पंचायती राज व्यवस्था : पृष्ठभूमि
हमारा भारत वर्ष गांवो में बसता है, गांव हमारी संस्कृति के केन्द्रीय स्थान है जब तक भारत में 5.15 (सवा पांच) लाख गांव उन्नत, स्वावलंबी और समृद्धशाली न होंगे, जब तक यहां के सुविधा का अंधकार दरिद्रता का दानव और ऊंच-नीच का भेदभाव नष्ट न होगा तब तक स्वतंत्रता अथवा स्वराज का भारत के लिये कोई मूल्य नहीं है।
स्वतंत्रता के पूर्व भारतीय सभ्यता गांवों की सभ्यता थी। ग्रामीण जीवन प्रणाली स्वतंत्र थी, किन्तु ब्रिटिश शासन की स्थापना के पश्चात् गांवो का स्वतंत्र जीवन लगभग समाप्त हो गया। नए-नए कानून और अदालतों के बन जाने से पंचायत का महत्व समाप्त हो गया।
पृथ्वी पर जब मानव का उद्भव हुआ, तब मानव प्रागैतिहासिक काल में घुमन्तु जीवन व्यतीत कर रहा था। अपनी सभ्यता की ओर अग्रसर होने के बाद उसने पहला स्थाई निवेश बनाया, वह ग्राम ही था। अपनी सामाजिक प्रकृति के कारण वह समूह में रहता था, तब समूह में व्यवस्था की आवश्यकता ने शासन अथवा प्रशासन को जन्म दिया।
ग्राम निवेश की संभवतः पहली इकाई थी। ग्रामीण प्रशासन अर्थात् ग्राम पंचायत का उल्लेख सबसे पहले प्राचीन भारतीय साहित्य में ही मिलता है, और वह व्यवस्था भारत में आज भी पाई जाती है।
सन् 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ और इसके बाद पंचायती राज, ग्रामीण विकास की दिशा में उल्लेखनीय कार्यक्रम प्रारंभ किये गये। भारत में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की दिशा में पंचायती राज की स्थापना का प्रयास वास्तविक रूपों मे सजीव एवं साकार प्रयास था। पंचवर्षीय योजनाओं में ग्रामीण विकास के लिए विभिन्न प्रकल्प तैयार किये गये। सामुदायिक विकास कार्यक्रम की शुरुआत सन् 1952 में गांधीजी के जन्म दिन 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान विधानमंडल ने सर्वप्रथम पंचायत समिति और जिला परिषद अधिनियम पारित किया और इनके क्रियान्वयन मे 2 अक्टूबर 1959 को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने राजस्थान के नागौर जिले में पंचायती राज का उद्घाटन कर ग्रामीण विकास के प्रथम चरण की शुरुआत की। पंचायती राज के प्रथम में 11 अक्टूबर, 1959 को पं. जवाहर लाल नेहरू ने इस व्यवस्था का सूत्रपात आंध्रप्रदेश में किया। आंध्रप्रदेश में यह प्रणाली त्रिस्तरीय पंचायत राज प्रणाली के रुप में थी। इसके बाद सन् 1960 में पंचायती राज असम, मद्रास, कर्नाटक में सन् 1962, महाराष्ट्र में 1964, पश्चिम बंगाल और इसके बाद अन्य दूसरे राज्यों में प्रारंभ हुआ। धीरे-धीरे मेघालय, नागालैण्ड लक्षद्वीप व मिजोरम को छोड़कर सम्पूर्ण भारत के राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में पंचायती राज्य अस्तित्व में आ गया।
भारत में पंचायती राज को लगातार कायम रखने के लिय यह प्रयास किया जाता रहा है कि पंचायती राज व्यवस्था को सशक्त बनाया जाए संविधान निर्माताओं द्वारा पंचायती राज को संवैधानिक निर्माताओं द्वारा मान्यता प्रदान न किये जाने से इसके विकास के मार्ग में अवरोध जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई। नीति निर्देशक तत्वों में पंचायती राज संस्थाओं को स्थानीय स्वशासन की ईकाई के रूप में गठित करने का दायित्व राज्य सरकारों को सौंपे जाने का विचार अपर्याप्त था क्योंकि राज्य सरकारों में अपनी शक्ति का अभाव सदैव दृष्टिगत होना रहा, स्वतंत्र भारत में पंचायती राज व्यवस्था की पृष्ठभूमि अधिक मजबूत न होने के कारण समय समय पर विविध आयोगों अध्ययन दलों व समितियों का गठन इस उद्देश्य से किया गया कि पंचायती राज व्यवस्था को सशक्त बनाने हेतु महत्वपूर्ण सुझाव प्राप्त हो सके। इन समितियों में राष्ट्रीय एवं राज्य व्यवस्था हेतु सुझाव प्राप्त हो चुके थे, जिनकी राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर गठित महत्वपूर्ण समितियाँ निम्नांकित है –
- सामुदायिक परियोजनाओं तथा राष्ट्रीय सविस्तार सेवाओं पर कार्य दल की रिपोर्ट, बलवंत राय मेहता समिति, (1957)
- खण्ड स्तरीय राज्य नियोजन पर कार्यदल एम. एल. दानवाला समिति, (1977-1978)
- पंचायती राज संस्थाओं पर अशोक मेहता समिति, (1978)
- खण्ड स्तरीय नियोजन पर दिशा-निर्देश हेतु अजीत मजूमदार समिति, (1978)
- जिला नियोजन पर कार्यदल सी. एच. हनुमन्तराव समिति, (1982-84)
- ग्रामीण विकास एवं गरीब उन्मूलन कार्यक्रम प्रशासन पर जी. वी. के. राव समिति, (कार्ड समिति 1985)
- पंचायती राज संस्थाओं की समीक्षा पर एल. एम. विधायी समिति, (1986)
- जिला नियोजन पर पी. के. थुंगन समिति, (1988)
- संसदीय सलाहकार समिति (कार्मिक, लोक शिकायत एवं पंचायत मंत्रालय से सम्बद्ध) की उप समिति।
बलवन्तराय मेहता समिति :
भारत के ग्रामीण विकास की दिशा में चल रहे विभिन्न विकास कार्यक्रम में चल रहे विभिन्न विकास कार्यक्रम की गति को तीव्र करने सामाजिक एवं आर्थिक स्थितियों में सुधार लाने तथा स्थानीय प्रशासन में सुधार लाने तथा स्थानीय प्रशासन को महत्ता को उत्कृष्ट बनाए रखने के लिए जनवरी, 1957 में बलवन्तराय मेहता समिति गठित की गई। इस समिति के सदस्यों एवं सचिव में ग्रामीण जनता से रूबरू होकर अपनी रिपोर्ट 24 नवम्बर 1957 को केन्द्र सरकार को पेश की। प्रान्त से नीचे स्तर पर अधिकारों एवं दायित्वों विकेन्द्रीकरण होने की अत्यन्न आवश्यकता पर बल दिया। साथ ही कहा कि प्रान्त से निचले स्तर की सत्ता ऐसी संस्था को सौंपी जाए जो अपने अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत सभी विकास कार्यो के लिए उत्तरदायी हो और सरकार का कार्य मात्र उसका मार्गदर्शन उच्च स्तर की योजना बनाना एवं आवश्यकता के अनुसार धन उपलब्ध कराना हो। भारत सरकार द्वारा समिति की उक्त सिफारिशों को स्वीकार किया गया। आज के पंचायती राज का अधिकांश स्वरूप बलवन्तराय मेहता समिति की तत्कालीन रिपोर्ट पर ही आधारित है।
अशोक मेहता समिति :
बलवन्तराय मेहता समिति के बाद भी यथासंभव अन्य कई समितियां पंचायती की उल्लेखनीय प्रगति को त्वरित करने के लिए प्रयासरत रही है। इनमें अशोक मेहता समिति एवं राव समिति प्रमुख है। सन् 1977 ई. में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी की सरकार ने भारत में पंचायती राज का मूल्यांकन करने के लिए 12 सितम्बर 1977 को अशोक मेहता समिति का गठन किया। इसमें तमिलनाडू के मुख्यमंत्री, योजना आयोग के सदस्य एवं संसद सदस्य शामिल थे। उल्लेखनीय है अशोक मेहता समिति में राजस्थान विश्वद्यालय के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर इकबाल नारायण को सदस्य सचिव बनाया गया था। इस समिति ने संपूर्ण भारत में भ्रमण कर पंचायती राज के संबंध में विभिन्न लोगों के विचारों को जाना, इसी दौरान मेहता समिति ने एक प्रश्नावली जारी की जिसे पंचायती राज में रुचि रखने वाले लोगों से हल करवाई गई। लगभग 1000 लोगों से प्रत्युतर प्राप्त हुए। अशोक मेहता समिति ने अपनी रिपोर्ट 21 अगस्त, 1978 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को प्रस्तुत की, जिसमें विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से कुल 132 सिफारिश थी –
- मुख्य पंचायतें – अशोक मेहता समिति ने मंडल पंचायतों की स्थापना के सुझाव प्रस्तावित किए जिसमें 10-15 गांव शामिल हो एवं उनकी कुल आबादी 15,000 से 20,000 हो।
- जिला स्तर पर योजना सेल – जिला स्तर पर एक ‘योजना सेल’ हो जिसमें एक मानचित्रकार या नक्शानवीस, कृषि वैज्ञानिक, इंजीनियर, अर्थशास्त्री, सांख्यिकीविद, भूगोलवेत्ता एवं ऋण योजना अधिकारी होना चाहिए।
- योजना सेल का पर्यवेक्षण – योजना सेल जिला परिषदों के अंतर्गत हो तथा इसका पर्यवेक्षण एक मुख्य अधिकारी के द्वारा होना चाहिए।
- कार्यक्रमों की योजना एवं क्रियान्वयन – जिला परिषदों का कार्य विकास संबंधित अर्थक्रमों की योजना तैयार करना हो और विकास कार्यक्रमों का क्रियान्वयन मंडल पंचायतों द्वारा तय होना चाहिए।
- चुनाव मुख्य निर्वाचन आयुक्त के परामर्श से – पंचायती राज के विभिन्न निकायों का चुनाव मुख्य निर्वाचन आयुक्त के परामर्श से हो एवं इसका दायित्व राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी पर होना चाहिए।
राव समिति :
व्यावहारिक रूप में अशोक मेहता समिति के प्रतिवेदन को लागू नहीं किया जा सका और वह मात्र अकादनिक महत्व का बनकर रह गया। सन 1985 में ग्राम विकास के लिए विद्यमान प्रशासनिक व्यवस्थाओं की समीक्षा के लिए, कृषि मंत्रालय भारत सरकार की अध्यक्षता में, एक समिति का गठन किया गया जो आगे चलकर राव समिति के नाम से चर्चित हुई। इस समिति ने पंचायती राज की समीक्षा की और अपने प्रतिवेदन में स्पष्ट किया कि ग्राम विकास कार्यक्रम पंचायती राज निकाय के सक्रिय क्षेत्रों में पूर्णतः सफल एवं श्रेष्ठकर रहा है। ‘राव समिति’ ने चतुस्तरीय पंचायती राज प्रणाली को स्थापित करने की सिफारिश पेश की। इस चतुस्तरीय प्रणाली में राज्य विकास परिषद, जिला परिषद पंचायत समिति, मंडल पंचायत और ग्रामसभा के स्वरूप को विकसित करने का सुझाव दिया गया। राव समिति द्वारा अपने प्रतिवेदन में निम्नांकित सिफारिशें प्रस्तुत की।
1. राज्य विकास परिषद
राव समिति के अनुसार राज्य स्तर पर राज्य विकास परिषद होनी चाहिए जिसका अध्यक्ष मुख्यमंत्री हो। वर्तमान प्रणाली के अनुसार जिला स्तर पर जिला परिषद बनी रहे। राज्य सरकार के मंत्री और जिला परिषद के अध्यक्ष, राज्य विकास परिषद के सदस्य हो एवं विकास आयुक्त इसके सचिव हो।
2. कार्य का विकेन्द्रीकरण
जिला स्तरीय जिला परिषदों में कार्य का महत्त्वपूर्ण विकेन्द्रीयकरण होना चाहिए और जिला स्तरीय सभी विकास के विभाग, उनके अधीनस्थ कार्यालय, जिला परिषदों के अधीन कार्यरत हो। जिला बजट बनाने का हस्तांतरण किया जाना चाहिए।
3. कार्यक्रमों का क्रियान्वयन
जिला परिषदों के मार्गनिर्देशन में विकास कार्यक्रमों की योजना बनाने एवं उन्हें क्रियान्वित करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से खंड स्तर पर निर्वाचन निकाय अथवा पंचायत समिति हो। खंड स्तर पर पंचायती राज निकाय एवं सभी क्षेत्रीय विभाग, पंचायत समिति के अधीन कार्यरत हो एवं योजनाओं के क्रियान्वयन में पंचायत समिति की महत्वपूर्ण भूमिका हो।
4. मण्डल पंचायत का गठन
हनुमंता राव समिति के अनुसार वर्तमान ग्राम पंचायत के बदले 15,000 से 20,000 तक की आबादी के ग्राम समूहों में मण्डल पंचायत का गठन किया जाए, जिसकी एक कार्यपालक निकाय हो। जिसे मंडल स्तर पर योजनाओं के क्रियान्वयन का भार सौंपा जाए।
5. ग्रामसभा
प्रत्येक ग्राम के लिए एक ग्रामसभा हो, जिसमें उस गांव के सभी सदस्य मतदाता हो। गरीबी को दूर करने की दिशा में पूर्व नियोजित कार्यक्रम यथा- एकीकृत ग्राम विकास कार्यक्रम, राष्ट्रीय ग्राम रोजगार कार्यक्रम, ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम के लाभार्थियों को पहचानने के लिए निर्धारित ग्रामसभा की बैठकों की सुविधा हो।
6. कार्यक्रम क्रियान्वयन उपसमिति
ग्राम पंचायत समिति एवं ग्राम मंडल की एक उप समिति हो जिसमें महिलाओं और बच्चों के कल्याण तथा प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रमों और योजनाओं पर विचार करने एवं उनके क्रियान्वयन के लिए मुख्य रुप से महिला सदस्य हो।
यद्यपि पंचायती राज की दृष्टि से राव समिति की उपरोक्त सिफारिशें महत्वपूर्ण थी लेकिन उनकी क्रियान्वित नहीं हो सकी।
डॉ. एल. एम. सिंघवी समिति :
भारत में पंचायती राज संस्थाओं के कार्यों की समीक्षा करने तथा इनके सुधार हेतु डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी की अध्यक्षता में एक नई समिति का गठन किया गया। इस समिति ने गांवों के पुनर्गठन एवं पंचायतों को पर्याप्त वित्तीय साधन सुलभ कराने हेतु अपनी राय भारत सरकार को पेश की। इसकी विभिन्न सिफारिशों को सिफारिशों को क्रियान्वित किया गया।
जिला कलेक्टर्स की कार्यशालाएं :
भारत सरकार के कार्मिक एवं प्रशासनिक सुधार विभाग द्वारा दिसम्बर, 1987 से जून, 1988 तक देश के समाप्त जिलों के कलेक्टर्स की पाँच कार्यशालाएँ-भोपाल (दिस. 1987), हैदराबाद (फरवरी 1988), इम्फाल (अप्रैल 1988), जयपुर (अप्रैल-मई 1988) एवं कोयम्बटूर (जून 1988) में आयोजित की गई। इन कार्यशालाओं में यह विचार उभरकर सामने आया कि ग्रामीण क्षेत्रों में विकास कार्यक्रम को गतिशील बनाने में पंचायती राज संस्थाओं का आधारभूत महत्व है। कार्यशालाओं का यह भी निष्कर्ष था कि जिला स्तर पर पंचायती राज संस्थाओं के लिए विषय निर्धारित एवं इस विषय सूची को ‘जिला सूची’ के रूप में संवैधानिक मान्यता प्राप्त हो।
64 वाँ संविधान संशोधन विधेयक :
सन् 1988 ने गठित पी. के. थुंगन समिति एवं सरकरिया आयोग सहित, पूर्व में गठित समस्त समितियों का यह सुझाव था कि पंचायती राज संस्थाओं को मजबूत एवं प्रभावी इकाई बनाने हेतु यह आवश्यक है कि प्रभावी इकाई बनाने हेतु यह आवश्यक है कि इन्हें संवैधानिक मान्यता प्राप्त हो। इसी पृष्ठभूमि में 15 मई, 1989 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पंचायत के संदर्भ मे 64वाँ संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया।
इस विधेयक के प्रमुख प्रावधान थे –
- त्रिस्तरीय पंचायत राज संस्थाओं का गठन।
- 30 प्रतिशत स्थान महिलाओं हेतु आरक्षित।
- वित्त आयोग की स्थापना।
- पंचायती राज संस्थाओं में चुनाव निर्वाचन आयोग के माध्यम से कराने की व्यवस्था।
- नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा पंचायतों के लेखों की जांच।
यद्यपि 64 वाँ संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में तो पारित हो गया किन्तु राज्यसभा में पारित नहीं हो सका, तथापि पंचायती राज के सशक्तिकरण में इस विधेयक ने एक महत्वपूर्ण आधार का काम किया।
73वाँ संविधान संशोधन :
16 सितम्बर, 1991 को पी.वी. नरसिम्हा सरकार के द्वारा 72 वाँ संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया गया। वस्तुतः यह विधेयक 64 वें संशोधन विधेयक को ही संशोधित प्रति थी। लोकसभा में 72 वें विधेयक की समीक्षा हेतु संसद सदस्यों की एक संयुक्त प्रवर समिति का गठन किया गया। नाथूराम मिर्झा की अध्यक्षता में गठित इस समिति में विविध राज्यों एवं दलों के प्रतिनिधि सदस्य थे। समिति ने व्यावहारिकता की दृष्टि से विधेयक के प्रावधानों के अध्ययन करके अपना प्रतिवेदन संसद के समक्ष प्रस्तुत प्रस्तुत किया। जिसे 22 दिसम्बर को लोकसभा एवं अगले दिन राज्य सभा ने 73 वें संविधान संशोधन अधिनियम के रूप में पारित कर दिया गया। 17 राज्यों के अनुमोदन के पश्चात् 24 अप्रैल, 1993 को यह अधिनियम संपूर्ण देश में लागू कर दिया गया। इस महत्वपूर्ण अधिनियम के प्रमुख प्रावधान इस प्रकार है –
1. ग्राम सभा का प्रावधान
73 वें संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान के भाग 8 के पश्चात् नया भाग 9 ‘पंचायत‘ शीर्षक जोड़ा गया तथा अनुच्छेद 243 जोड़ते हुए पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान कर दिया गया। ग्रामसभा के संबंध में स्पष्ट प्रावधान रखते हुए उल्लेखित किया गया कि राज्य विधानमंडल द्वारा निश्चित की गई शक्तियों का प्रयोग ग्रामसभा कर सकेगी। अनुच्छेद 243 (A) के अनुसार ग्राम पंचायत ग्रामसभा के प्रति उसी प्रकार उत्तरदायी होगी, जैसे कि राज्य सरकार विधानसभा के प्रति होती है।
2. त्रिस्तरीय संरचना
देश के विभिन्न राज्यों में पंचायतों के ढांचे में एकरुपता का अभाव होने के कारण इस अधिनियम में सभी राज्यों में पंचायती राज संस्थाओं में त्रि-स्तरीय संगठनात्मक संरचना का प्रावधान रखा गया है इन्हीं प्रावधान में 20 लाख से कम की जनसंख्या वाले राज्यों को मध्यवर्ती इकाई के गठन से छूट दी गई है। अनुच्छेद 243 (B) में ग्राम पंचायत का गठन आवश्यक है। मध्य स्तर पर पंचायत समिति एवं जिला स्तर पर जिला परिषद का प्रावधान रखा गया है। साथ ही यह उल्लेखित है कि पंचायत समिति एवं जिला परिषद में से एक संरचना हो या दोनों, यह राज्य की विधानसभा के निर्णय पर निर्भर करेगा।
3. आरक्षण
पंचायती राज संस्थाओं मे SC, ST एवं OBC वर्ग की जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण दिए जाने का प्रावधान किया गया है। इसी प्रकार महिलाओं के लिए 1:3 स्थान आरक्षित करने का प्रावधान रखा गया है।
सभापतियों अथवा अध्यक्षों के आरक्षण के संदर्भ में यह प्रावधान किया गया है कि पंचायती राज संस्थाओं के अध्यक्षों के पद भी अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति तथा महिलाओं के लिए राज्य विधानमंडल के अधिनियम से प्रक्रिया निर्धारित करते हुए आरक्षित किए जा सकेंगे।
4. कार्यकाल
केन्द्र एवं राज्य सरकारों के समान पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल भी 5 वर्ष निर्धारित किया गया है। यदि इससे पूर्व किसी संस्था को भंग कर दिया जाता है तो 6 माह की अवधि में उसका निर्वाचन करवाना अनिवार्य होगा तथा पंचायती राज की किसी भी संस्था का कार्यकाल 5 वर्ष से अधिक नहीं होगा।
5. करारोपण
73 वें संविधान संशोधन के माध्यम से राज्य विधान मंडल के लिए यह व्यवस्था की गई है कि वे पंचायत को उपयुक्त कर लगाने, वसूल करने तथा व्यय करने का अधिकार दे सकते हैं। राज्य सरकार राज्य के संचित कोष से पंचायती राज संस्थाओं को अनुदान भी दे सकती है। संशोधन Act के अनुसार जो tax कर राज्य सरकार द्वारा लगाए जाएंगे, उनका वितरण राज्य सरकार एवं पंचायती राज संस्थाओं के बीच किया जा सकेगा तथा जिन करों का आरोपण पंचायती राज संस्थाएँ करेगी, उनका एकत्रण एवं व्यय के अपने स्तर पर ही कर सकेगी।
6. वित्त आयोग
अधिनियम में यह प्रावधान किया गया है कि राज्यों के राज्यपाल 73वें संशोधन अधिनियम के लागू होने के एक वर्ष बाद और तदुपरान्त प्रति 5 वर्ष में राज्य विधान मंडल विधि के माध्यम से वित्त आयोग का गठन कर सकेंगे। वित्त आयोग के द्वारा वित्तीय स्थिति की समीक्षा तथा राज्य और स्थानीय निकायों के मध्य धन वितरण के बारे में सिफारिशें दी जायेगी।
7. प्रत्यक्ष निर्वाचन
संशोधन अधिनियम के अनुसार सभी स्तरों पर पंचायत के सभी सदस्यों का निर्वाचन प्रत्यक्ष रूप से होगा परन्तु खण्ड एवं जिला स्तरीय संस्थाओं में अध्यक्षों का प्रत्यक्ष रूप से हो या अप्रत्यक्ष रूप से, इस संबंध में निर्णय करने का अधिकार संबंधित राज्य सरकारों को दिया गया है।
अधिनियम यह व्यवस्था करता है कि राज्य में पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों से संबंधित समस्त पक्षों का अधीक्षण, निर्देशन एवं नियंत्रण राज्यपाल द्वारा नियुक्त किए गए एक राज्य निर्वाचन आयोग में निहित होगा।
8. लेखा एवं अंकेक्षण संबंधी प्रावधान
73 वें संविधान संशोधन अधिनियम यह प्रावधान करता है कि विभिन्न स्तर की पंचायती राज संस्थाओं द्वारा रखे जाने वाले लेखा एवं उसके अंकेक्षण के संबंध में राज्य विधान मंडल विधि बनाकर आवश्यक प्रावधान कर सकेंगे।
9. संशोधन अधिनियम के अनुच्छेद
अनुच्छेद 243 में राज्य विधान सभाओं को यह अधिकार दिया गया है कि वे पंचायतों के अधिकार, कर्तव्य प्रशासनिक एवं वित्तीय व्ययस्था से संबंधित ऐसे नियम बनाए, जिससे ये संस्थाए लोकतांत्रिक विकेन्द्रीयकरण को यथार्थ रुप में चरितार्थ करते हुए जन आकांक्षाओं के अनुरुप प्रभावी ढंग से कार्य कर सके।
10. पंचायती राज संस्थाओं के दायित्व
संशोधन विधेयक में पंचायती राज संस्थाओं के स्थानीय महत्व के 29 विषय, यथा- कृषि, सिचाई, पशुपालन, वन, ग्रामीण सड़के, शिक्षा, परिवार कल्याण आदि रखे गए है जो 64 वें संशोधन विधेयक मे भी उल्लिखित थे। पंचायती राज संस्थाओं के द्वारा किए जाने वाले कार्यों की सूची संविधान की 11 वीं अनुसूची के माध्यम से जोड़ी गई है तथा अधिनियम में कहा गया है कि संविधान के प्रावधान के अधीन रहते हुए राज्य विधान मंडल कानून बनाकर इन संस्थाओं को स्वायत शासन की इकाई के रूप में सक्षम बनाने हेतु आवश्यक शक्तियाँ एवं सता वे सकेंगे।
ग्रामीण विकास का प्रशासनिक ढाँचा :
भारत में ग्रामीण विकास का विभिन्न स्तरों यथा केन्द्रीय स्तर राज्य स्तर, जिला स्तर एवं खण्ड स्तर पर प्रशासनिक ढांचा निम्न प्रकार से पाया जाता है –
केन्द्रीय स्तर पर
भारत सरकार ने ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के लक्ष्य, नीति, सिद्धांत, संचालन एवं रणनीति तैयार करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक मंत्रालय की स्थापना की है। यह कृषि मंत्रालय के अंतर्गत ग्रामीण विकास विभाग के रूप में विद्यमान है। ग्रामीण विकास विभाग के एक सचिव नियुक्त होता है जो इस विभाग का प्रशासनिक मुखिया होता है। ग्रामीण विकास विभाग के अंतर्गत विभिन्न उप विभागीय कार्यक्रम तैयार किये जाते हैं, इसमें ग्रामीण रोजगार ग्रामीण भूमि सुधार सिंचाई एकीकृत ग्राम्य विकास आदि महत्वपूर्ण पहलूओं को पृथक रुप मे संचालित किया जाता है। ग्रामीण विकास विभाग द्वारा ग्रामीण विकास के कार्यक्रमों के संदर्भ में निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्य संपन्न किए जाते हैं –
- ग्रामीण विकास विभाग समय-समय पर ग्रामीण कार्यक्रमों के संचालन हेतु प्रशासनिक फेरबदल के संदर्भ में विचार करता है।
- ग्रामीण विकास विभाग राज्य सरकारों से भी संपर्क बनाये रखता है। इसके लिए समय 2 पर केन्द्रीय दल राज्यों का दौरा करके इन कार्यक्रमों को समीक्षा करते हैं, ताकि राज्य सरकार तथा केन्द्र सरकार द्वारा चलाये जाने वाली योजनाओं का लक्ष्य, उपलब्धि तथा वार्षिक योजना आदि की समीक्षा करता है तथा उनसे संबंध खानियों को दूर करने का उपाय करता है।
- यह ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के संचालन के दौरान पायी जाने वाली त्रुटियों को दूर करने के लिए नीतिगत उपाय सुझाकर उसे सही करने के लिए निर्देश देता है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने वाले कर्मचारी एवं अधिकारी वर्ग को प्रतिक्षण के लिए नए प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना हेतु अपनी स्वीकृति प्रदान करता है।
- विभाग द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में चलाये जाने वाले वर्तमान एवं भावी कार्यक्रमों के लिए सिद्धांत एवं उनकी नीति तैयार की जाती है।
राज्य स्तर पर
राज्य स्तर पर ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के संचालन में प्रशासनिक दोषों को दूर करने के उपाय या प्रयास राज्य सरकार अपने ढंग से नीतियों का निर्धारण कर, उन्हें लागू करती है राज्य स्तर पर ग्रामीण विकास विभाग का गठन किया जाता है तथा उसमें ग्रामीण विकास आयुक्त इसका प्रमुख होता है। राजनीतिक स्तर पर ग्रामीण विकास मंत्री भी बनाया जा रहा है। ग्रामीण विकास सचिव के अतिरिक्त एक संयुक्त सचिव का पद भी होता है। राज्य स्तर पर ग्रामीण विकास की अध्यक्षता में एक समिति बनायी जाती है। जो ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के लिए अनेक प्रकार से कार्य करता है। इस समिति में कृषि, पशुपालन, वानिकी सहकारिता योजना एवं वित्त जैसे महत्वपूर्ण विभागों के प्रमुखों को इसका सदस्य बनाया जाता है। समिति के मुख्य कार्य निम्नलिखित होते है –
- यह समिति जिला एवं विकास खण्ड स्तर पर चलायी जाने वाली योजनाओं का मार्गदर्शन करती है।
- विभिन्न ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के समन्वयात्मक ढांचे को बनाये रखना ताकि योजनाओं का गुणात्मक लाभ ग्रामीण लोगों को अधिकाधिक मात्रा में प्राप्त हो सके।
- कार्यक्रमों के निर्धारित लक्ष्यों के अनुरूप उनकी उपलब्धि किस सीमा तक हुई है तथा इसमे प्रशासनिक ढांचा किस हद तक उत्तरदायी है, इस बात की समीक्षा भी समिति द्वारा की जाती है।
- समिति द्वारा यह महत्वपूर्ण कार्य किया जाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों के अधिकारी एवं कर्मचारियों की आवश्यकता की पूर्ति हेतु संबंध कार्यक्रमों के अंतर्गत पदों का सृजन करता है। इसके अलावा कार्यक्रम के संचालन हेतु परिवहन सुविधा, उपकरण, आवास तथा विविध कार्यक्रमों के सम्पन्न किये जाने हेतु अनेक कार्यों को अपनी स्वीकृत देना।
इस प्रकार राज्य स्तर पर गठित समिति द्वारा किये जाने वाले कार्यों का निर्धारण केन्द्रीय सरकार द्वारा किया जाता है। प्रायः राज्यों की सरकारों द्वारा केन्द्र सरकार के मध्य कार्यों के निर्धारण संबंधी मुद्दों में सामंजस्य बना रहता है। कभी-कभी इसमें टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है, जिससे ग्रामीण विकास कार्यक्रम प्रभावित होते हैं। वैसे इस प्रकार की टकराहट की स्थिति प्रायः उस वक्त उत्पन्न होती है जब केन्द्र एवं राज्य सरकारों में अलग-अलग दलों वाली सरकार होती है क्योंकि ग्रामीण विकास कार्यक्रम के माध्यम से राज्य एवं केन्द्र दोनों प्रकार की सरकारें अपने मतों को बटोरने का कार्य भी करती है। अतः समिति में राजनीतिक दबाव बना रहता है।
जिला स्तर पर
ग्रामीण विकास कार्यक्रमों को सही ढंग से संचालित करने के उद्देश्य से इसके जिला स्तर पर ग्रामीण प्रशासन व्यवस्था का गठन किया जाता है। जिला स्तर पर ग्रामीण विकास हेतु प्रशासनिक ढांचे को चार्ट द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है –
जिला स्तर पर प्रशासनिक ढाँचा
⇓
जिला अधिकारी / जिला परिषद् अध्यक्ष
⇓
मुख्य विकास अधिकारी
⇓
परियोजना निर्देशक
⇓
उप परियोजना अधिकारी
जिला स्तर पर जिला अधिकारी, जिला परिषद अध्यक्ष ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के प्रशानिक संगठन का प्रधान होता है। जनपद स्तर पर ग्रामीण विकास कार्यक्रमों को सुचारु रूप से चलाने के लिए जिला ग्रामीण विकास अभिकरण (DRDA) बनाया गया है। इस अभिकरण का मुखिया जिला अधिकारी या जिला परिषद अध्यक्ष होता है। परियोजना अधिकारी (कृषि) भूमि विकास का प्रमुख, जिला उद्योग का प्रमुख क्षेत्रीय नेता (सांसद एवं विधायक), अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं महिलाओं के प्रतिनिधि इस अभिकरण के सदस्य होते है। जिला ग्राम विकास अभिकरण द्वारा ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के संबंध में निम्नांकित कार्य किये जाते हैं –
- जिला स्तर पर सर्वेक्षण कार्य करके जिला योजना तैयार करना।
- जिले के वार्षिक योजना तैयार करना है।
- ग्रामीण विकास कार्यक्रमों की समीक्षा करना।
- ग्रामीण क्षेत्रों मे नई तकनीकी ज्ञान प्रसार आदि सुविधायें सुलभ करना।
- विकास खण्ड के स्तर के कार्यक्रमों के लक्ष्य एवं प्राप्ति का मूल्याकंन करना तथा उचित सुझाव एवं रणनीति तैयार करना।
खण्ड स्तर पर
विकास खण्ड स्तर पर भी ग्रामीण कार्यक्रम तैयार किये जाते हैं तथा वार्षिक योजना बनाकर उनका क्रियान्वयन किया जाता है। विकास खण्ड स्तर पर ग्रामीण विकास कार्यक्रम को चलाने के लिये प्रशानिक ढाँचा निम्नांकित प्रकार से होता है –
विकास खण्ड स्तर पर ग्रामीण विकास कार्यक्रमों का संचालन एवं क्रियान्वयन खण्ड विकास अधिकारी (B.D.O.) द्वारा किया जाता है, लेकिन उसे ब्लाक प्रमुख जो कि ब्लाक स्तर पर ग्रामीणों का नेतृत्व करता है के साथ समन्वयात्मक एवं सामंजस्यपूर्ण व्यवहार रखना पड़ता है। अतः विकास खण्ड स्तर पर ये दोनों प्रमुख आपसी विचार-विमर्श द्वारा गांवो में अवाश्यकतानुसार कार्यक्रमों का संचालन करते हैं। यद्यपि ब्लाक प्रमुख का कार्यक्रमों के संचालन मे प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं रहता है, लेकिन इसके अभाव में ग्रामीण विकास कार्यक्रम निश्चय ही प्रभावित होते हैं। खण्ड विकास अधिकारी के साथ विभिन्न विभागों की देखरेख हेतु कई सहायक (ADO) सहायक खण्ड विकास अधिकारी होते हैं। इसमें कृषि, सहकारिता, पंचायत, सांख्यिकी, महिला अधिकारी आदि होते हैं। ग्राम समूह स्तर पर ग्राम विकास अधिकारी तथा ग्राम पंचायत अधिकारी नियुक्त होते हैं ये ब्लाक योजनाओं को ग्रामों में परिवार स्तर तक पहुंचाने का कार्य संपन्न करते हैं।
इस प्रकार ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के सफल संचालन हेतु प्रशासनिक ढाँचा केन्द्रीय स्तर से लेकर ब्लाक स्तर क्रमशः विभक्त होता है। इन सबके होते हुए भी ग्रामीण विकास कार्यक्रमों द्वारा यथोचित उपलब्धि नहीं मिल पायी है। लक्ष्य एवं प्राप्ति में सदैव अंतर रहा है। विकास कार्य औपचारिकता के आधार पर फाइलों पर निर्भर हो गया है। वास्तविक स्थल पर कार्यक्रम होता है। इसके लिए ग्रामीण नेतृत्व पर विचार करना आवश्यक रहेगा। विकास आयुक्त समिति का सचिव होता था।
आधिकारिक स्तर पर वह उस मंडल का प्रमुख था, जिसमें विकास विभाग के प्रमुख अथवा सचिव सम्मिलित थे। वह इन सब विभागों के बीच सामंजस्य – अधिकारी का काम करता था और यह देखना उनकी उत्तरदायी था कि विभिन्न विभागों में काम योजना के अनुसार चल रहा है अथवा नहीं।