी भी सामाजिक प्रघटना की माप मात्रा के आधार पर नहीं की जा सकती, जबकि भौतिक विज्ञानों में यह सब सम्भव होता है। माप वैज्ञानिक पद्धति की अनिवार्य विशेषता है। माप के माध्यम से ही तथ्यों को वास्तविक संख्या और परिणामों में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन सामाजिक घटनाओं में ऐसा कदापि सम्भव नहीं।
आपत्ति निराधार :
घटनाओं का विभाजन गुणात्मक और गणनात्मक में करना बिल्कुल गलत है, क्योंकि गुणात्मक स्थिति निरपेक्ष नहीं होती है। जैसे-जैसे हम अपने ज्ञान में वृद्धि करते जाते हैं, वैसे-वैसे गुणात्मक वस्तु को मापने योग्य व गणना योग्य बना लेते हैं। प्रारम्भ में किसी भी विज्ञान की प्रकृति गुणात्मक ही होती है, लेकिन जैसे-जैसे हमारे ज्ञान में वृद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे वह शुद्ध व यथार्य होता जाता है। शनैः-शनै वह घटनाओं को गणनात्मक रूप से मापने में भी समर्थ होता जाता है।
4. सजातीयता का अभाव
सामाजिक घटनाओं के बारे में यह भी कहा जाता है कि कोई भी दो सामाजिक घटनाएँ एक जैसी नहीं होती। इस एकरूपता के अभाव के कारण भी वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग सम्भव नहीं है। लेकिन समाज वैज्ञानिक स्पष्ट रूप से यह घोषणा करते हैं कि समाज में समानताएँ व भिन्नताएँ दोनों ही निहित होती हैं। समाज में सामाजिक व्यवस्था बनी रहे, इसके लिए समानता का होना आवश्यक है, लेकिन यदि समाज में समानता ही बनी रही तो लोगों का सामाजिक जीवन अत्यन्त संकुचित हो जायेगा। हम ऐसे किसी भी समाज की कल्पना नहीं कर सकते, जिसमें समानता ही पायी जाती हो और न ही किसी ऐसे समाज की कल्पना कर सकते हैं जहाँ सिर्फ भिन्नता ही हो। अतः सामाजिक घटनाओं की सजातीयता या विजातीयता के चक्कर में न पड़कर समाज वैज्ञानिकों को ऐसी प्रविधियों को खोजना चाहिए जो कि सामाजिक जीवन में अन्तर्निहित समानता और असमानता दोनों का ही अध्ययन कर सके।
आपत्ति निराधार :
सजातीयता की कमी के कारण सामाजिक घटनाओं को वैज्ञानिक पद्धतियों के अनुपयुक्त घोषित कर देना सर्वथा गलत है। लुण्डबर्ग ने लिखा है कि, “कोई दो मरीज एक से नहीं होते, फिर चिकित्साशास्त्र को विज्ञान मानने से कोई इन्कार नहीं कर सकता। कारण-रोग के उपचार की विधि सभी में एक है।”
5. सार्वभौमिकता का अभाव
जहाँ एक और भौतिक घटनाओं में सार्वभौमिकता को एक उल्लेखनीय विशेषता माना जाता है वहीं सामाजिक प्रघटनाओं में यह सबसे बड़ी कमी है। इस आधार पर इसमें वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग नहीं किया जा सकता। उदाहरणार्थ- आग सदैव ताप देती है, पानी 100 डिग्री सण्टीग्रेड पर अवश्य ही खौलता है। ठीक इसके विपरीत सामाजिक प्रघटनाओं में ऐसी सार्वभौमिक कमी नहीं दिखाई देती है। किसी के थप्पड़ मारने पर व्यक्ति बदले में उसे थप्पड़ मारेगा ही, यह आवश्यक नहीं है। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो चुपचाप सहन कर लेंगे तथा कुछ ऐसे भी हैं जो बदले में उससे ज्यादा प्रतिघात करेंगे। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य दूसरे से अलग है। संस्कृति इन व्यवहारों और सम्बन्धों को और अधिक जटिल बना देती है। इस प्रकार सामाजिक घटनाओं में सार्वभौमिकता के गुण का अभाव दृष्टिगोचर होता है, जो वैज्ञानिक अध्ययन के दृष्टिकोण से एक कमी है।
आपत्ति निराधार :
यदि सही रूप में देखा जाये तो वैज्ञानिक नियम भी सभी स्थानों और समय में समान रूप से लागू नहीं होते हैं। दूसरे यह कि सार्वभौमिकता का अभाव होने के उपरान्त भी सामाजिक घटनाओं में समरूपता पायी जाती है। उदाहरणार्थ- जनसंख्या में वृद्धि बेरोजगारी और निर्धनता में वृद्धि करेगी, इस प्रकार दुर्खीम द्वारा प्रतिपादित आत्महत्या सम्बन्धी निष्कर्ष सार्वभौमिक हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि सार्वभौमिकता का अभाव आंशिक रूप से तो सामाजिक घटनाओं में पाया जाता है, लेकिन इतना नहीं जितना कि कहा जाता है।
6. सामाजिक घटनाओं की गतिशील प्रकृति
समाज की प्रकृति जटिल तो होती है। इसके अतिरिक्त यह समय के साथ द्रुत गति या धीमी गति से परिवर्तित भी होती रहती है फिर कभी व्यक्ति अपने विचारों तथा धारणाओं को छिपा भी लेता है। एक समय में सामाजिक सम्बन्ध का एक निश्चित स्वरूप होता है तो दूसरे समय में उसके स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है। परिणामस्वरूप सामाजिक सम्बन्ध के जिस स्वरूप का अध्ययन हम किसी एक समय में करते हैं, दूसरे समय में उसमें परिवर्तन होने से हमारा वह अध्ययन व्यर्थ चला जाता है। चूँकि सामाजिक घटनाएँ समाज में ही घटित होती हैं इसलिए उपर्युक्त को वास्तविक घटना के सन्दर्भ में भी इसी प्रकार समझा जा सकता है। उपर्युक्त शब्दों के आधार पर ही कहा जाता है कि सामाजिक घटनाओं की परिवर्तनशील प्रकृति होने के कारण वैज्ञानिक पद्धति से उसका अध्ययन करना बहुत मुश्किल है।
आपत्ति निराधार :
यह आरोप कि सामाजिक घटनाओं की परिवर्तनशील प्रकृति होने के कारण अनुसंधानकर्ता उनका वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन नहीं कर सकते हैं, मिथ्या प्रतीत होता है। वर्तमान समय में समाज वैज्ञानिक, सामाजिक घटनाओं में जो परिवर्तन होते हैं उनको पूर्व से ही समझने में समर्थ हैं।
7. सामाजिक घटनाओं की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती
वैज्ञानिक पद्धति की एक विशेषता यह भी है कि इसके निष्कर्षो के आधार पर भविष्यवाणी की जा सकती है। दूसरे शब्दों में, भौतिक नियम सर्वकालिक होते हैं और वे सभी समय के लिए सत्य होते हैं, लेकिन सामाजिक घटनाओं की जटिल प्रकृति होने के कारण इनमें अनिश्चितता पायी जाती है तथा इसके नियम भी इतने सीमित होते हैं कि उनके बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। सामाजिक घटनाएँ व्यक्तिगत विचारों तथा अनेक बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर होती हैं, जो कि निरन्तर परिवर्तित होती रहती हैं। ऐसी परिवर्तनशील स्थिति में किसी भी सामाजिक घटना के बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। इस विशेषता के अभाव में भी सामाजिक प्रघटनाओं को वैज्ञानिक पद्धतियों के लिए उपयुक्त माना जाता है।
आपत्ति निराधार :
धीरे-धीरे अब समाज वैज्ञानिकों ने भविष्यवाणी करने के लिए प्रयास प्रारम्भ कर दिये हैं और ऐसी आशा की जा सकती है कि भविष्य में पूर्वानुमान की घोषणा करना काफी सरल हो जायेगा। लुण्डबर्ग ने लिखा है कि, “ऐसा विश्वास करने का कारण यह है कि हम इस भविष्यवाणी की शक्ति को अत्यधिक बढ़ा सकते हैं।”
उपर्युक्त विवरण से यह कदापि नहीं समझ लेना चाहिए कि सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता। समाजशास्त्र दिन-प्रतिदिन प्रगति के पथ पर अग्रसर है जिसका परिणाम यह होता है कि हम आज जटिल, अमूर्त तथा गतिशील सामाजिक प्रघटनाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करने में सक्षम हैं। आज समाज विज्ञान में ऐसी कई प्रविधियों का विकास हो गया है, जो सामाजिक प्रघटनाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करने में समर्थ हैं।