# वन एवं वन प्रबंधन (Forest and Forest Management)

वन एवं वन प्रबंधन :

वन पारिस्थितिकी का मुख्य आधार होने के साथ मानव की आजीविका के स्त्रोत भी हैं। वन हमारे वर्तमान एवं भविष्य दोनों के संरक्षक है। वन केवल आर्थिक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं, अपितु वातावरण को स्वच्छ रखने रेगिस्तानों के प्रसार मिट्टी में नमी बनाए रखने तथा कटाव को बचाने, तापमान को नियंत्रित करने, बाढ़ से सुरक्षा प्रदान करने, मानसून की स्थिति को अनुकूल बनाने, वर्षा को नियंत्रित करने तथा वायु को शुद्ध करने के लिए अनिवार्य है।

वनों के संरक्षण हेतु एक निश्चित नीति की आवश्यकता है। इसमें सबसे अधिक महत्व वनों में लगने वाली आग से बचाव को देना चाहिए।

वनों को आग से बचाने के लिए नियमित रूप से सर्वेक्षण किया जाता है। इस कार्य के लिए मानचित्रों का निर्माण किया जाता है और आग के खतरे वाले स्थानों का पता लगाया जाता है।

अनेक देशों में इस कार्य में दूर संवेदी उपग्रहों, राडार तथा हवाई जहाज की सहायता ली जाती है। उपग्रहों से इन्फ्रारेड फोटोग्राफी करके वनों की आग का तुरंत पता लगाना संभव है।

वनों में आग बुझाने तथा फैलाने की गति को रोकने के लिए अग्नि त्रिकोण को तोड़ना आवश्यक है। यह त्रिकोण ईंधन तापमान और ऑक्सीजन है।

वृक्षों की वैज्ञानिक विधि से कटाई की जानी चाहिए। इस बात का ध्यान रखा जाए कि वृक्ष काटते समय अन्य वृक्ष क्षतिग्रस्त न हों। रोगग्रस्त पौधों को काटना भी लाभप्रद होता है। वृक्षों में लगी व्याधियों एवं कीटों के प्रकोप को रोकने के लिए कीटनाशकों का वायुयान द्वारा छिड़काव किया जाना चाहिए।

वन सुरक्षा के अन्य प्रबंध :

वन सुरक्षा के लिए निम्नलिखित उपाए किए जाने चाहिए –

1. ईंधन के वैकल्पिक साधनों गोबर गैस, सौर ऊर्जा, विद्युत ऊर्जा आदि पर जोर दिया जाए तथा इनकी कीमतें कम की जाए।

2. पर्वतीय क्षेत्रों में छोटी नदियों से अधिक ऊर्जा का निर्माण किया जाए, जिससे वनों पर से ईंधन की निर्भरता कम हो सके।

3. सड़कों, पुल निर्माण, इमारत अस्पताल, स्कूल निर्माण की प्रक्रिया में मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए दीवारें तथा पानी के निकास के लिए पक्के नाले बनाए जाएँ।

4. भारी निर्माण कार्य को कम तथा विस्फोटक सामग्री के प्रयोग को बंद किया जाए।

5. पर्यावरण से संबंधित शिक्षा को कड़ाई से लागू किया जाए तथा प्रशिक्षण दिया जाए जिससे व्यक्तियों में व्याप्त अंधविश्वास कम हो सके। जैसे जंगलों में आग लगाना, कृषि के लिए घने वनों का सफाया करना।

6. वन चेतना केन्द्र की स्थापना संपूर्ण देश में किए जाने चाहिए।

वन प्रबंधन हेतु सरकारी प्रयास :

भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् वनों के संरक्षण तथा विस्तार हेतु अनेक प्रयास किए गए हैं। भारतीय संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में स्पष्ट किया गया है कि राज्य पर्यावरण के संरक्षण तथा सुधार हेतु प्रयास करेगा। सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करने, वनसंपदा को पुनः प्रतिष्ठित करने, वन संपदा एवं पर्यावरण के रक्षार्थ अनेक ठोस कदम उठाए हैं जैसे- वन संरक्षण अधिनियम 1930, जंगली जीवन सुरक्षा अधिनियम 1972, नवीन राष्ट्रीय वन नीति 1998 इत्यादि।

वन महोत्सव :

भारत में वन संपदा की वृद्धि, वनों को सुरक्षित रखने, वृक्षों के प्रति व्यक्तियों में प्रेम जागृत करने और पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए भारत सरकार ने जुलाई 1950 में वन महोत्सव मनाना प्रारंभ किया। इसका उद्देश्य देश में वृहत् पैमाने पर वृक्षारोपण करना था। उसी समय से देश में प्रतिवर्ष जुलाई और अगस्त में वृक्षारोपण सप्ताह मानाया जाता है।

सामाजिक वानिकी :

देश में वनों एवं वृक्षों की कमी को समाप्त करने के लिए सामाजिक वानिकी जैसी महत्वपूर्ण केन्द्रीय योजना वर्ष 1980-81 में प्रारंभ की गई।

इस योजना के उद्देश्य निम्नलिखित हैं –

1. ग्रामीण क्षेत्रों के लिए ईंधन की पूर्ति और गोबर को जलाने के बदले खाद के रूप में उपयोग करना।

2. छोटी इमारती लकड़ियों की पूर्ति।

3. चारे की पूर्ति।

4. खेत की फसल को तेज वायु के प्रकोप से बचाना।

5. मनोरंजन की सुविधाएँ प्रदान करना।

# इन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु राष्ट्रीय कृषि आयोग ने सामाजिक वानिकी को चार विभागों में विभाजित किया है –

1. कृषि वानिकी

2. विस्तार वानिकी

3. निम्न कोटि के वनों का प्रत्यारोपण

4. मनोरंजन वानिकी

सामाजिक वानिकी योजना के सफल क्रियान्वयन हेतु देश को स्वीडन सरकार से सहायता प्राप्त हो रही है। इस योजना को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से देश में केन्द्र सरकार ने “वृक्ष पट्टा योजना” प्रारंभ किया है।

संयुक्त वन प्रबंधन :

वनों के संरक्षण संबंधी नीतिगत दिशा निर्देशों में वनों पर आश्रित व्यक्तियों की ईंधन, चारा, गैर इमारती, वन उत्पादन और इमारती लकड़ी की आवश्यक माँग को सर्वाधिक महत्व दिया गया है।

# संयुक्त वन प्रबंधन कार्यक्रम के प्रमुख सिद्धांत निम्नानुसार है –

1. ह्रास होते हुए बड़े वन क्षेत्र को स्थानीय समुदाय की भागीदारी से पुनः हरा भरा बनाया जा सकता है।

2. स्थानीय समुदाय का वन संरक्षण और वन की उत्पादकता बढ़ाने में भागीदारी। बाहर के व्यक्तियों को योजना से अलग रखा जाए।

भारत में संयुक्त वन प्रबंध प्रणाली के अंतर्गत 15,000 ग्राम वन समितियाँ लगभग 20 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में नष्ट हो रहे वनों का प्रबंध कर रही है। देश के विभिन्न भागों की स्थिति तथा सामाजिक आर्थिक दशाएँ इतनी विविध हैं कि सामुदायिक भागीदारी की एक नीति बनाना असंभव है। इसलिए भारत सरकार ने 1 जून सन् 1990 के अपने दिशा निर्देश में स्थान विशेष की स्थितियों अनुसार योजना बनाने एवं लागू करने का उत्तर दायित्व राज्यों पर छोड़ा था अधिकांश राज्यों ने संयुक्त वन प्रबंध को संस्थागत रूप दे दिया है।

स्थानीय समुदाय को वनों से प्राप्त पदार्थों जैसे घास, पेड़ों की शाखाओं और छिटपुट वनोपज के उपयोग का पूर्ण अधिकार होगा।

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